बढ़ रही है इस्लाम छोड़ने वालों की संख्या

बढ़ रही है इस्लाम छोड़ने वालों की संख्या

शंकर शरण

बढ़ रही है इस्लाम छोड़ने वालों की संख्याबढ़ रही है इस्लाम छोड़ने वालों की संख्या

हाल में लाहौर बार एसोसिएशन ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर बताया कि सोशल नेटवर्क साइट्स पर चार लाख पाकिस्तानी अकाउंट इस्लाम-विरोधी प्रचार कर रहे हैं। एसोसिएशन ने यह शिकायत ईशनिंदा पर पाकिस्तानी कानूनी आयोग के समक्ष दर्ज की है। उल्लेखनीय है कि यह आंकड़ा पाकिस्तान की संघीय जांच एजेंसी के हवाले से दिया गया है। इस पर एक पाकिस्तानी टीवी चैनल पर कई मौलाना अपना सिर धुनते बाकायदा रो रहे थे।

कई कोणों से यह एक बड़ा घटनाक्रम है। पहले तो दशकों से प्रचार यह था कि मुसलमानों में मजहब छोड़ने वाला कोई होता ही नहीं, पर इसी रिपोर्ट में लिखा है कि चार वर्ष पहले ऐसे इस्लाम विरोधी अकाउंट कुल चार थे, जो अब चार लाख हो गए हैं। अर्थात इस्लाम छोड़ना ही नहीं, इस्लाम विरुद्ध प्रचार करने वालों की संख्या तेज गति से बढ़ी है। इसकी पुष्टि कराची में पैदा हुए और स्वयं को भारत का बेटा बताने वाले जाने-माने कनाडाई नागरिक तारेक फतेह के निधन पर कई पाकिस्तानी नागरिकों की ओर से संवेदना व्यक्त करने से भी होती है। माना जाता है कि संवेदना जताने वाले या तो इस्लाम छोड़ चुके लोग हैं या फिर वे हैं, जो स्वयं को नास्तिक कहलाना पसंद करते हैं। यह एक ऐतिहासिक और तेज परिवर्तन है।

लगभग छह वर्ष पहले पाकिस्तान में मशाल खान नाम के प्रतिभाशाली छात्र की विश्वविद्यालय में ही पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी, क्योंकि वह सेक्युलर विचारों का था और नमाज नहीं पढ़ता था। हालांकि उसने इस्लाम की आलोचना नहीं की थी, फिर भी उसे ईशनिंदा के आरोप में मार डाला गया। आज लाखों पाकिस्तानी इस्लाम विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं। अन्य इस्लामी देशों के भी अनेक मुसलमान इंटरनेट मीडिया पर सक्रिय हैं। वे बेहिचक स्वयं को एक्स मुस्लिम या नास्तिक बताते हैं।

एक पाकिस्तानी मौलाना का कहना है कि इस्लाम विरोधी अकाउंट रखने वालों में पाकिस्तानी फौजी जनरल, जज और धनी लोगों के बेटे-बेटियां भी हैं। लाखों लोग केवल डर से नमाज में जाते हैं, वरना मजहबी रिवाज खारिज करने वालों की बड़ी संख्या है। यह बदलते समय का संकेत है। खुले साइबर आसमान ने मजहबी नेताओं, संस्थाओं और राज्यतंत्र की वैचारिक जोर-जबरदस्ती को लगभग बेकार कर दिया है। पाकिस्तान के अतिरिक्त तुर्की, ईरान, सऊदी अरब, मिस्र आदि मुस्लिम देशों में हजारों लोग बता चुके हैं कि वे इस्लाम छोड़ चुके हैं। वे इस्लामी निर्देशों, मान्यताओं, परंपराओं पर प्रश्न उठा रहे हैं।

दुनिया भर के एक्स-मुस्लिमों द्वारा असंख्य यूट्यूब चैनल चलाए जा रहे हैं। जहां वे कुरान की आयतों, हदीसों की विस्तार से व्याख्या करते हुए लोगों को शिक्षित कर रहे हैं, जबकि कई देशों में ईशनिंदा के विरुद्ध कानून हैं। समय-समय पर कुछ सामग्री किसी देश में प्रतिबंधित भी होती रहती है, किंतु यह सब व्यर्थ साबित हो रहा है। एक तो कानूनी एवं नैतिक रूप से अधिकांश वीडियो किसी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते। वे केवल इस्लामी सिद्धांत और इतिहास के सत्य बताते हैं। प्रामाणिक संदर्भों को दिखाते हैं। उनकी सत्यता कोई भी परख सकता है। यह बड़ा आसान है, क्योंकि इस्लामी पुस्तकें इंटरनेट पर कई भाषाओं में फ्री उपलब्ध हैं। इसीलिए केवल तथ्य रखने, दूसरे पंथों, समाजों, इतिहास या वर्तमान से तुलना करने और तदनुरूप आलोचना करने पर कानून भी उसे अनुचित नहीं ठहरा पाता। जब तक एक वीडियो, चैनल या व्यक्ति को किसी देश में प्रंतिबंधित किया जाता है, तब तक दर्जनों नए वीडियो और प्रसारक आ जाते हैं।

