पालघर सन्यासियों को न्याय कब मिलेगा?
– प्रणय कुमार
पालघर में साधुओं की हत्या केवल हनुमान मंदिर के दो संन्यासियों की हत्या मात्र नहीं थी, यह हम सबकी हत्या थी। यह एक सभ्य समाज के रूप में हमारे अवसान की घोषणा थी। लेकिन अब सवाल यह है कि क्या महाराष्ट्र की सत्ता इतनी आसुरी हो गई कि निरीह व निहत्थे संतों-संन्यासियों के प्राणों की बलि लेकर भी मूक-मौन-निष्क्रिय-निस्तेज है?
पालघर की बर्बर एवं नृशंस हत्या को एक माह से भी अधिक समय होने को आया। संत समाज को न्याय मिलने की बात तो दूर, इस हत्याकांड के सभी अपराधियों को अभी तक गिरफ्तार तक नहीं किया जा सका है। मीडिया ने भी कुछ दिनों तक इस मुद्दे को उठाकर अंततः चुप्पी साध ली। जो समाज और तंत्र निर्दोषों-निरीहों की हत्या पर भी मौन साध ले, उसका क्या और कैसा भविष्य? जबकि यह केवल हनुमान मंदिर के दो संन्यासियों की हत्या मात्र नहीं थी, यह हम सबकी हत्या थी। यह एक सभ्य समाज के रूप में हमारे अवसान की घोषणा थी। यदि हम गंभीरता से अनुभव करें तो उन संन्यासियों पर पड़ने वाला एक-एक प्रहार हमारे मन-प्राण-आत्मा पर पड़ने वाला प्रहार था।
इससे यदि हम-आप लहूलुहान और आहत नहीं हुए तो समझिए कि हमारी संवेदनाएँ बिलकुल कुंद और भोथरी हो गई हैं। यह पुलिस-प्रशासन की हत्या थी। यह क़ानून-व्यवस्था की हत्या थी। यह संस्थागत अपराध का जीता-जागता उदाहरण था। इस हत्याकांड में संलिप्त दोषियों पर अब तक कोई ठोस कार्रवाई न होना इस बात का उदाहरण है कि महाराष्ट्र में कानून-व्यवस्था की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। इसे उस भीड़तंत्र की अराजकता की पराकाष्ठा ही कहना चाहिए कि उन्हें पुलिस की उपस्थिति की भी कोई चिंता नहीं थी, उन्हें पुलिस का कोई भय नहीं था! हत्यारे सरेआम तांडव करते रहे और पुलिस उन्हें ऐसा करते चुपचाप देखती रही। उनको बचाने के लिए पहल तक करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। इन दो निरीह, निहत्थे, बुजुर्ग संन्यासियों द्वारा बारंबार गुहार लगाने के बावजूद उन्हें भीड़तंत्र के हवाले कर पुलिस-प्रशासन कैसे अपना चेहरा देख पाती होगी। क्या इसी दिन के लिए हमने स्वराज और सुराज की कामना की थी?
सवाल धर्मनिरपेक्षता के कथित ठेकेदारों से भी है। क्या इस देश के कायर और क्षद्म धर्मनिरपेक्षतावादी ऐसी जघन्य एवं अमानुषिक हत्या को भी दोहरे दृष्टिकोण से देखने की धृष्टता करेंगे? कोई आश्चर्य नहीं कि कल कोई कथित सेक्युलर धड़ा किसी नई कहानी को लेकर प्रकट हो और इस नृशंस एवं क्रूर हत्या को भी न्यायसंगत ठहराने की बेशर्म चेष्टा करे! इस हत्याकांड से हताश एवं निराश संत-समाज का महाराष्ट्र सरकार से भरोसा उठता जा रहा है। क्या महाराष्ट्र की सत्ता इतनी आसुरी हो गई है कि निरीह व निहत्थे संतों-संन्यासियों के प्राणों की बलि लेकर भी मूक-मौन-निष्क्रिय-निस्तेज है?
सवाल बहुसंख्यक समाज से भी है कि कोई उत्तेजक, अराजक, उद्दंड, मज़हबी भीड़ हर बार सड़कों पर उतरकर निर्दोषों का नरसंहार करती है, दंगे-फ़साद करती है, तपोनिष्ठ-त्यागी समाजसेवियों, धर्मनिष्ठ संन्यासियों को मौत के घाट उतार देती है और समाज चुप-मौन रह उन्हें ऐसा करने देता है। उसके भीतर कोई लहर नहीं पैदा होती? वह चुनी हुई सरकारों पर दोषियों को सज़ा दिलवाने के लिए लोकतांत्रिक तरीके से दबाव तक नहीं बनाता। ऐसी ही घटनाओं के कारण भारत में मतांतरण का धंधा बड़े जोरों से बेरोक-टोक चलता रहता है। मतांतरण का विरोध करने वाले तमाम संतों व सामाजिक कार्यकर्त्ताओं को उस विरोध की क़ीमत अपने प्राणों की आहुति देकर ऐसे ही चुकानी पड़ती है। सवाल यह भी है कि इन धर्मांतरित समुदायों के लहू में कितना विष उतार दिया जाता है कि वह अपने ही समाज को जड़-मूल समेत नष्ट करने हेतु उग्र व उद्धत हो उठता है?
ऐसी जघन्य और बर्बर हत्याओं पर समाज और सिस्टम का ऐसा भयावह मौन हमारी दुर्बलता, विफलता व पतन का परिचायक है। जो समाज अपने लिए संघर्ष करने वाले नायकों के साथ खड़ा नहीं होता, कल उन्हें निश्चित ही आँसू बहाना पड़ता है। सामूहिक रोदन करना पड़ता है। धिक्कार है, ऐसे समाज और सत्ताधीशों पर। कदाचित बाल ठाकरे की आत्मा स्वर्ग में भी दुःखी हो रही होगी कि जिन मूल्यों-आदर्शों की स्थापना के लिए उन्होंने अपना जीवन होम कर दिया उनके उत्तराधिकारियों ने सत्ता-सुख के लिए उन आदर्शों-मूल्यों का गला ही घोंट दिया।