फिल्म समीक्षा – स्टेट वर्सस मालती म्हस्के : अभिजात वर्ग का काला सच

निखिल महाजन की फिल्म “स्टेट वर्सस मालती म्हस्के” को मात्र एक “दलित/सवर्ण” के जातिगत संघर्ष में बांध देना उचित नहीं है, क्योंकि आरंभ में मालती का शोषण उसी के मामा द्वारा किया जाता है। वस्तुतः यह रंगमंचीय फ़िल्म वर्ग संघर्ष का कोर्ट रूम ड्रामा है।

मालती निर्धन और बेसहारा है, इसका अर्थ यह नहीं है कि किसी भी व्यक्ति के द्वारा उसका शोषण किया जाए। परंतु ऐसा होता है। प्रायः निर्धन, अनाथ, बेसहारा व्यक्ति संभ्रांत समाज के हाशिये पर होता है। अकादमिक विमर्शों में, विद्वानों के बीच बहुतायत में इस विषय पर चर्चाएं होती हैं। शोध प्रबंध लिखे जाते हैं। पुस्तकें प्रकाशित होती हैं। सबाल्टर्न अध्ययन जैसे विस्तृत शोध-विषय सामने आते हैं। पर यथार्थ वही है। कुछ नहीं बदलता। सब ढकोसला है। यही दिखाने का प्रयास किया गया है इस फ़िल्म में। जो शक्तिशाली है, वह शोषण का अधिकारी बन जाता है। निश्चित रूप से वह स्त्री भी हो सकती है। काव्या आलेकर और चैतवा दीक्षित की दृष्टि में मालती केवल एक अनपढ़, मंदबुद्धि नौकरानी है। काव्या, मालती को अपनी दमित, अप्राकृतिक इच्छा का शिकार बनाती है और उसी की समलैंगिक मित्र उत्कट ईर्ष्यावश उसकी हत्या कर देती है। काव्या मर चुकी है, पर वह चैतवा सहित मालती के साथ हुए इस अन्याय में बराबर भागीदार है। ये दोनों ही नहीं अपितु चकाचौंध से युक्त, शक्ति के अभिमान में चूर, दमित इच्छाओं का पोषण करने वाला पूरा नौकरशाह वर्ग, जो मालती को हत्या का दोषी साबित करने पर तुला हुआ है, इस अपराध में हिस्सेदार बनता है।
क्योंकि यह वर्ग शक्तिशाली है, तो सच का निर्माण करना भी इन्हीं लोगों के अधिकार क्षेत्र में आता है। सरकारी वकील देशपांडे भी इस तंत्र का मोहरा बनता है। हमारे देश में नौकरशाही इस अभिजात वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। हत्या के मुकदमे में दोषी ठहराई गयी दलित वर्ग की मालती और उसी वर्ग की संघर्षशील महिला वकील तारा कांबले इस शक्तिशाली वर्ग के आगे नगण्य हैं। पर सौभाग्यवश यहाँ न्याय होता है।

पाखण्ड और दर्प में आकंठ डूबे इस सम्भ्रांत वर्ग पर यह फ़िल्म बड़ा आक्रामक प्रहार करती है। भारत में अंग्रेज़ी कुशासन के चले जाने के उपरान्त उभरे इस वर्ग का यदि ठीक प्रकार से सांस्कृतिक आंकलन किया जाए तो सामने आता है कि ये लोग (जिनमें वे राजनीतिक परिवार भी शामिल हैं जो पीढ़ियों से सत्ता का आस्वादन कर रहे हैं), सही अर्थों में “भारतीय” हैं ही नहीं। ये लोग उसी पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण करते हैं, जहाँ अप्राकृतिक सम्बन्धों तथा सामाजिक गंदगी को बढ़ावा दिया जाता है। बाहर से सभ्य, विनम्र, और शिक्षित होने का प्रदर्शन करने वाले लोग भीतर से कितने कुत्सित और घिनौने हैं, यही दिखाने का प्रशंसनीय प्रयास किया है निर्देशक ने। अन्य सभी कलाकारों सहित मराठी अभिनेत्री स्मिता तांबे का रंगमंचीय अनुभव और परिपक्वता स्पष्ट दिखाई देते हैं। दिव्या मेनन की दैहिक भाषा और संवादकला अच्छे कलाकार होने की परिचायक है।

डॉ. अरुण सिंह

Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *