पहचान हिंदुत्व की..! (भाग-1)
प्रशांत पोळ
लगभग बीस-बाईस वर्ष पूर्व की घटना है। मेरा अमेरिका का प्रवास कुछ ज्यादा होता था, उन दिनों। अमेरिका प्रवास के दौरान मैं हमेशा शनिवार एवं रविवार को, वहां आसपास स्थित रा.स्व. संघ की शाखा में नियमित रूप से जाता था। उन दिनों समूचे अमेरिका में पचास से पचपन के आसपास संघ की शाखाएं हुआ करती थीं। अनेक स्थानों पर संघ एवं समिति की शाखाएँ एक ही स्थान पर लगती थीं।
मैं शिकागो में ठहरा हुआ था। स्वाभाविक रूप से वहां होने पर श्रीधरजी दामले एवं वसंत जी पांडव की भेंट यदाकदा हुआ ही करती थी। उस शनिवार को वसंत जी मुझे शिकागो की शाखा में ले गए। उस शाखा का नाम ‘अभिमन्यु’ था। ठंड के दिन थे। शाखा में लगभग दस-बारह लोगों की उपस्थिति थी। इस शाखा के मुख्य शिक्षक, एक ‘अरोरा’ नाम के युवा थे। शाखा की समाप्ति के पश्चात चाय-नाश्ता एवं चर्चा-बातचीत का कार्यक्रम था। मुख्य शिक्षक ने मुझसे कहा, _“आज उपस्थितों की संख्या थोड़ी कम है, लेकिन कोई बात नहीं जी, खुले मौसम में तो हमारी शाखा में साठ-सत्तर लोगों की उपस्थिति रहती ही है। फिर किसी मैदान में प्रशासन की अनुमति लेकर शाखा लगानी पड़ती है। इसलिए यदि आज संख्या कम भी है, तो कोई चिंता की बात नहीं है..।”
मुझे मजेदार बात लगी, कि यह युवा मुख्य शिक्षक मुझे बता कर कि “शाखा में आज उपस्थितों की संख्या कम हुई, तो कोई बात नहीं…”, मानो मेरी हिम्मत बढ़ा रहा था…!
मैंने उसके व्यक्तिगत जीवन के बारे में चर्चा शुरू की। यह बहुत ही रोचक प्रकरण था। यह मूलतः दूसरी पीढ़ी का ‘भारतीय अमेरिकन नागरिक’ था। अरोरा के माता-पिता साठ के दशक में अमेरिका आए थे। दोनों ही करिअरिस्ट थे। इसके अलावा वे दिन, भारतीय लोगों की अमेरिका में बसाहट होने के प्रारंभिक दिन थे। स्वाभाविक रूप से वह समय संघर्षों का था। ये लोग भले ही अपनी रुचि के क्षेत्रों में काम करते थे, परन्तु फिर भी काम का तनाव… अपने आसपास की अमेरिकन परिस्थिति के साथ सामंजस्य स्थापित करने की खींचतान… संचार साधनों की कमी के कारण भारत में निवास कर रहे उनके माता-पिता की चिंताएं.. इत्यादि घटक थे ही।
उसने मुझे बताया कि अपने बचपन में वह दो-तीन बार भारत गया था। हालांकि धीरे-धीरे उसके अनेक परिजन अमेरिका के स्थायी निवासी हो गए। भारत में स्थित उसके दादा-दादी का निधन भी हो गया था। इस कारण फिर दोबारा उसके भारत जाने की बात ही समाप्त हो गयी। धीरे-धीरे कालान्तर में इस परिवार का भारत से संपर्क तो टूटता ही गया, साथ ही ‘भारतीयता’ से भी इनका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं रहा। भाषा से लेकर संस्कृति तक पूरा परिवार ‘अमेरिकन’ बन चुका था। अंतर केवल इतना भर था कि ये ईसाई नहीं बने थे और चर्च नहीं जाते थे।
