प्राचीन सनातन परंपराएँ : अर्घ्य, आचमन और त्रिकाल संध्या
विश्व हस्तप्रक्षालन दिवस/ world hand washing day/ 15 अक्टूबर
प्रो. के. बी. शर्मा
अर्घ्य और आचमन भारत की प्राचीन परंपरा
सनातन हिंदू परंपरा में स्वच्छता के लिए हजारों वर्षों से अर्घ्य, आचमन और त्रिकाल संध्या की वैज्ञानिक पद्धति रही है, जिससे भारतीय समाज महामारियों से लड़ता और उनका प्रतिकार करता रहा है।
कोविड 19 का विकराल रूप हम सबने देखा है। पहली और दूसरी कोविड लहर का दुष्प्रभाव पूरे देश में पड़ा। तीसरी लहर के संकट के बादल मंडरा रहे हैं। सभी को सचेत व सावधान रहने की आवश्यकता है। हम बार-बार सभी माध्यमों से ये शब्द सुन रहे है कि बार-बार हाथ धोइये, दो गज की दूरी रखें, मास्क का उपयोग करें तथा बार-बार सैनेटाइज करें। कोरोना से बचाव का उपाय लोगों से दूरी रखना व स्वच्छता ही है। स्वयं को सुरक्षित रखेगें तभी सम्पूर्ण देश और परिवार को सुरक्षित रख पायेंगे
मनुष्य का शरीर पाँच तत्वों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश) से बना है। प्रकृति में इन तत्वों की प्रधानता है। वातावरण में गन्ध व दुर्गन्ध दोनों प्रधानता से रहती हैं। जीव-जन्तु कीट-पतंगे पर्यावरण में रहते है। सूक्ष्म परमाणु हमें दिखते नहीं, परन्तु वे मनुष्य के शरीर पर दुष्प्रभाव डालते हैं। प्रकृति में सभी जीवों को विचरने का पूर्ण अधिकार है, किन्तु कुछ वायरस बहुत घातक होते हैं। उनसे हमें अपना बचाव करना ही है। सृष्टि के निर्माण के साथ-साथ मनुष्य, पशु-पक्षी सभी पर महामारियों ने अपनी सेंध मारी है। प्राचीन इतिहास के अवलोकन से हमें ज्ञात होता है कि महामारियाँ आयीं और गयीं।
वर्तमान में कोरोना महामारी ने समूचे विश्व को हिलाकर रख दिया है। विज्ञान का ज्ञान भी पूरी तरह कार्य नहीं कर पा रहा। सभी ओर से शोध में यही तथ्य निकलकर आ रहा है कि मुख पर मास्क लगायें तथा हाथों को बार-बार धोयें। एकादश इन्द्रियों से संयुक्त मानव शरीर में हाथ ही ऐसी इन्द्रिय है जिसका सम्पर्क शरीर के पूर्ण भाग से होता है। सभी कार्य हाथों से ही किये जाते हैं। अतः हाथों का पूर्ण स्वच्छ होना जरूरी है।
हमारें प्राचीन ऋषि, महर्षि मानव विज्ञान से भली भाँति परिचित थे। नित्य बार-बार हाथ धोने के नियम वैदिक काल से हैं। प्रतिदिन सन्ध्या में घर का पवित्रीकरण किया जाता था। धूप तथा गोबर के कंडे प्रज्वलित किये जाते थे। यज्ञ तीनों सन्ध्याओं में किये जाते थे। उनका मूल आधार वातावरण को शुद्ध रखना था। वातावरण में विभिन्न प्रकार के कीट भ्रमण करते हैं और वे रोग व व्याधि के जनक होते है। प्राचीन प्रणाली ऐसी सुव्यवस्थित थी जिसमें शुद्धता व स्वच्छता का पूर्णतः ध्यान रखा जाता था।
भोजन से पूर्व आचमन का विधान था और हाथों को स्वच्छ करना, भोजन उपरान्त भी हाथ मुख को अच्छी तरह धोने का उल्लेख शास्त्रों में बहुतायत रूप से प्राप्त है। हमारी संस्कृति मनुष्य का शरीर स्वस्थ व निरोगी रहे इस अवधारणा को उच्च पायदान पर रखती है।
पुरातन काल से ही घरों को गोबर से प्रतिदिन लीपा जाता है। नीम के पत्तों की धूनी दी जाती थी तथा गौमूत्र का छिड़काव भी प्रतिदिन किया जाता था। बाहर से आने पर सर्वप्रथम हाथ-पैर धोने का विधान था। पौराणिक शास्त्रों में उल्लेख है कि अतिथि के आने पर सर्वप्रथम अर्ध्य लेकर जायें। अर्घ्य से तात्पर्य जल से आचमन कराकर उसकी शुद्धि करना है।
आज सम्पूर्ण विश्व इस बात को समझ गया है कि हाथों की शुद्धी बहुत जरूरी है। विश्व हस्त प्रक्षालन दिवस सम्पूर्ण विश्व में 15 अक्टूबर को मनाया जाता है और यह दिवस जागरूकता का द्योतक है कि हम बार-बार हाथ धोएं और स्वस्थ रहें।
हमारी संस्कृति में कभी भी हैंड शेक यानि हाथ मिलाने का विधान नहीं है। अंजली बद्ध नमस्कार करने का ही चलन था। और यह सब इस दूरदर्शिता का प्रतीक है कि हाथों में कीटाणु एक से दूसरे में संक्रमित हो सकते हैं। वाल्मीकि रामायण में स्पष्ट कहा गया है कि दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करना चाहिये, एक हाथ से कभी भी नहीं। चरणों में अभिवादन की ही परम्परा ज्यादा है, इससे कोई हानि नहीं वरन् ऊर्जा की प्राप्ति ही होती है।
वर्तमान में सभी दुकानों, घरों, दफ्तरों और सार्वजनिक स्थलों पर सैनेटाइजर की व्यवस्था हम देखते है। व्यक्ति घर से निकलते समय अपने पास सैनेटाइजर की बोतल अवश्य रखता है। सैनेटाइजर बाजार में विभिन्न प्रकार के बनने लगे हैं। ज्यादा आवक होने से सैनेटाइजर की क्वालिटी में भी गिरावट आने लगी है। अल्कोहल की ज्यादा मात्रा नुकसान भी पहुँचाती है। सैनेटाइजर शरीर को किसी भी प्रकार की हानि न पहुँचाये ऐसे ही बनने चाहिए।
यह तो स्पष्ट है कि सैनेटाइजेशन का चलन कोरोना महामारी में बढ़ा है परन्तु हमारी संस्कृति में सैनेटाइज करना दैनिक जीवन का अंग था। स्वस्थ परम्पराओं को छोड़ने के कारण मनुष्य दुःखी रहता है। आज महामारी की मार से हम कोई भी कार्य दवाब व डर से कर रहे है। सैनेटाइजेशन नया नहीं है। तब भी था और अब भी होने लगा है। फर्क मात्र परिस्थितियों का है।
हम सभी अपने मूल्यों को समझें तथा भौतिक अन्धानुकरण में पूरी तरह से न बँधें, जागरूक तथा सचेत रहकर स्वयं को सुरक्षित रखें। स्वयं सुरक्षित तो परिवार, देश, राष्ट्र और सम्पूर्ण विश्व सुरक्षित रहेगा।
(लेखक शिक्षाविद हैं तथा एस.एस.जैन सुबोध स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्राचार्य हैं)