पैगम्बर मोहम्मद के जन्म से पहले अर्वस्थान वैदिक था

पैगम्बर मोहम्मद के जन्म से पहले अर्वस्थान वैदिक था

प्रागैस्लामी अरब में हिंदू-संस्कृति- (भाग-2)

गुंजन अग्रवाल

यूनानी-इतिहासकार यूसेबियस (Eusebius of Caesarea : 283-371)  ने उल्लेख किया है कि सिंधु-नदी के किनारे रहने वाले लोग मिश्र के समीप इथियोपिया (Ethiopia) प्रदेश में आकर बसे। सिंधु घाटी-सभ्यता की मुहरों और प्राचीन सुमेरियाई मुहरों में समानता दृष्टिगोचर होती है।

सन् 570 ई. में मुहम्मद साहब के जन्म के समय अर्वस्थान में एक उन्नत, समृद्ध एवं वैविध्यपूर्ण वैदिक संस्कृति थी। प्रत्येक घर में हिंदू देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ थीं। सार्वजनिक मन्दिर, पूजा-पाठ के साथ-साथ शिक्षा एवं संस्कृति के भी केन्द्र थे।

अर्वस्थान पर हिंदू-संस्कृति के प्रभाव की पड़ताल करने से पहले मध्य-पूर्व (Middle-East) पर हिंदू-संस्कृति के प्रभाव की पड़ताल करना समीचीन होगा; क्योंकि अब अरबवासी मध्य-पूर्व के एक बड़े क्षेत्र में फैले हैं और उन देशों में, जो मूलतः ग़ैर-अरबी थे, इस्लाम में मतांतरित होने के बाद अपने को ‘अरबी’ कहने लगे।

‘मितन्नी’ (Mitanni) साम्राज्य चार शताब्दियों तक (1600-1200 ई.पू.) पश्चिमी एशिया पर राज करता रहा। इस वंश के सम्राटों के संस्कृत नाम थे। समझा जाता है कि ये लोग महाभारत-युद्ध (3139-’38 ई.पू.) के पश्चात् भारत से वहाँ प्रवासी बने। कुछ विद्वान् समझते हैं कि ये लोग वेद की मैत्रायणीय शाखा के प्रतिनिधि हैं। मितन्नी देश की राजधानी का नाम ‘वसुखानी –  Washukanni  धन की खान) था। इस वंश के वैवाहिक संबंध मिश्र (Egypt) से थे। 14वीं शती ई.पू. के बोग़ाज़क़ोई (Boghazkoi or Bogazköy or Boghazkeui or modern Boazkale ) अभिलेख में मितन्नी राजा मत्तिवाज (Mattivaza : 1350-1320 BC) और हित्ती (Hittites) राजा सुप्पिलुइउमा (Suppiluiuma I : 1350-1322 BC) के मध्य हुई सन्धि के सन्दर्भ में वैदिक-देवताओं,  यथा— इन्द्र,  मित्र,  वरुण,  नासत्य (अश्विनीकुमार) आदि को साक्षी के रूप में दिखाया गया है। प्राचीन मितन्नी राजाओं के नाम थे—

  1. आर्ततम I (Artatama I : 1410-1400 BC)
  2. सत्वर्ण II (Shuttarna II : 1400-1385 BC)
  3. तुश्यरथ (दशरथ) (Tushratta : 1380-1350 BC)  इत्यादि ।

असीरिया (Asseria) असुर-राजाओं का देश था—

  1. असुर निरारी II (Ashur Nirari II : 1414-1408 BC)
  2. असुर दान I (Ashur Dan I : 1179-1133 BC)
  3. असुर नासिरपाल I (Ashur nasir-pal I : 1050-1031 BC)
  4. असुर बनीपाल (Ashurbanipal : 669-631 BC & 627 BC) इत्यादि।

प्रसिद्ध इतिहासकार एडवर्ड पोकॉक (Edward Pococke) ने उल्लेख किया है कि बेबीलोनियन और असीरियन-साम्राज्यों में सर्वत्र हिंदू-धर्म ही था। प्राचीन धर्मग्रन्थों में पाए जानेवाले विपुल प्रमाणों से यह प्रतीत होता है कि उनक देव सूर्य होते थे। उसे वे ‘बालनाथ’ कहते थे। उसका स्तम्भरूपी प्रतीक प्रत्येक पहाड़ी पर प्रत्येक कुंज में प्रतिष्ठित था। उसका एक दूसरा रूप था बछड़े का,  जिसका पर्व हर पूर्णिमा को होता था।  वे आगे लिखते हैं कि सीरिया राज्य का नाम सूर्य से पड़ा है। सारा प्रदेश भी सूर्य से ही सीरिया कहलाया। ये सूर्य-योद्धा बड़ी संख्या में पैलेस्टीन में बसे।

