पेगासस मामला : आग कम और धुंआ ज़्यादा

पेगासस मामला : आग कम और धुंआ ज़्यादा

उमेश उपाध्याय

पेगासस मामला : आग कम और धुंआ ज़्यादा

सत्य के नाम पर असत्य का भ्रमजाल खड़ा कर देना आजकल एक चलन हो गया है। इसे लेकर जयशंकर प्रसाद ने ‘कामायनी’ में बड़ी सुन्दर पंक्तियाँ लिखी हैं :
“और सत्य! यह एक शब्द तू कितना गहन हुआ है?
मेधा के क्रीड़ा-पंजर का पाला हुआ सुआ है।
सब बातों में खोज तुम्हारी रट-सी लगी हुई है,
किन्तु स्पर्श से तर्क-करों के बनता ‘छुईमुई’ है।“

सरल शब्दों में कहा जाए तो प्रसाद जी ने लिखा है कि आजकल सत्य के नाम पर लोग शोर बहुत मचाते हैं। अपनी बुद्धि और शब्दों की कसरत से सत्य के नाम पर अनेक ‘खोज’ कर लेते हैं। लेकिन यथार्थ तो यह है कि ‘सत्य’ अब बुद्धि के भ्रमजाल का पाला हुआ तोता बन कर रह गया है। ये ‘बुद्धिशाली’ जन तर्कों के सहारे जब भी अपनी बात को सच ठहराने के प्रयास करते हैं तब सत्य ‘छुईमुई’ बनकर गायब हो जाता है।

पेगासस कांड की खबर भी कुछ कुछ ऐसी ही लगती है। इस समाचार में तथ्य बहुत कम और होहल्ला बहुत ज्यादा है। इस समाचार को दुनिया भर में फैलाने वाले दावा कर रहे हैं कि इजरायल की कम्पनी एनएसओ के बनाये सॉफ्टवेयर का प्रयोग कर भारत सहित कोई 50 देशों ने अपने हज़ारों नागरिकों की गैरकानूनी तरीके से जासूसी की है। हमारा भी मानना है कि हमारी जैसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में किसी अवैध तरीके से नागरिकों की निजता का अतिक्रमण करने का किसी भी सरकार को कोई अधिकार नहीं है। पर इस बात की परख राजनीतिक बयानबाजी और स्वार्थपरक होहल्ले से दूर  सिर्फ तथ्यों के आधार पर होनी चाहिए।

आइये सिर्फ तथ्यों के आईने में पेगासस के सच को जानने का प्रयास करते हैं। यह समाचार सबसे पहले पिछली 18 जुलाई को अमेरिका के अखबार ‘वाशिंगटन पोस्ट’ में प्रकाशित हुआ। इस समाचार में दावा किया गया कि इजराइल के पेगासस सॉफ्टवेयर का प्रयोग करके 50 देशों के अंदर हजारों लोगों के फोनों की निगरानी की गई। इस मूल समाचार में भारत का भी जिक्र किया गया। यहां यह बताना आवश्यक है कि 19 जुलाई को ही भारत में संसद का मानसून सत्र शुरू हो रहा था।

यह मूल समाचार था,  जिसके आधार पर भारत सहित दुनिया मे अनेकों समाचार विभिन्न जगहों पर बाद में प्रकाशित/प्रसारित हुए। इसमें बताया गया कि पेगासस सॉफ्टवेयर की फोन में घुसपैठ की जांच के लिए दुनिया भर में 65 स्मार्टफोन की जांच की गयी। इनमें से 30 फोन के बारे में जानकारी अपूर्ण रही यानि कुछ नहीं मिला। बाकी बचे 37 फोन में से 23 में पाया गया कि पेगासस सॉफ्टवेयर डाला गया है। और बचे 14 फोन में इस सॉफ्टवेयर को डालने का असफल प्रयास किया गया। इस पूरे समाचार में इस बात का जिक्र नहीं किया गया है कि ये 67 फोन किस देश में थे और किन व्यक्तियों और संस्थाओं से सम्बंधित थे।
https://www.washingtonpost.com/investigations/interactive/2021/nso-spyware-pegasus-cellphones/?itid=lk_inline_manual_18

इस मूल समाचार में लिखा है
“इस सूची से ये ज़ाहिर नहीं है कि किसने इसमें (फोन नंबर) जोड़े और क्यों जोड़े। यह भी ज्ञात नहीं है कि कितने फोनों को निशाना बनाया गया या निगरानी की गयी। लेकिन 37 फोन की फोरेन्सिक जांच में पाया गया है की सूची में नाम होने और कई फोनों की टाइम स्टेम्प और उसकी निगरानी शुरू होने में गहरा सम्बन्ध है। कुछ में तो ये कुछ ही सेकेंड रही।”

