पर्युषण पर्व आत्मचिंतन, आत्मविश्लेषण व आत्मशोधन का पर्व है

पर्युषण पर्व

डॉ. शिप्रा पारीक

पर्युषण पर्व

भारतवर्ष अनेक पर्वों व त्योहारों के लिए प्रसिद्ध है। प्रत्येक माह, प्रत्येक पक्ष, कोई ना कोई पर्व – उत्सव, विशेष त्योहार का आगमन रहता ही है। पर्व – उत्सव मन को आनंदित करते हैं। उल्लास से जीवन सराबोर रहता है। ऐसे ही पर्वों में महा पर्व है, पर्युषण पर्व। पर्युषण का शाब्दिक अर्थ है – चारों ओर से कर्मों का नाश। कर्म तो करते ही रहना है क्योंकि निष्काम कर्म हमारी संस्कृति की मूलभूत अवधारणा है। पर्युषण पर्व ऐसा तेज देने वाला पर्व है जिसमें नियत मास में, नियत दिनों में पूर्णत: आत्मशुद्धि के निमित्त व्यक्ति रत रहता है। इस अवधि में आत्मशोधन का भाव ही बहुलता से रहता है। यह पर्युषण पर्व वैसे तो सभी के लिए है किंतु विशेषत: जैन समाज इस पर्व को श्रद्धा व उल्लास से मनाता है। जैन धर्म श्वेतांबर व दिगंबर इन दो श्रेणियों में विभक्त है। ‌मूलभूत अवधारणा दोनों में आत्मपरिशोधन व आत्मविश्लेषण ही है। पर्युषण पर्व भाद्रपद मास में मनाया जाता है। श्वेतांबर संप्रदाय के पर्युषण 8 दिन चलते हैं और दिगंबर संप्रदाय के 10 दिनों तक।

वर्ष भर अथक परिश्रम करने के उपरांत भाद्रपद माह में कतिपय दिन तक पूर्ण साधना करना विलक्षण ऊर्जा की प्राप्ति का स्रोत है। भौतिकता के इस युग में मनुष्य दौड़ा चला जा रहा है। नित्य तो मनुष्य समय कम ही निकाल पाता है। वर्ष पर्यंत कार्यों में व्यस्त रहें किंतु कुछ समय असीम की आराधना में लगाएं। जिसके प्रति समस्त विश्व नतमस्तक है। पर्युषण पर्व मन को मजबूत करने वाला है। इस पर्व पर जैन समाज में उमंग व उल्लास की लहर व्याप्त रहती है। सभी अपने अन्य कामों को छोड़ इष्ट की आराधना में लीन रहकर अपना पूरा समय आत्म चिंतन व आत्म शोधन में लगाते हैं।
पर्युषण पर्व अवधि में की गई साधना से आत्म संयम का विकास होता है, आत्म संयम के विकास से मनुष्य में दृढ़ता आती है और दृढ़ी व्यक्ति चहूं ओर तेजोमय प्रकाश को फैलाता है।

पर्युषण पर्व दो चरणों में मनाया जाता है। ‌श्वेतांबर जैन परंपरा में भाद्रपद कृष्ण द्वादशी या त्रयोदशी से भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी या पंचमी तक अष्ट दिवसीय साधना के रूप में धर्मार्थ कार्य किए जाते हैं तथा दिगंबर परंपरा में भाद्रपद शुक्ल पंचमी से भाद्रपद चतुर्दशी तक आत्म शोधन हेतु साधना की जाती है। यह साधना 10 दिन तक चलती है। अतः इस साधना को दशलक्षण भी कहा जाता है।

कालचक्र घूमता रहता है, समय रथ के पहिए के समान गतिमान रहता है। मनुष्य जन्म मिलना दुर्लभ है। इस शरीर को परमार्थ के लिए आत्म परिष्कार के लिए समर्पित करना ही सच्चा जीवन है। पर्युषण पर्व पीछे मुड़कर अपने कृत -अकृत कार्यों के परिशोधन का पर्व है। पर्युषण पर्व की सबसे बड़ी विलक्षणता है क्षमा भाव। यह क्षमा भाव मनुष्य में देवत्व का विकास करता है। विनम्र होकर सभी से क्षमा याचना कर आगे जीवन को गति देना यही इस पर्व का उदार भाव है।सभी तरह के द्वेष भुला कर प्रेम भाव से एक रस हो आत्म चिंतन करना ही इस पर्व का ध्येय रहता है। ऐसे पर्वों का उल्लास ही हमको तेज व गति देता है।

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