परम वैभवशाली अखंड भारतवर्ष

परम वैभवशाली अखंड भारतवर्ष

राष्ट्रचिंतन लेखमाला – 4

 नरेंद्र सहगल

परम वैभवशाली अखंड भारतवर्षपरम वैभवशाली अखंड भारतवर्ष

देशवासियों ने प्रसन्नता और उल्लास के साथ अपना 74वां गणतंत्र दिवस मनाया है। यह हमारी राष्ट्रभक्ति का स्वाभाविक परिचय है। परंतु यह खंडित भारत की आधी अधूरी स्वतंत्रता का उत्सव था। भारत का आधे से अधिक भूगोल अभी विदेशियों/विधर्मियों के कब्जे में है। संकल्प करना चाहिए कि हम अपने देश को पुनः परम वैभवशाली अखंड भारतवर्ष के रूप में देखेंगे। भारतवर्ष अखंड था और भविष्य में पुनः अखंड होगा।

इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अंग्रेजों के भारत छोड़ने के पश्चात खंडित भारत का जो हिस्सा हमारे पास रहा, उसी को हम भारतीय भारत समझ बैठे। हमारे देश की सीमाएं पूर्वकाल में हिन्दुकुश पर्वत (अफगानिस्तान) से इंडोनेशिया और तिब्बत से श्रीलंका तक थीं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भारत, भारतीय, देवतात्मा हिमालय, चक्रवर्ती क्षेत्र इत्यादि शब्दावली का इस्तेमाल बार-बार किया गया है।

अपने पुराणों एवं महाकाव्यों में भारत का जो वर्णन किया गया है, उसमें त्रिविष्टप (तिब्बत) की उत्तरी सीमा से लेकर समुद्र तक सारा क्षेत्र आ जाता है। इसमें तो उपगणस्थान (अफगानिस्तान) तिब्बत, नेपाल, सिक्कम, भूटान, मलेशिया, सिंगापुर तथा श्रीलंका इत्यादि सभी क्षेत्रों का वर्णन आ जाता है। अंग्रेजों ने इसी सारे भूभाग पर अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। अर्थात उस समय भी भारत ‘अखंड’ ही था। धूर्त अंग्रेज शासकों ने इसी भारत को कई बार टुकड़ों में बांटने का कुकृत्य किया।

विष्णु पुराण में एक श्लोक में तो ‘भारत एवं भारती’ शब्द स्पष्ट मिलते हैं।

“उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रैश्चैव दक्षिणम, वर्षंतद् भारतंनाम, भारती यत्र संतति।“

अर्थात समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो विशाल क्षेत्र स्थित है, उसका नाम भारत है और उसकी संतान को भारती कहते हैं। महाकवि कालिदास ने भी देवतात्मा हिमालय का वर्णन किया है। आचार्य चाणक्य ने इसी विशाल क्षेत्र को चक्रवर्ती देश कहा है।

सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री हवेनसांग के समय भारत की सीमाओं में आज का अफगानिस्तान और मध्य एशिया का तांशकंद – समरकंद भी शामिल था। उससे भी पहले भारत की सीमाएं बर्मा, थाईलैंड, जावा, सुमात्रा, बाली, मलेशिया, फारमूसा और फिलीपीन तक फैली हुई थीं। भारत के प्राचीन संस्कृत साहित्य में तो अनेक स्थानों पर भारतवर्ष की भौगोलिक सीमाओं का स्पष्ट एवं विस्तृत वर्णन मिलता है।

आचार्य चाणक्य ने अपने ग्रंथ ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ में चक्रवर्ती क्षेत्र भारत की व्याख्या की है।

देशः प्रथवी तस्यां

हिमवंस समुद्रन्तर मुदीचीनं

योजन सहस्त्र परिमाणं तिंचक चक्रवर्ती क्षेत्रम।

अर्थात हिमालय से लेकर दक्षिण समुद्र पर्यंत, पूर्व से पश्चिम दिशा में एक हजार योजन तक फैला हुआ भू-भाग चक्रवर्ती क्षेत्र है। यह श्लोक उत्तर एवं दक्षिण की सीमाओं के साथ-साथ भारत के पूर्व-पश्चिम को भी स्पष्ट करता है। अपने प्राचीन साहित्य से यह भी स्पष्ट होता है कि भारत एक देश भी है और एक राष्ट्र भी है।