यानि स्वयं इस मूल समाचार में ही 37 फोन नंबर को लेकर खासी ग़लतफ़हमी है। अब इन 37 में से 23 को लेकर यह समाचार कहता है कि इनमें पेगासस सॉफ्टवेयर पाया गया। इनमें भी कई में कुछ सेकेंड ही निगरानी पाई गयी। इस छोटी सी जानकारी के आधार पर दुनिया में 50 हज़ार फोन की पेगासस द्वारा निगरानी का एक बड़ा सा आंकड़ा इस समाचार में प्रस्तुत कर दिया गया। ये 50 हज़ार की सूची किसने दी, कहाँ से आयी, किसने जांच की – इस बारे ये और बाद में प्रसारित सभी समाचार मौन हैं। इसका कोई प्रमाण या तथ्य कहीं नहीं मिलता।

आप इस मामले से जुड़ी खबरें पढ़ लीजिये। कहीं भी कोई सूची ऐसी नहीं है जो प्रामाणिकता के साथ ताल ठोक कर कहती हो कि अमुक व्यक्ति के अमुक नंबर से जुड़े अमुक फोन में यह सॉफ्टवेयर डाला गया। टेक्नोलॉजी के इस युग में जहाँ हर फोन के आईईएम आई नंबर को जानना अब हर व्यक्ति के लिए संभव है, वहां सिर्फ हवा में बातें करने को खोजी पत्रकारिता मान लेना कुछ हास्यास्पद सा ही लगता है। दुनिया भर में कुल जमा 23 स्मार्टफोन में ‘संभावित निगरानी’ को लेकर ऐसा बड़ा हल्ला मचा दिया गया है, मानो 50 देशों की सरकारें पेगासस के ज़रिये बड़े पैमाने पर अपने नागरिकों की साइबर जासूसी में लगी हों।

खबर के अ इस ‘खोजी खबर’ को जुटाने में विश्व के 16 मीडिया संस्थानों ने मिलकर काम किया। ये बात कुछ असंगत और अजीब सी लगती है। इतने छोटे से तथ्य को पता लगाने के लिए इतने सारे संस्थान क्यों लगे? भारत में इस खबर पर कुछ जगह कुछ ज्यादा ही शोर हो रहा है। ऐसा कहा जा रहा है देश के हज़ारों नेताओं, पत्रकारों, अफसरों व अन्य नागरिकों के फोन में पेगासस जासूसी सॉफ्टवेयर की गैरकानूनी घुसपैंठ कर दी गयी है। वैसे गौर किया जाए तो पेगासस कांड में भारत को निशाना बनाये जाने की वजह इतनी छिपी हुई भी नहीं हैं।

खबर के मुताबिक इन 37 फोन की फोरेंसिक जांच एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक लैब में की गई। ये अलग बात है बाद में एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी इसकी जांच के कई पहलुओं से अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश की। वैसे भी एमनेस्टी इंटरनेशनल का इतिहास और उसका नजरिया भारत को लेकर जगजाहिर है। भारत में उसके खिलाफ उसके संसाधन जुटाने के तरीकों के खिलाफ बाकायदा कार्रवाई हुई है। अपनी अवैध कार्रवाइयों के बाद उसको यहाँ अपनी दुकान बंद करने को विवश होना पड़ा। इसे लेकर मोदी सरकार से उसे खास खुन्नस है। इसलिए भारत सरकार पर एमनेस्टी और उसके समर्थकों के रवैय्ये की निष्पक्षता पर सवाल उठना स्वाभाविक ही है।

इसके अलावा पेरिस स्थित एक और संस्था इसकी जांच में शामिल हुई। ‘फोर्बिडन स्टोरीज़’ नाम की ये संस्था मुख्यतः धनपति जॉर्ज सोरोस के संस्थान ‘ओपन सोसायटी फाउंडेशन’ की सहायता से चलती है। जोर्ज सोरोस कश्मीर में धारा 370 समाप्त करने से लेकर नागरिकता कानूनों जैसे मुद्दों पर मोदी सरकार की खुलकर आलोचना कर चुके हैं। वे सिर्फ आलोचना तक ही नहीं रुके हैं, बल्कि पिछले साल उन्होंने घोषणा की थी कि वे भारत जैसे देशों की अंदरूनी राजनीति को बदलने के लिए एक अरब डॉलर का फंड बनाएंगे। तो क्या एमनेस्टी और फोर्बिडन स्टोरीज़ दोनों ने ही मोदी सरकार से हिसाब चुकता करने के लिए पेगासस को औज़ार बनाया है?

