फिल्म द कश्मीर फाइल्स : आत्मा को अंदर तक हिला देने वाला अनुभव…!

फिल्म द कश्मीर फाइल्स : आत्मा को अंदर तक हिला देने वाला अनुभव…!

निहारिका पोल सर्वटे

फिल्म द कश्मीर फाइल्स : आत्मा को अंदर तक हिला देने वाला अनुभव…!फिल्म द कश्मीर फाइल्स : आत्मा को अंदर तक हिला देने वाला अनुभव…!

वैसे तो “आत्मा को हिला देने वाला” जैसे शब्द भी इस अनुभव के सामने बेहद ही छोटे हैं। कश्मीर में 19 जनवरी 1990 को क्या हुआ था, यह सबको पता है और जिन्हें नहीं पता उन्हें अब पता चल जाएगा। लेकिन वो सारी सच्चाई अपनी आँखों के सामने देखना आपको अंदर तक हिला कर रख देगा। द कश्मीर फाइल्स कहानी है कश्मीर की, कहानी है कश्मीरी हिन्दुओं की, जो जानबूझ कर दुनिया से छिपा कर रखी गई। यह कहानी है, पुष्करनाथ पंडित और उनके जैसे लाखों कश्मीरी हिन्दुओं की, जिन्हें एक रात में अपना सब कुछ छोड़कर घाटी से भागना पड़ा, क्योंकि इस्लामिक जिहादियों ने उन्हें केवल तीन ही विकल्प दिये थे, रालिव, सालिव या गालिव अर्थात, मुसलमान बनो, भाग जाओ, या मर जाओ। उनके साथ हुए अत्याचारों की खुली किताब है यह फिल्म।

विवेक रंजन अग्निहोत्री को इस फिल्म को बनाने के लिये जितना धन्यवाद दिया जाए उतना कम है। यह फिल्म कोल्डड्रिंक और पॉपकॉर्न के साथ एंजॉय करने वाली फिल्म नहीं है। एक सीन में भागे हुए कश्मीरी हिन्दुओं के पास खाने के लिये कुछ नहीं था। पुष्करनाथ पंडित के किरदार में अनुपम खेर पार्ले जी चाट कर रखते हैं, ताकि कल खाने के लिये भी उनके पास कुछ रहे।

तो फिल्म द कश्मीर फाइल्स की कहानी क्या है, यह आप सब जानते हैं, लेकिन जिस शक्ति के साथ अभिनेताओं ने उसे पर्दे पर उतारा है, उसका कोई जवाब नहीं। आपको आतंकवादी बट्टा के किरदार में चिन्मय मांडलेकर और ब्रेनवॉश करने वाली प्रोफेसर राधिका के किरदार में काम करने वाली पल्लवी जोशी से घृणा हो जाएगी, इस श्रेणी का काम इन दोनों ने किया है। लेकिन आपकी आत्मा को अगर कोई रुला सकता है, तो वो हैं अनुपम खेर। उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहा था, कि इस फिल्म के हर सीन को शूट करने के बाद वो रोए हैं, ऐसा उन्होंने क्यों कहा आज समझ आया। पुष्करनाथ का पूरा परिवार समाप्त हो गया, लेकिन वे आखिरी सांस तक धारा 370 हटाने की माँग करते हुए डट कर लड़ते रहे। 6000 पत्र लिखे उन्होंने सरकार को, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं था। उन्हीं का पोता कृष्णा जो अपने परिवार की सच्चाई से अनजान है, जब जेएनयू के जहरीले वातावरण में जाता है, तो किस तरह उसे बरगलाया जाता है, किस तरह उसके ‘पंडित’ सरनेम का उपयोग किया जाता है, और कैसे उसे भी टुकड़े टुकड़े गैंग का हिस्सा बनाया जाता है, यह सब एक झलक है जेएनयू के जहर और उसकी सच्चाई की।

फिल्म के संवाद व्यक्ति को सुन्न कर देते हैं और दृश्य विचलित कर देने वाले हैं। पुनीत इस्सर, मिथुन दा, मृणाल कुलकर्णी और अन्य सभी किरदारों के संवाद बेहद सोच समझ कर लिखे गए हैं। उनका अभिनय भी उतना ही दमदार है। कृष्णा के किरदार का कन्फ्यूजन, अज्ञानता और बाद में मिला आत्मविश्वास आप भी अनुभव कर सकते हैं, इसके लिये दर्शन कुमार की जितनी प्रशंसा की जाए कम है।