बौद्धकाल में हमारी मात्रभूमि भारतवर्ष की वंदना इस प्रकार की गई है।

’पृथिव्यै, समुद्रप्रर्यान्ताय एक राष्ट्र’

इस प्रकार अपनी मातृभूमि का विस्तार तथा उसका पूर्णरूप ध्यान में रख कर ही अपने देश भारतवर्ष का चिंतन करना चाहिए। हमारी सनातन परंपरा में प्रत्येक भारतीय के प्रातः उठते ही भारतमाता की चरण राज को माथे पर लगाने की परंपरा थी जो थोड़ी बहुत आज भी प्रचलन में है।

समुद्रवसने देवि पर्वतस्तन मंडले,

विष्णुपत्नी नमस्तुभ्यम,

पादस्पर्शम् क्षमस्वमेव।

अर्थात समुद्र में वास करने वाली देवी ‘भारत माता’ है। पर्वत मण्डल जिसके पवित्र स्तन हैं, ऐसी विष्णुपत्नी माता को मैं अपने पावं लगा रहा हूँ, मुझे क्षमा करो। अपनी मातृभूमि की यह उच्चकोटि की वंदना है। आधुनिक समय में स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविन्द एवं श्रीगुरु गोलवलकर ने भारतभूमि को एक चैतन्यमय देवता कहा है।

उल्लेखनीय है कि दिव्यज्योति जाग्रति संस्थान के संस्थापक एवं विश्व में शांति हेतु आध्यात्मिक क्रांति का श्रीगणेश करने वाले श्रद्धेय श्री आशुतोष महाराज जी ने तो और भी आगे बढ़ कर कहा है कि विश्व में केवल भारतवासी ही हैं, जो अपने देश को ‘भारत माता’ के सम्बोधन से सम्मानित करते हैं। जबकि कहीं भी अन्यत्र ऐसा नहीं कहा जाता। अर्थात चीन माता, अमरीका माता, इंग्लैंड माता कोई भी ऐसा नहीं कहता।

यह भी एक विडंबना ही है कि अधिकांश विद्वान एवं साधारण भारतवासी अखंड भारत को हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और बांगलादेश का समूह ही मानते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि ‘अखंड भारत’ न केवल एक राजनीतिक अथवा भूगोलिक अवधारणा न होकर समस्त भारतवासियों की निष्ठा एवं श्रद्धा है। इसी आस्था के आधार पर भारत एक बार फिर अखंड होगा।

दरअसल अखंड भारत के विशाल संस्कृतिनिष्ठ विचारतत्व को न समझने वाले नेताओं ने जिस पाकिस्तान के निर्माण पर अपनी मोहर लगाई थी, वही पाकिस्तान आज आतंकवाद के सैकड़ों अड्डों एवं आतंकी सरगनाओं को पाल-पोस रहा है। आज तो भारत में कई और पाकिस्तान बनाने के षड़यंत्र रचे जा रहे हैं। हमारा सनातन राष्ट्र इस प्रकार के हजारों जख्मों से त्रस्त है। इन जख्मों के स्थाई इलाज के लिए भारत की अखंडता अति आवश्यक है।

भारत की अखंड शक्ति ही सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त विखंडन की प्रवृति का सामना कर सकती है। अतः समय की आवश्यकता है कि पहले समस्त भारतवासी स्वयं संगठित होकर शक्तिशाली बनें और खंडित भारत के सभी टुकड़ों को जोड़ने के लिए ‘भारत जोड़ो यात्रा’ निकालें। आज आवश्यकता है एक ऐसी ‘शस्त्र और शास्त्र’ आधारित भारत जोड़ो यात्रा के जिसमें सभी भारतवासी जाति और क्षेत्र से ऊपर उठकर भाग लें।

परम वैभवशाली अखंड भारतवर्ष

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