क्या पराली का धुआं ही प्रदूषण बढ़ाने के लिए जिम्मेदार है?
बलबीर पुंज
क्या पराली का धुआं ही प्रदूषण बढ़ाने के लिए जिम्मेदार है?
बढ़ते वायु-प्रदूषण के कारण उत्तर-भारत में फिर से सांस लेना दूभर हो गया है। स्थिति ऐसी बिगड़ी कि कुछ समय के लिए उत्तरप्रदेश सरकार को नोएडा क्षेत्र, तो दिल्ली सरकार को स्कूलों में 1-5 कक्षाओं को ऑफलाइन रूप से स्थगित करना पड़ा। इस दौरान राजनीति भी चरम पर रही। दिल्ली और पंजाब में सत्तारुढ़ दल आम आदमी पार्टी (‘आप’) अपने विरोधियों के निशाने पर है। इसका एक स्वाभाविक कारण भी है। वर्तमान समय में जिस प्रकार देश के इस भाग में वातावरण दूषित हुआ है, उसमें किसानों (अधिकांश पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश से) द्वारा विवशपूर्ण धान-पराली जलाने और उससे निकलने वाले संघनित धुएं की एक हिस्सेदारी— 35-38 प्रतिशत है। इसमें पंजाब स्थित किसानों की कई वीडियो वायरल भी है। यह ठीक है कि पंजाब में ‘आप’ की सरकार को मात्र छह माह हुए है। किंतु एक सच यह भी है कि उसके लिए पराली समस्या कोई नई नहीं है। जब वे पंजाब में विपक्षी दल थे, तो उसके शीर्ष नेता (मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सहित) तत्कालीन सरकारों को गरियाते हुए इस समस्या का उपाय बताते थकते नहीं थे।
पराली की समस्या के उपचार हेतु दिल्ली स्थित पूसा इंस्टीट्यूट ने वर्ष 2020 में ‘बायो डी-कंपोजर’ बनाया था। वेबपोर्टल ‘न्यूज़ लॉन्ड्री’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, आरटीआई से खुलासा हुआ है कि 2020-22 में दिल्ली सरकार ने ‘बायो डी-कंपोजर’ के छिड़काव पर कुल 68 लाख रुपये खर्च किए थे, तो इससे संबंधित जन-जागरूकता बढ़ाने के नाम पर 23 करोड़ रुपये विज्ञापनों पर फूंक दिए। अर्थात, केजरीवाल सरकार ने दो वर्षों में उपाय की तुलना में उसके प्रचार पर 72 गुना अधिक खर्च कर दिया, जिसमें मात्र 955 किसान लाभान्वित हुए। क्या इस प्रकार संसाधनों की बर्बादी से किसी भी समस्या का हल निकालना संभव है?
उत्तरप्रदेश में क्या हो रहा है? यहां पराली जलाने की घटनाओं पर पूरी तरह से लगाम हेतु उत्तरप्रदेश सरकार ने सख्त कार्रवाई के निर्देश दिए हैं। इस संबंध में मुख्य सचिव दुर्गा शंकर मिश्रा ने सभी जिलों के जिलाधिकारियों को निर्देश भी जारी किए हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के अनुपालन में फसल अवशेष जलाने से हो रहे वायु प्रदूषण की रोकथाम करना अनिवार्य है। आलेख लिखे जाने तक, रामपुर में 55 हजार, फतेहपुर में 27 हजार रुपये का जुर्माना लगाया जा चुका है।
यक्ष प्रश्न यह भी है कि क्या एक दशक पहले तक पराली और प्रदूषण में कोई संबंध था? लगभग 13 वर्ष पूर्व, पंजाब और हरियाणा की तत्कालीन सरकारों ने “भूजल संरक्षण अधिनियम 2009” नामक कानून लागू किया था। इसका उद्देश्य, दोनों राज्यों में घट रहे भूजल के स्तर को ऊपर लाना था। इस अधिनियम के माध्यम से सरकार किसानों को धान की बुवाई का समय बताती है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि किसान धान की कटाई 6-8 सप्ताह देरी से तब करने लगे, जब दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में हवा की गति स्थिर रहती है और पराली का धुआं वायु में ठहर जाता है।
क्या पराली का धुंआ ही प्रदूषण बढ़ाता है? दिल्ली के गाजीपुर में 65 मीटर ऊंचा कूड़ा पहाड़ और उससे निकलने वाली मीथेन गैस भी वातावरण को दूषित और उसमें सम्मिलित प्लास्टिक भूजल को खराब कर रही है। यह विडंबना ही है कि बीते दिनों जब दिल्ली स्थित यमुना नदी, जिससे अन्य नदियों की भांति करोड़ों हिंदुओं की आस्था भी जुड़ी है— वह अमोनिया आदि रसायनों का स्तर बढ़ने के कारण फिर से जहरीले झाग की परत से ढंक गई, तब उसे प्रशासन ने और रसायनों का उपयोग करके साफ किया था। क्या भारतीय सनातन संस्कृति में मां-तुल्य यमुना आदि नदियों के दूषित होने के लिए केवल सरकार-प्रशासन की अकर्मण्यता और लापरवाही को ही कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए, जैसा अक्सर होता है? क्या जनता की कोई जिम्मेदारी नहीं?