एक्स-मुस्लिमों की बातें आयतों, हदीसों एवं इतिहास के अलावा उनके अपने अनुभवों और मामलों के महीन अंतरों, व्याख्याओं से पूरी तरह लैस होती हैं। उनकी भाषा भी मुस्लिम समाज वाली है। अतः उनका प्रसार सहजता से होता है। आज के स्वतंत्र मिजाज युवा इंटरनेट-मोबाइल के चलते पिछली पीढ़ियों की तुलना में अधिक जानकार भी हैं। वैचारिक चुनौतियों का सामना करने में उन्हें कोई संकोच नहीं। इस्लामी मतवाद उनके समक्ष असहाय है।

इस्लामी इतिहास मुख्यतः युद्ध, कब्जे और दबदबे का है। उलमा मुस्लिमों को अपनी मुट्ठी में रखते थे। किसी मुस्लिम शासन या समाज में लोग वही जान सकते थे, जो उन्हें उनके मौलवी बताएं। इसके सिवा जानकारी का कोई विशेष स्रोत या उपाय न था। उस एकाधिकारी परिवेश में दुनिया भर के मुसलमानों पर मौलानाओं का ही वैचारिक एवं नैतिक शासन रहा। अब नई तकनीक, अंतरराष्ट्रीय मेलजोल और अर्थव्यवस्था ने वे दीवारें नाकाफी बना दी हैं। लाहौर बार एसोसिएशन की शिकायत या टीवी पर मौलानाओं का रुदन इसी का प्रमाण है। वे किसी एक तसलीमा नसरीन, एक मशाल खान, एक तारेक फतेह को धमका सकते हैं, किंतु जब हजारों लोग वही प्रश्न, वही आलोचना करें या वैचारिक जबरदस्ती ठुकराएं तो शायद ही कोई उपाय है।

प्रश्न करने पर तलवार दिखाना अब असंभव होता जा रहा है। लाखों एक्स-मुस्लिमों को मार डालना असम्भव है, क्योंकि मुस्लिम शासक, जज, जनरल भी जानते हैं कि इस्लामी मान्यताओं पर प्रश्न उठाने वाले कोई दुश्मन नहीं हैं। उनमें उनके अपने बच्चे भी हैं, जो अधिकांश सहज स्वभाव के, किंतु स्वतंत्र मिजाज हैं। यदि इस्लामी पुस्तकें या मौलाना उन्हें कायल नहीं कर पाते तो कमजोरी किसकी है?

ईशनिंदा पर कानून, कानूनी आयोग, और मुल्लों-मदरसों के प्रचार के बावजूद पूरे विश्व में एक्स-मुस्लिम बढ़ रहे हैं। निःसंदेह अभी कहना कठिन है कि क्या कट्टर इस्लाम के दिन बीत गए, किंतु यह निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि मुस्लिम जनता को मुल्ला-मौलवियों की वैचारिक कैद में रखने का समय जरूर गया। कोई मतवाद अपने विचारों की सच्चाई, श्रेष्ठता और उपयोगिता के आधार पर ही सम्मान पाने का पात्र है। केवल डर और दबाव से इस्लामी कायदों को बचाना कठिन हो रहा है। किसी भी देश में इस्लाम के मालिक-मुख्तार केवल दंड, धमकी के बल पर इस्लामी मान्यताओं को मनवाने की जिद नहीं रख सकते। उन्हें वैचारिक, नैतिक आपत्तियों का उत्तर देना होगा। दुनिया के अन्य समाजों की तरह सेक्युलर, उदार, मानवतावादी और लोकतांत्रिक व्यवस्था स्वीकार करनी होगी। वरना कम्युनिज्म की तरह राजनीतिक इस्लाम भी इतिहास बन जाएगा।

(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

साभार

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