प्रख्यात लेखक,  कवि एवं दार्शनिक अनवर शेख (Mohammad Anwar Shaikh : 1928-2006) ने उल्लेख किया है कि ‘सीरिया, फिलिस्तीन और बेबीलोनिया की प्राचीन कथाओं में बहुत सारे भारतीय-शब्दों को देखकर आश्चर्य होता है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं: असुर बनीपाल, गिलगिमेश, उत्नापीस्तम, यम, राम, पौल, सरपनितु, जुइसूद्र,  नमतार,  नरगल,  सिदुरी,  निनहुरसंगा, कमरूसेपास इत्यादि। बेबीलोन के मन्दिरों की भारतीय-मन्दिरों से समानता, त्रिमूर्ति और बहुपतित्व आदि प्रथाओं का पालन आदि साक्ष्य प्राचीन शामी (सेमेटिक) जगत् पर सिंधु-घाटी की सभ्यता के प्रभाव को दर्शाते हैं।’

यूनानी-इतिहासकार यूसेबियस (Eusebius of Caesarea : 283-371)  ने उल्लेख किया है कि सिंधु-नदी के किनारे रहनेवाले लोग मिश्र के समीप इथियोपिया (Ethiopia) प्रदेश में आकर बसे। सिंधु घाटी-सभ्यता की मुहरों और प्राचीन सुमेरियाई मुहरों में समानता दृष्टिगोचर होती है। इस सन्दर्भ में स्वामी शंकरानन्द ने अपनी पुस्तक ‘हिंदू-स्टेट ऑफ़ सुमेरिया’ (Hindu states of Sumeria ) में चुनौतीपूर्ण तर्क प्रस्तुत किए हैं।

मिश्र देश का नाम ही संस्कृत-भाषा का है। यह किसी सेमेटिक या यूरोपीय भाषा का शब्द नहीं है। मण्डन मिश्र से लेकर वाचस्पति मिश्र तक भारत में महान् ब्राह्मण-विद्वानों का ‘मिश्र’ उपनाम रहा है।  प्रख्यात रहस्यवादी-लेखक हार्वे स्पेंसर लेविस (Harvey Spencer Lewis : 1883-1939) ने लिखा है : ‘मिश्र या पैलेस्टाइन में ईशानपंथी लोग पक्के आर्यवंशी ही होते थे।’ प्रख्यात लेखक और लन्दन में स्वीडिश मंत्री काउंट ब्जोर्नर्स्टजेर्ना (Count Magnus Fredrik Ferdinand Björnstjerna, född : 1779-1847) ने लिखा है : ‘भारतीय-पुराणों के कई नाम मिश्र की दन्त-कथाओं में पहचाने जा सकते हैं। उदाहरणार्थ मिश्री हय-गोप। लोगों के परमेश्वर ‘अम्मोन’ कहलाते थे। वह हिंदुओं का ‘ॐ’ ही है। ब्राह्मणों के शिव-देवता मिश्र के जिस मन्दिर में हैं,  उसके दर्शनार्थ सिकन्दर ने जिस नगर की यात्रा की थी, उस नगर से अभी भी उसका नाम जुड़ा हुआ है। वह नगर है अलेक़्जेंड्रिया।’  सुप्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् गॉडफ्ऱे हिग्ग़िन्स (Godfrey Higgins : 1772-1833) ने लिखा है : ‘फ्रांस से युद्ध के समय ब्रिटिश-सेना के जो भारतीय सिपाही मिश्र के प्राचीन थीब्ज नगर में लाए गए, तो उन्होंने वहाँ के मन्दिर में कृष्ण की मूर्ति देखी और वे तुरन्त भगवान् को प्रणाम आदि करने लग गये।’

मिश्र की सुप्रसिद्ध नदी ‘नील’ (Nile) भी संस्कृत नाम है जो इसके जल के नीलेपन के कारण रखा गया है।  मिश्री भाषा में नील नदी का नाम मिलता ही नहीं। ज्ञातव्य हो कि भारतवर्ष रंगाई के लिए नीले रंग का प्रयोग करनेवाला दुनिया का प्रथम देश है। इसीलिए नीले रंग को ‘इण्डिगो’ (Indigo) कहा जाता है। भारत यूरोप को नीले रंग का निर्यात करनेवाला प्रारम्भिक देश था।

मिश्र के पिरामिड भारतीय-वास्तुशास्त्र के ही अंग हैं।  पिरामिडों तथा भारतीय अध्यात्म-साधना में प्रयोग होनेवाले ‘श्रीचक्र’(श्रीयंत्र) के कोणों में अद्भुत समानता पाई गई है।