इस फिल्म में मीडिया का जो रूप दिखाया है, वह भी आपको गहरा सदमा देता है। अपनी जान बचाने के लिये पत्रकार चुप रहते थे। सरकार का उत्तर, जिहादियों का दबाव, और इस दबाव के चलते सच का दम घुटता गया। सब कुछ बेहद ही भयंकर, रोंगटे खड़े करने वाला, आपकी रूह काँप जाए ऐसा।

…और सबसे अधिक दर्द तब होता है, जब फिल्म देखते देखते हर पल आप यही सोचते हैं, कि हमारी पाठ्य-पुस्तकों में यह सब क्यों नहीं पढ़ाया गया? क्यों मुगलिया सल्तनत से हमारे इतिहास की पुस्तकों के पन्ने भरे गए? फारुख अब्दुल्ला, शेख अब्दुल्ला इनकी असलियत हम तक क्यों नहीं पँहुचाई गई? कश्मीर के गौरवशाली इतिहास के बारे में हमें क्यों नहीं बताया गया? इस फिल्म के आने से पहले हमारी पीढ़ी के कितने लोग जानते थे कि पंचतंत्र कश्मीर में लिखा गया था? भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र भी कश्मीर में ही लिखा? आज हमें बॉलीवुड के गाने सुनते सुनते कलमा, शुकराना, नजाकत, मकबूल, महफूज जैसे कई उर्दू शब्द तो पता हैं, लेकिन संस्कृत के शब्द या संस्कृत छोड़ें, शुद्ध हिंदी के शब्द सुन कर ही हमारा मस्तिष्क घूम जाता है।

इस फिल्म का अंत इसका सार है। अंत में कृष्णा जो कुछ बोलता है, वह एक बार नहीं हजारों बार सुनने, समझने और सोचने जैसा है कि आज तक हमें कश्मीर में हुई इस घिनौनी घटना के बारे में क्यों नहीं पता? हमारी आयु के बच्चे जिन्हें कुछ नहीं पता, जो अज्ञान हैं, उनका किस तरह ब्रेनवॉश किया जा रहा है।

यह फिल्म एक फिल्म नहीं है, करारा तमाचा है, जो आपको सच्चाई दिखाती है। स्वयं को सेक्युलर कहने वाले हर व्यक्ति को यह फिल्म देखनी चाहिये। भारत में जो असुरक्षित अनुभव करते हैं, उन्हें जानना चाहिये कि क्या झेला है कश्मीरी पंडितों ने, फिर भी आज भी वे कश्मीर वापस जाने को तरस रहे हैं।

इस फिल्म में मसीहा बनकर आने वाले किसी रहीम चाचा का कोई किरदार नहीं हैं। फिल्म में जानबूझ कर किसी एक कौम को अच्छा अनुभव कराने के लिये कुछ अच्छा दिखाया नहीं गया। फिल्म में किसे अच्छा लगेगा और किसे बुरा यह सोचा नहीं गया। यह फिल्म एक सच है, जो थाड से आकर आपके मुँह पर लगता है, मस्तिष्क में जाता है, हृदय तक उतरता है, और आँखों से बाहर आता है।

फिल्म द कश्मीर फाइल्स अवश्य देखें, परिवार, मोहल्ले और पूरे शहर के साथ देखें, अधिकाधिक लोगों को दिखाएँ, अपने यहाँ काम करने वाले स्टाफ के लिये टिकट खरीदें। कश्मीर का सच 32 साल बाद ही सही लेकिन लोगों के मन मस्तिष्क तक जाना चाहिये।

अब कहीं भी आपके कानों में ‘हमें चाहिये आजादी’ पड़ेगा, तो आपको विघटनकारियों के षड्यंत्र ध्यान में आएंगे। सही कहा है फिल्म में, यह एक जेनोसाइड था, और इस्लामी जिहादी इसके पीछे थे। यदि कश्मीर से धारा 370 नहीं हटती तो हर कुछ दिन में 19 जनवरी दोहरा रहा होता, और हम कुछ नहीं कर पाते।

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