इसलिए संसद के मानसून सत्र के ठीक एक रोज़ पहले इस खबर का अख़बारों में आना अगर एक संयोग भर है तो फिर ये बड़ा दिलचस्प संयोग ही है। इसके टाइमिंग को लेकर एक बाद और ध्यान रखने वाली है। देश में कोरोना की दूसरी लहर ढलान पर है। अगर केरल, महाराष्ट्र तथा एक दो अन्य राज्यों को छोड़ दिया जाए तो देश के बाकी हिस्सों में लोग दूसरी कोरोना लहर के तांडव के बाद थोड़ी राहत की सांस ले रहे है। जुलाई महीने के अंत तक कोई 46 करोड़ से अधिक भारतीय कोरोना के टीके का कम से कम एक डोज़ लगवा चुके हैं। आने वाले समय को लेकर देश में आशा के कुछ दीप तो जलने शुरू हो ही चुके हैं। भारत विरोधी ताकतें आशा की इन किरणों को निराशा के अँधियारे में बदलने को ज़रूर आतुर होंगी। पेगासस सॉफ्टवेयर की खबर को लेकर पकिस्तांन के मंत्रियों की अनाप-शनाप बयानबाजी क्या इस और इशारा करती नहीं दिखाई देती ?

जिस रफ़्तार से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसकी जांच के लिए एक समिति गठित कर दी और राहुल गांधी ने के नेतृत्व में कांग्रेस ने संसद में होहल्ला करके काम रुकवा दिया वह इसके पीछे की राजनीतिक मंशा को भी रेखांकित करते हैं।

यहां यह कह देना भी समीचीन होगा कि सरकारों को यह अधिकार है कि वह देश के अंदर अपराधी तथा आतंकवादी गतिविधियों पर निगरानी रखने के लिए हर संभव आधुनिक तौर-तरीके अपनाये। इसके लिए इस्रायल सहित किसी भी देश से अधुनातम तकनीक को लेना उसका दायित्व है। उसकी अपेक्षा ये देश सरकार से करता है। इसलिए अगर भारत सरकार ने इसराइल की कंपनी से कोई सॉफ्टवेयर लिया है। और, वह कानूनी प्रक्रिया के तहत कुछ फोन, सोशल मीडिया एकाउंट्स आदि पर निगाह रखती है या उनकी निगरानी करती है तो इसमें कुछ भी अन्यथा नहीं है। देश के आम नागरिकों की सुरक्षा, सीमाओं की रक्षा और राष्ट्र के दूरगामी आर्थिक-रणनीतिक हितों की रक्षा करना सरकार का वैधानिक दायित्व है। देश के कानूनों को धता बताने वाले ड्रग माफिया, आतंकवादियों, करचोरों तथा देश के अन्य दुश्मनों के साथ गठजोड़ रखने वाले हर व्यक्ति की निगरानी होनी ही चाहिए। फिर चाहे वह राजनेता हो, अफसर हो या फिर मीडिया कहलाने वाला कोई व्यक्ति या संस्था। देश, उसकी सुरक्षा और कानून से परे कोई भी नहीं हो सकता।

कुल मिलाकर इस कथित खोजी खबर का जो गुब्बारा फुलाया गया वह इसे लिखने वाले पत्रकारों के मुताबिक कुल मिलाकर 23 स्मार्टफोन में पेगासस सॉफ्टवेयर पाए जाने के तथ्य को लेकर है। अब इन 23 फोन को लेकर भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में अनगिनत स्टोरियां फैला दी गई हैं। यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि जब आपके अपने कथन के अनुसार ही दुनिया भर में सिर्फ 23 फोनों की जांच में पेगासस की निगरानी पायी गयी तो फिर आप किस आधार पर कह सकते हैं कि भारत में ही हजारों लोगों की निगरानी हो रही है। कोई अगर ये भी बताता कि इन 23 में से अमुक संख्या भारत के नागरिकों की है तो भी इसमें कोई गंभीरता होती। बस सब कुछ राजनीतिक बयानबाजी पर चल रहा है। शायद इसी को कहते हैं यानी सूत न कपास जुलाहे से लट्ठम लट्ठा।

याद रखिए सत्य को तर्क की आवश्यकता नहीं होती। वह स्वयं सिद्ध होता है। जब तथ्य नहीं होते हैं तो तर्क का भ्रम जाल और बयानबाजी का मकड़जाल बुना जाता है ताकि उसके पीछे के धुँधलके में किसी को कुछ दिखाई ही ना दें। पेगासस की गाथा भी कुछ ऐसी ही लगती है।

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