बच्चियों के साथ बलात्कार : हाथरस से अलवर तक बदलती टैगलाइन

बच्चियों के साथ बलात्कार : हाथरस से अलवर तक बदलती टैगलाइन

अंजन कुमार ठाकुर

बच्चियों के साथ बलात्कार : हाथरस से अलवर तक बदलती टैगलाइनबच्चियों के साथ बलात्कार : हाथरस से अलवर तक नजरिया अलग अलग

वर्तमान समय में लगता है कि अवसरवादिता और दोगलापन राजनीति का पर्याय बन चुके हैं। काल, स्थान और आवश्यकता के अनुरूप अपना बयान और व्यवहार बदल लेना ही व्यावहारिकता बन गया है। ज़िक्र है अलवर में एक मूक बधिर किशोरी के साथ लगभग वही अमानवीय कृत्य होने का, जो कभी दिल्ली की निर्भया के साथ हुआ था; पर उस समय निर्भया के साथ दुराचार पर सैकड़ों बुद्धिजीवी नयन भी सजल हो गये थे। गीतकारों के कम्पित अधरों पर मर्मस्पर्शी गीतों का प्रस्फुटन होने लगा था “ओ री चिरैया , छोटी सी चिड़िया …।” लेकिन अलवर की इस पीड़िता के लिये तो बलात्कार की बात ही रफ़ा दफ़ा कर देने के प्रशासकीय प्रयास हुए।

हाथरस में हुई घटना पर देश की सबसे पुरानी पार्टी का हर एक छोटा बड़ा नेता कैम्प लगा कर बैठ गया था। अलवर की घटना पर मात्र टेलीफ़ोन कॉल पर मामला सिमट कर रह गया।

आखिर क्यों?

बलात्कार नारी के देह और मन मस्तिष्क पर किया गया एक ऐसा आघात है जिसका असर आजीवन रहता है और चाहकर भी कोई स्त्री या बालिका इसका न तो बलात्कारी को यथोचित प्रत्युत्तर दे सकती है और ना ही बदला ले सकती है। और बदला क्या ले, जबकि समाज में उस पर उठने वाली हर निगाह और अनचाहे ही लगाया जाने वाला लांछन उसका बारम्बार शीलहरण करता रहता है।

और यह निर्भया तो चिल्ला भी नहीं सकती थी। इसी का अवांछित लाभ लेकर शायद स्थानीय प्रशासन ने बलात्कार की घटना को ही रफ़ा दफ़ा करने के प्रयास किए। वह शायद यह भूल गया कि कुछ आततायियों के द्वारा रौंदी गई यह निर्भया गाड़ी से जहॉं फेंकी गई थी, वहाँ की धरा उसके रुधिर से रक्तरंजित हो चुकी थी और रक्त वहीं से प्रवाहित था जहाँ से मानव जाति जन्म लेती है।

यह तो हर पाठक मानेगा कि ऊँचाई से गिरने के बाद भी किसी स्त्री या पुरुष के प्राइवेट पार्ट के चोटिल होने की संभावना तब तक नगण्य होती है, जब तक कि जान बूझ कर इन अंगों को निशाना ना बनाया जाये या कोई नुकीली चीज शरीर के इन भागों में संयोग से चुभ ना जाये या जान बूझ कर ना चुभोई जाये। आज तक शिकारियों ने शेरों, बाघों, चीतों और लकड़बग्घों आदि को भी अपने अस्त्र शस्त्रों से उनके गुप्तांगों पर आघात करके शिकार करने में सफलता नहीं पाई है क्योंकि इन अंगों की बनावट स्तनधारी प्राणियों में कुछ ऐसी होती है कि किसी भी परिस्थिति में इन पर आघात ना हो पाये। शायद प्रकृति भी किसी प्रजाति के उद्गम को समाप्त या आहत नहीं होने देना चाहती है पर इस घटना में उस बालिका के साथ हुए बलात्कार को झुठलाने के प्रयास में उत्तरदायी अधिकारियों ने गुप्तांगों और मलद्वार के घावों को कैसे अनदेखा किया होगा? यह तो उन बलात्कारियों से भी अधिक निन्दनीय और निर्दयी कृत्य माना जाना चाहिये।

दिल्ली की घटना में मोमबत्तियों की रोशनी से दिल्ली नहा गई। हाथरस की घटना में राजनीति के हर चर्चित चेहरे की मंजिल यही छोटा सा कस्बा बन गया था, पर अलवर की इस पीड़िता की नीरव चीखों पर, उत्तर प्रदेश में “लड़की हूं लड़ सकती हूं” का नारा देने वाली नेत्री के मोबाइल से एक कॉल की ऑफिशियल खाना पूर्ति भर हुई और प्रदेश सरकार भी चुनावी जोड़ तोड़ की जुगत भिड़ाती रह गई। ना किसी राजनीतिक अम्मा का कोई बयान आया और ना कोई युवराज किसी के धक्के से गिरा। कहना पड़ेगा कि हर बलात्कार की किस्मत में दिल्ली और हाथरस जैसी मकबूलियत नहीं होती!और यह भविष्य में भी होता रहेगा क्योंकि हम ने यौन दुर्व्यवहार पर चीखती भयाक्रान्त आवाज़ों का नाम निर्भया, किसी के यौन दमन की शिकार का नाम दामिनी तो भग्नांगों या विकलांगों का नाम दिव्यांग रखने में अपनी राजनैतिक चालबाज़ियों से मुक्त ना होने की कसम खा ली है।

आखिर में यह बात कहनी पड़ेगी कि कहीं पर सत्ता की मलाई फिर से पाने के लिये टैगलाइन है “लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ” परन्तु कहीं पर उसी सत्ता को कायम रखने के लिये अघोषित टैगलाइन है “लड़की है तू, क्यूँ लड़ती है?”

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