अरोरा की शालेय शिक्षा पूरी हुई और उसने इंजीनियरिंग हेतु एक कॉलेज में प्रवेश लिया। कॉलेज बहुत विशाल था, यूनिवर्सिटी का ही एक हिस्सा था। बचपन से अभी तक उसके सभी मित्र एक ही ‘मोहल्ले’ में रहने वाले और एक ही शाला में जाने वाले थे। परन्तु कॉलेज में ऐसा नहीं था। यहां पर तो न सिर्फ अमेरिका के विभिन्न भागों से आए हुए युवा, बल्कि दुनिया के अनेक देशों से आए हुए युवा विद्यार्थी मौजूद थे।
कॉलेज के विद्यार्थियों में भिन्न-भिन्न गुट बने हुए थे। अरोरा ने भी उनमें शामिल होने का प्रयास किया, परन्तु मामला कुछ जमा नहीं। भले ही इसका जन्म अमेरिका में हुआ था, परन्तु फिर भी इसे निरंतर समझ में आ रहा था कि वह अमेरिकन अवश्य हैं, किन्तु वह हैं ‘अमेरिकन भारतीय’। इसी भारतीयता के कारण विभिन्न समूहों के युवक / युवतियां उसे ‘अपना’ नहीं मानते। उसके साथ अच्छे से बोलते हैं, अच्छा व्यवहार करते हैं, परन्तु उन युवाओं के समूहों के अंतर्गत घेरे (सर्कल) में उसे प्रवेश नहीं मिल रहा था।
इसी बीच सैन डिएगो में हिन्दू विद्यार्थियों के बीच में काम करने वाले युवा नेता अजय शाह इस कॉलेज में आये। कॉलेज के सूचनापट पर लगी एक छोटी सी सूचना को पढ़कर अरोरा ने अजय शाह से भेंट की। कॉलेज के पहले वर्ष में कुछ हिन्दू विद्यार्थियों ने प्रवेश लिया था। अजय शाह ने अगले सप्ताह इस कॉलेज के उन सभी विद्यार्थियों की एक बैठक आयोजित की थी। उस बड़ी बैठक की व्यवस्थाओं के लिए यह एक ‘योजना बैठक’ थी। इस बैठक में ऐसा तय हुआ कि एक अन्य विद्यार्थी के साथ जाकर कॉलेज के डीन से भेंट की जाए एवं अजय शाह के साथ इस बैठक को करने के लिए कॉलेज के एक कांफ्रेंस हॉल की मांग की जाए।
तय कार्यक्रम के अनुसार ये विद्यार्थी कॉलेज के डीन से मिलने गए। जब डीन को यह पता चला कि ये लड़के ‘हिन्दू यूथ’ की सभा के लिए हॉल मांग रहे हैं, तो तत्काल उनका स्वर बदल गया। बड़ी ही आत्मीयता से उन्होंने पूछा, “Ohh Good… So you are doing a community work. That is really good. I will extend all my support..”.
यही वह क्षण था, जिसने अरोरा नामक इस युवा को सम्पूर्ण रूप से, आमूलचूल परिवर्तित कर दिया। उसे अनुभव हुआ कि, ‘यही उसकी पहचान है – हिन्दू’। ‘हिन्दू’ कहते ही उसे एक समुदाय से जोड़ लिया जाता है, और उसकी एक पहचान निर्मित होती है। ऐसा करने से हिन्दू विद्यार्थियों का एक समूह तो तैयार होता ही है, साथ ही गर्व के साथ हम अपनी ‘विशिष्ट आईडेंटिटी’ लेकर अन्य समूहों के साथ घुलमिल भी सकते हैं।
संक्षेप में कहा जाए, तो यह बात वह समझ चुका था कि भले ही वह अमेरिकन हो, तथा भारत से पूरी तरह कट चुका हो, परन्तु फिर भी ‘हिन्दू’ के रूप में ही उसकी सच्ची पहचान है। आगे चलकर अरोरा ने भगवद्गीता खरीदी। उसने गीता पढ़ने का प्रयास किया। परन्तु गीता का अंग्रेजी अनुवाद उसे ठीक से समझ में नहीं आया। फिर वह वहां की स्थानीय विश्व हिन्दू परिषद् की शाखा के संपर्क में आया और वहीं से संघ की शाखा से। जब मेरी उससे भेंट हुई, तब वह प्रथम वर्ष शिक्षित संघ का स्वयंसेवक बन चुका था।
