पितृसत्ता (लघुकथा)
वापसी के इस तीन घंटे के मेरे सफर में मेरा सहयात्री एक पुरुष है..। इस ट्रेन से यात्रा करना मुझे उसकी दिनचर्या का हिस्सा मालूम देता है.. क्यूंकि यह आरक्षण वाली बोगी है और यह व्यक्ति खाली स्थान ढूंढता हुआ मेरे बराबर में आ बैठा है।
आयु चालीस पार लगती है.., देसी पैंट, बाहर निकली हुई पूरी बांहों की शर्ट ..पैरों में आर्थिक स्थिति का रेडियो बजाती हुई चप्पल और कलाई पर शादियों में ससुराल से मिलने वाली सुनहरी कलाई घड़ी..।
ट्रेन चलने पर इसे विश्वास हो गया है कि इस सीट पर अब कोई नहीं आएगा…. तो आराम से बैठ गया है… मोबाइल बाहर निकाल लिया है.. घर पर फोन किया है..
उधर से पत्नी ने फोन उठाया है शायद..
बैठ गया हूं, चल दिया हूं बताने के बाद इसने पूछा कि ज्योति से पूछ लो क्या लाना है..?
ब्रैड, किटकैट चॉकलेट और मैगी..
इसके दोहराने से मुझे यह लिस्ट पता चल गई है।
अब इसने पत्नी से बेटी की खांसी के बारे में पूछा है..
उत्तर मिला है कि रात में बुखार भी था और खांसी भी..
इसका अर्थ कि यह व्यक्ति पिछले कुछ दिनों से घर नहीं जा पाया है..
अब किसी डॉक्टर को दिखाने की बात हो रही है..
स्त्री को शायद आशा नहीं है कि डॉक्टर के बैठने के समय तक यह घर भी पहुंच सकेगा.., उसका जोर अगले दिन दिखाने पर है..
“पर कल तो स्कूल भी चलना है” इसने कहा ..
प्रयास करके आज ही डॉक्टर को दिखाने की बात तय हो गई है..
अब किसी पारिवारिक आयोजन की बात चल रही है..
लेन देन आदि की..
खैर! फोन कटता है..
डायरी से देखकर किसी और का नंबर मिलाया है..
यह शायद उस डॉक्टर का कंपाउंडर है..
उससे विनती कर रहा है..
मैं इतने बजे तक पंहुच जाऊंगा.., बच्ची को दिखाना है.. डॉक्टर साहब उठ तो न जायेंगे..
अब किसी और को फोन मिला लिया है..
सामान्य कुशलक्षेम के बाद उससे 20000 रुपए मांगे हैं..
बिटिया का स्कूल बदला है उसके लिए चाहिए। वापसी अगले महीने ही होगी..
व्यक्ति हाथ का साफ लगता है.., उधर से हामी हो गई है।
इसका स्टेशन आने वाला है.. सीट छोड़कर दरवाजे पर खड़ा है..
गाड़ी धीमी होते ही उतर पड़ा है..
मैं तेज़ कदमों से हाथ में थैला लिए पितृसत्ता को जाते देख रहा हूं।
इसी पितृसत्ता को हमें कुचलना है??
है न??
(सोशल मीडिया से साभार)