पैगम्बर मोहम्मद के जन्म से पहले अर्वस्थान वैदिक था

3000 ई.पू. के एक पिरामिड में परिरक्षित ममी के ताबूत पर प्राचीन मिश्री चित्रलिपि में एक सूत्र उत्कीर्ण है,  जो भगवद्गीता के एक श्लोक का यथावत् अनुवाद है। सागौन की वह लकड़ी, जिससे ताबूत निर्मित है तथा मसलिन, जिसमें शव को लपेटा गया था, भारतवर्ष से ही आयातित थे।  मिश्र के तीसरे राजवंश (2686-2613 ई.पू.) के दौरान निर्मित पिरामिड का नक्शा बनानेवाले स्थपति का चित्र Egyptian Myth & Legend  नामक ग्रन्थ में प्रकाशित है। उसके शरीर पर भस्म तथा चन्दन का अष्टचिह्न (U) ठीक उसी प्रकार का है, जैसा सन्त तुलसीदास के चित्र में हम देखते हैं। अतः यह मानना पड़ेगा कि पिरामिडों की रूपरेखा प्राचीन संस्कृत स्थापत्य-ग्रन्थों के अनुसार ही बनी है। मिश्र के प्राचीन शासक ‘फ़राओ’ (Pharaohs) भी ऐसा ही चिह्न धारण करते थे। काहिरा तथा अन्य मिश्री-नगरों के संग्रहालयों में ऐसे चित्र धारण किए ही फ़राहो-राजाओं के चित्र प्रदर्शित हैं।  फराओ-राजाओं के नाम भी सयामी राजकुल के समान ही राम पर ही आधारित रामेशेस् I, रामेशेस् II आदि होते थे। रामेशेस् अर्थात् राम + ईशस् यानि राम ही परमात्मास्वरूप है।   मिश्र में ‘राम’ नामधारी 12 राजा हुए—

  1. परमेश रामेशेस् (Paremessu Ramesses I, Menpehtyre : 1293-1291 BC)
  2. रामेशेस् II महान् (Ramesses II the Great, Usermaatre-setepenre : 1279-1213 BC)
  3. रामेशेस् III (Ramesses III, Usermaatremeryamun : 1184-1153 BC)
  4. रामेशेस् IV (Ramesses IV, Hekamaatresetepenamun : 1153-1147 BC)
  5. रामेशेस् V (Ramesses V, Usermaatresekheperenre : 1147-1143 BC)
  6. रामेशेस् VI (Ramesses VI, Nebmaatremeryamun : 1143-1136 BC)
  7. रामेशेस् VII (Ramesses VII, Usermaatresetepenre : 1136-1129 BC)
  8. रामेशेस् VIII (Ramesses VIII, Usermaatreakhenamun : 1129-1126 BC)
  9. रामेशेस् IX (Ramesses IX, Neferkaresetepenre : 1126-1108 BC)
  10. रामेशेस् X (Ramesses X, Khepermaatresetepenre : 1108-1099 BC)
  11. रामेशेस् ग्प् XI (Ramesses XI, Menmaatresetepenptah : 1099-1069 BC)
  12. रामोस (Ramose : fl. 1350’s AD)

मिश्र की सिंचाई-पद्धति भारतमूलक है— यह सर्वविदित है।  सूर्य-पूजा का प्रचलन भारतवर्ष से क्रमशः ईरान, मिश्र और अन्त में यूरोप पहुँचा। मिथ्रेइज़्म (Mithraism) (सूर्योपासना-पद्धति) प्राचीन यूरोप में ईसाइयत के प्रादुर्भाव से पूर्व ‘मित्र’ (सूर्य)-पूजा थी।  मिश्र द्वारा भारत से मसाले, हीरे-ज़वाहरात, रंग, लोहा, हाथी-दाँत की वस्तुएँ, कछुए की हड्डी, चन्दन की लकड़ियाँ आदि आयात की जाती थीं।

इज़राइल के प्रसिद्ध राजा सोलोमन अथवा सुलेमान (Soloman : 971-931 BC) अपने महल के लिए सागौन, हाथीदाँत, मलमल, मसाले, ज़ेवरात, मोर इत्यादि भारत से आयात करते थे। एडवर्ड पोकॉक ने लिखा है : ‘सोलोमन के प्रासाद में दृष्टिगोचर होनेवाले सुवर्ण और अन्य मूल्यवान् सामग्री भारत से ही लाई गई थी। वे वस्तुएँ, उन्हें लाने के लिए किया गया दीर्घ प्रवास, फणि उर्फ़ फिनीशियन् लोगों का निवास-स्थान और सागर के किनारे किया हुआ तीन वर्षों का प्रवास आदि विवरण ध्यान में रखते हुए वह समस्त मूल्यवान् सामग्री अवश्यमेव भारत से ही आई होगी।’

(क्रमशः जारी)

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