उसके परिवार में संघ तो छोड़िये, हिन्दू परम्पराओं से भी कोई परिचय अथवा सम्बन्ध नहीं था। परन्तु जिस क्षण उसे अपनी ‘हिन्दू पहचान’ के बारे में निश्चिंतता हुई, उसी क्षण से उसका जीवन बदल गया। आगे चलकर उसे मोटोरोला कम्पनी में अच्छी नौकरी मिल गयी, और उसकी ‘हिन्दू’ पहचान स्थापित होने के बाद उसके ढेरों मित्र बने एवं वह अत्यधिक आनंद के साथ संघकार्य करता रहा।
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इन्हीं दिनों मेरे यूरोप दौरे भी बहुत होते थे। एयर फ्रांस की विमान सेवा का मैं नियमित ग्राहक (frequent flyer) था। इस कारण जब भी मुझे कहीं जाना होता था, तो मुझे पहले पेरिस जाना पड़ता था, और वहां से अपने गंतव्य स्थल की फ्लाइट पकड़ता था। फ्रांस के बाद मैं अक्सर शेंगेन (Schengen) देशों में प्रवास करता था, इसलिए इन देशों की समस्त इमिग्रेशन कार्रवाई पेरिस में ही पूरी की जाती थी। अनेक बार ऐसा हुआ जब इमिग्रेशन के लिए लम्बी – लम्बी लाइनें होती थीं।
इसी प्रकार, एक बार मैं एक लम्बी लाइन में फँस गया। मुझे बर्लिन जाना था, परन्तु इमीग्रेशन के लिए भारी भीड़ थी और बर्लिन जाने वाली फ्लाइट छूटने में कुछ ही समय बाकी था। उस पर से पेरिस का वह भव्य एवं विशाल ‘चार्ल्स द गॉल’ हवाई अड्डा। मैं जैसे – तैसे इमीग्रेशन अधिकारी के पास पहुंचा। मैं यह मान चुका था कि अब संभवतः मुझे बर्लिन की फ्लाइट नहीं मिलेगी, इसलिए मैं ‘प्लान बी’ के रूप में नया विचार करने लगा था।
उस अधिकारी ने मेरा पासपोर्ट देखा। आगे की यात्रा करने के लिए मेरा टिकट पासपोर्ट में ही रखा हुआ था। उसने वह टिकट भी देखा, और तत्काल मुझसे प्रश्न किया, “आर यू हिन्दू?”, मैं अचकचा गया, मेरी कुछ समझ में नहीं आया कि यह अधिकारी मुझसे ऐसा क्यों पूछ रहा है? तत्काल मैंने उत्तर दिया, ‘यस, आई एम् हिन्दू।” वह अधिकारी बोला, “आई फॉलो स्वामीजी….”, और उस अधिकारी ने किसी हिन्दू स्वामी का नाम लिया। फिर उसने आगे कहा, “इट इज वेरी शार्ट टाईम फॉर टू रीच योर फ्लाइट… बट डोंट वरी, आई विल टेल यू हाऊ टू रीच फास्ट…”
मेरे पीछे लगी लम्बी लाइन की परवाह न करते हुए, उसने अपने पास से ‘चार्ल्स द गाल’ एयरपोर्ट का बड़ा सा नक्शा दिया, उस नक़्शे पर उसने अपने पेन से उस हवाई अड्डे का एक शॉर्टकट बनाया और मुझसे कहा, “..इस रास्ते से जाइये, आपको फ्लाईट मिल जाएगी। बीच में एक गेट पर आपको रोका जाएगा, वहां पर उसे मेरा नाम बताइएगा, मैं उसे फोन कर रहा हूँ…” यह कहते हुए उसने अपने किसी सहकर्मी को फोन किया और मुझे कहा, “जाओ दौड़ लगाओ”।
उस दिन, एयर फ्रांस की बर्लिन जाने वाली उस फ्लाइट में चढ़ने वाला मैं अंतिम व्यक्ति था..!
