बदलता मानसून, बदलती तस्वीर
देवेंद्र पुरोहित
भारत में राजस्थान एक ऐसा प्रदेश है, जहां पर विभिन्न प्रकार की भौगोलिक परिस्थितियां पाई जाती हैं। कहीं पर सुदूर रेगिस्तान तो कहीं हरी भरी पहाड़-युक्त जल से अलंकृत भूमि है। हालांकि यह राजस्थान का एक गौरवशाली गुण रहा है कि यहां पर पग पग पर भौगोलिक परिस्थितियों से लेकर संस्कृति तक बदलती है। विभिन्नता में एकता, यही राजस्थान की सांस्कृतिक पहचान है।
हाल ही के वर्षों में यह देखा गया है कि जहां पर पहले अच्छी वर्षा होती थी, अब वहां पर औसत से कम वर्षा होने लगी है और जहां पर पहले कम वर्षा होती थी, अब वहॉं औसत से कुछ ज्यादा वर्षा होने लगी है। पर्यावरणविदों की दृष्टि में इसके बहुत से कारण हैं, उनमें से कुछ कारणों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है।
महाराजा गंगा सिंह के भागीरथी प्रयासों से हिमालय का पानी राजस्थान की भूमि में आने के बाद से गंगानगर, बीकानेर और पश्चिमी राजस्थान के मरुस्थल क्षेत्रों में बहुत सुधार हुआ। लोगों का पर्यावरण के प्रति जुड़ाव भी इसका एक महत्वपूर्ण कारण बना। लोग प्रकृति के संरक्षण के प्रति जागरूक हुए हैं, जिससे वन संपदा तो बढ़ी ही है, तापमान और मानसून के तंत्र में भी सुधार हुआ है। इसी के उलट जिन क्षेत्रों में अधिक वर्षा होती थी, वहां पर मानवीय तत्वों के अप्राकृतिक खनन से वर्षा तंत्र पर असर पड़ा है। इन स्थानों पर औसत से कम वर्षा होने लगी है।
वहीं यदि देश की बात करें तो मानसून आते ही मुंबई, दिल्ली और चेन्नई जैसे महानगर ही नहीं, बल्कि पटना, भागलपुर, वाराणसी, भोपाल जैसे छोटे शहरों के भी ‘पानी-पानी’ होने के समाचार सुर्खियां बनने लगते हैं। अब मानसून केवल बारिश नहीं ला रहा, बल्कि महानगरों, शहरों से लेकर कस्बों तक में बाढ़ भी ला रहा है। इससे न केवल भारी वित्तीय क्षति पहुंच रही है, बल्कि कई लोगों को प्रति वर्ष जान से हाथ भी धोना पड़ता है। नीति आयोग द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार बाढ़ के कारण देश को हर साल औसतन 5,649 करोड़ रुपए और 1,654 मानव जीवन का नुकसान होता है। ऐसे में अगर हमने बाढ़ रोकने के पर्याप्त प्रबंध नहीं किए तो आने वाले सालों में बारिश से होने वाली आपदाएं देश के लिए भारी तबाही ला सकती हैं। शुरुआत तो हो ही गई है। जानते हैं कि आखिर देश में बाढ़ जैसे हालात क्यों बन रहे हैं और इसका क्या असर हो रहा है।
भारी वर्षा के दिन बढ़ रहे हैं , क्योंकि बदल रहा है मानसून…
सरकारी आंकड़ों और विशेषज्ञों की मानें तो भारत में हर साल होने वाली मानसूनी बारिश की मात्रा में तो वार्षिक रूप से कोई विशेष अंतर नहीं आया है, लेकिन मानसून का स्वरूप अवश्य बदला है। भारत की वार्षिक वर्षा में जून, जुलाई और सितंबर महीनों में मानसूनी बारिश का योगदान घट रहा है जबकि कुछ क्षेत्रों में अगस्त की वर्षा का योगदान बढ़ रहा है। मौसम विभाग द्वारा वर्ष 1989-2018 के बीच वर्षा से जुड़े जिला स्तरीय आंकड़ों पर आधारित एक विश्लेषण में बताया गया है कि सौराष्ट्र, दक्षिणी राजस्थान, उत्तरी तमिलनाडु, उत्तरी आंध्र प्रदेश, दक्षिण-पश्चिमी ओडिशा, छत्तीसगढ़ के कुछ क्षेत्र, दक्षिणी-पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मणिपुर, मिजोरम, कोंकण-गोवा एवं उत्तराखंड में ‘भारी वर्षा दिवस’ (एक दिन में 6.5 सेंटीमीटर से अधिक बारिश) प्रभावित क्षेत्रों में उल्लेखनीय बढ़त हुई है। मानसून में आ रहे इस बदलाव के कारण जहां मानसून के दौरान बारिश वाले दिनों में कमी आ रही है, वहीं भारी वर्षा वाले दिनों की संख्या बढ़ रही है। यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में एकाएक मूसलाधार बारिश से भूस्खलन और अचानक आई बाढ़ से संबंधित आपदाओं का क्रम जोर पकड़ता जा रहा है। भारतीय महासागर से सटे क्षेत्रों में गंभीर चक्रवाती तूफानों की संख्या में भी कुछ सालों के दौरान काफी बढ़ोत्तरी हुई है।
कम वर्षा के दिवस बढ़ रहे हैं , क्योंकि बदल रहा है मानसून…
कई स्तरों पर पर्यावरणीय प्रदूषण और ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते प्राकृतिक संतुलन लगातार बिगड़ा है। समुद्री चक्रवातों और हवाओं में एक तरफ बढ़ोत्तरी के हालात बने हैं तो दूसरी ओर भूमिगत जलस्तर और नदियों व तालाबों जैसे जल स्रोत सिकुड़ चुके हैं। ऐसे अनेक कारणों से मानसून अस्थिर हो चुका है। सिर्फ मानसून ही नहीं, बल्कि कई बार मौसम का सही आंकलन न हो पाने की स्थिति बन चुकी है। कई बार मौसम से जुड़े एप्स भी सही जानकारी या सही अनुमान दे पाने में असमर्थ साबित हो रहे हैं। सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई हिस्सों में मौसम असंतुलित हो चुका है।