क्या अमेरिका, यूरोपीय देश सहित अधिकतर पश्चिमी देशों में प्लास्टिक आदि कचरा— सड़कों, नालियों, नदियों में फेंकने की शिकायत सुनने को मिलती है? शायद नहीं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वहां के नागरिक स्वच्छता के प्रति न केवल पूर्णता: जागरूक हैं, बल्कि राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य को भलीभांति समझते भी हैं। इस पृष्ठभूमि में भारत की स्थिति क्या है? यह सच है कि स्थानीय नगर निगमों में बैठे अधिकांश अधिकारी-कर्मचारी अपने कदाचारों से कई प्रतिकूल स्थितियों को त्रासदीपूर्ण बना देते हैं। फिर भी कहीं प्रशासन सड़कों पर कूड़ेदान की समुचित व्यवस्था करता है, तो भी कचरा बाहर ही बिखरा मिलता है। इसका दोषी कौन है?
जनसंख्या का अत्यधिक दबाव संसाधनों के साथ वातावरण को भी दूषित करने में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से एक बड़ी भूमिका निभाता है। दिल्ली, जिसका कुल क्षेत्रफल 1500 वर्ग किलोमीटर है— वहां दो करोड़ से अधिक लोग बसते हैं। यह जनसंख्या 65,600 वर्ग किलोमीटर श्रीलंका के लगभग समकक्ष है। लुटियंस क्षेत्र को छोड़कर दिल्ली में शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र होगा, जहां सड़क किनारे (पैदलपथ मार्ग सहित) या फ्लाईओवर के नीचे अवैध अतिक्रमण के कारण पैदल यात्रियों और वाहनों को सुचारू रूप से चलने में कोई समस्या नहीं आ रही हो। इस स्थिति को वोटबैंक की संकीर्ण राजनीति ने और अधिक विकृत बना दिया है।
इस समय दिल्ली में एक करोड़ 34 लाख से अधिक वाहन हैं, जिनमें आधे से अधिक ‘सक्रिय’ माने जाते हैं। राजधानी में मोटर वाहनों की यह संख्या अन्य सभी महानगरीय शहरों की तुलना में काफी अधिक है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, 17 अक्तूबर तक दिल्ली में 50 लाख से ज्यादा वाहनों का पंजीकरण रद्द कर दिया गया था, इनमें से अधिकतर ऐसे वाहन हैं जो 15 वर्ष से अधिक पुराने पेट्रोल और 10 साल पुराने डीजल इंजन से चलते थे।
यह कष्टदायी है कि स्वयंभू पर्यावरणरक्षक उपरोक्त समस्याओं के बजाय केवल हिंदू तीज-त्योहारों और परंपराओं (दीपावली-होली सहित) का दानवीकरण करते हैं। इसमें अक्सर कई विदेशी वित्तपोषित गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) वैचारिक-राजनीतिक कारणों से भारत-हिंदू विरोधी एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं। संयुक्त राष्ट्र ने गोमांस को ‘जलवायु के लिए सबसे नुक़सानदेह मांस’ बताया है। क्या भारत में इस संबंध में किसी स्वघोषित पर्यावरणविद् या एनजीओ ने मुखर आंदोलन चलाया, जैसा दीपावली आदि में होता है?
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)