मात्र एक हिन्दू होने के कारण भला कोई मेरी इतनी सहायता कर सकता है..? इतना सहृदयी हो सकता है..? मुझे आश्चर्य लग रहा था।
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वर्ष १९८५… अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने हाल ही में नौकरी की शुरुआत की थी। अपने काम के सिलसिले में मैं दिल्ली गया था। वहीं से मुझे उत्तरकाशी जाने का आदेश मिला। उत्तरकाशी में प्रख्यात पर्वतारोहण प्रशिक्षण संस्थान है। वहां पर वायरलेस सेट के सम्बन्ध में कंपनी का कुछ काम था। हरिद्वार-ऋषिकेश होते हुए 27 दिसंबर को मैं उत्तरकाशी पहुंचा। वहां पर, ‘भीषण’ शब्द भी छोटा पड़ जाए, ऐसी भयानक ठंड पड़ रही थी। मैंने अपने जीवन में पहली ही बार ऐसे स्थान का प्रवास किया था।
उत्तरकाशी में गंगा नदी के दोनों किनारों पर स्थित पर्वत ऐसे लगते हैं, मानो वे हमें दबोच लेंगे। आकाश को छूते, काले – नीले रंगों की अनंत छटाओं के पहाड़, और उनके तल में प्रवाहित होती हुई गंगा नदी। नदी के किनारे बसा हुआ छोटा सा शहर उत्तरकाशी। आज से सैंतीस वर्ष पहले उत्तरकाशी में कोई ख़ास अच्छे होटल नहीं हुआ करते थे। यहां जो भी आते थे, वे तीर्थयात्री हुआ करते थे। अभी पर्यटकों का आगमन शुरू होने में कुछ वर्ष थे। फिर भी मैंने एक थोड़ी ठीक- ठाक होटल में अपना डेरा जमा लिया। बिस्तर पर एक एवं शरीर पर तीन कंबल लेकर भी ठंड कम होने का नाम नहीं लेती थी। रात के गहरे अंधेरे में एक खाई में बसा हुआ यह छोटा शहर उत्तरकाशी, बहुत ही भयानक एवं वीरान प्रतीत होता था।
किसी तरह पहला दिन निकला। मेरा मन अस्थिर ही था। अकेलापन सताने लगा था। घर की याद भी आने लगी थी। दूसरे दिन शाम के समय उत्तरकाशी में गंगा नदी के किनारे मुझे संघ की शाखा लगती हुई दिखाई दी। भगवा ध्वज एवं उसके सामने खेलते-कूदते कुछ लड़के, कुछ किशोर, कुछ युवा। अचानक मुझे लगा कि मैंने बहुत कुछ पा लिया है। अनेक दिनों के एकांतवास के पश्चात यदि कोई मित्र हमें मिल जाए, तब जैसा लगता है, वैसा ही आनंद हुआ। उस शाखा में खेलने वाले उन लड़कों में से एक भी मेरा मित्र या परिजन नहीं था, परन्तु फिर भी वे मुझे अपने से लगे।
मैं शाखा में पहुंचा, ध्वज को प्रणाम किया। मुख्य शिक्षक जी से जान-पहचान हुई और सारा चित्र ही बदल गया। अकेलेपन की भावना जैसी कहीं खो गयी। ‘होम सिकनेस’ अचानक समाप्त हो गयी। जो पहाड़ पहले मुझे डरा रहे थे, वे अब मुझे मित्र लगने लगे। उत्तरकाशी जैसे छोटे से स्थान और उन दिनों में अत्यंत दुर्गम भूभाग की जबरदस्त ठंड में कोई तो मेरा है, ऐसी भावना बड़ी ही सुखद लगने लगी। दूसरे दिन प्रातःकालीन नाश्ता एक स्वयंसेवक के घर पर हुआ। अन्य कुछ लोगों से भी परिचय हुआ। फिर मेरे वहां से जाने का समय भी आ गया। उस दुर्गम स्थान पर, विषम परिस्थिति में मेरा यह संक्षिप्त प्रवास मानो सुरीले स्वरों का स्वरबंध बन गया। डॉ. हेडगेवार जी की प्रेरणा और वीर सावरकर जी की उक्ति, “हम हिन्दू – सकल बन्धु” ने यह चमत्कार कर दिखाया था..!
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यूक्रेन एवं रूस का युद्ध आरम्भ हुए तीन सप्ताह से अधिक का समय हो चुका था। ‘इण्डिया टुडे’ का एक पत्रकार, युद्ध क्षेत्र में जाकर कुछ यूक्रेनियन सैनिकों से भेंटवार्ता और इंटरव्यू ले रहा है। इसी बीच ‘आंद्रे’ नामक एक सैनिक अपने हाथों में जपमाला लेकर कुछ बुदबुदाता हुआ दिखाई देता है। यह पत्रकार आंद्रे से पूछता है, “आप यह किसका जाप कर रहे हैं?” आंद्रे कुछ कुछ गर्व से उत्तर देता है, “कृष्णा… द हिन्दू गॉड कृष्णा”। वह सैनिक आगे कहता है कि वह ISCON का अनुयायी है और जब-जब वह भगवान् कृष्ण का स्मरण करता है, तब उसे किसी भी प्रकार की चिंता नहीं होती। नाम जप करने से वो और भी अधिक आत्मविश्वास के साथ रूस से लड़ सकता है।
भारत से कुछ हजार किलोमीटर दूर स्थित यूक्रेन के इस सैनिक को, युद्धभूमि में भी हिन्दू देवता के कारण आत्मविश्वास प्राप्त होता है, यह एक अद्भुत बात है।
(क्रमशः)