बालासाहब देवरस : कुशल संगठक और सामाजिक समरसता के प्रणेता
संगठन केवल व्याख्यान से उत्पन्न नहीं होता। उसमें सजीव अंतःकरणों को एक साँचे में ढालना होता है। एक ही ध्येय के लिए, एक ही मार्ग पर चलने वाले लाखों लोगों को एक ही सूत्र में बाँधना होता है। यही लक्ष्य लेकर परमपूज्य केशव बलिराम हेडगेवार ने अपने 5 साथियों के साथ जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी वो संघ आज दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है जो पूरी तरह से राष्ट्रप्रेम तथा धर्म रक्षा के लिए समर्पित है। आज संघ जिस मुकाम पर है, वहां तक उसे ले जाने में संघ के तृतीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस का अनमोल योगदान है।
बालासाहब देवरस का जन्म मार्गशीर्ष, शुक्ल पक्ष, पंचमी, 1972 विक्रम संवत यानि 11 दिसंबर, 1915 को हुआ था। उन्हें स्वतंत्रता के बाद के भारतीय इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण काल में राष्ट्रवादी चिंतन के एक दृढ़ स्तम्भ, जनसंघ (वर्तमान भारतीय जनता पार्टी) के उदय के शिल्पी और भारत भर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के काम को अभूतपूर्व विस्तार देने तथा भारतीय राजनीति में आमूल–चूल परिवर्तन लाने के साथ–साथ, हिंदू समेकन, सामाजिक समरसता और सद्भाव को नया आयाम देने के लिए स्मरण किया जाता है।
वे स्वयंसेवकों के उस पहले समूह में से थे, जिन्होंने डॉ. हेडगेवार द्वारा ‘नागपुर के मोहिते बाड़ा’ में शुरू की गई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहली शाखा में भाग लिया था। (यद्यपि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना वर्ष 1925 में विजयादशमी के मौके पर की गई थी, परंतु पहली दैनिक शाखा कुछ महीनों के बाद वर्ष 1926 में शुरू की गई थी।) बालासाहब का प्रशिक्षण और किसी ने नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक ने स्वयं अपने हाथों से किया था और शायद यही कारण था कि लाखों स्वयंसेवकों को, जिन्होंने डॉ. हेडगेवार को कभी नहीं देखा था, उन्हें बालासाहब में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संस्थापक की छवि नजर आती थी।
दत्तात्रेय देवरस और पार्वतीबाई के नौ बच्चों में बालासाहब देवरस आठवें थे। वर्ष 1925 में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संस्थापना की गई, देवरस का परिवार नागपुर में इतवारी मोहल्ले में रहने लगा था। बालक बालासाहब उस समय छठी कक्षा में पढ़ते थे, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहली शाखा में प्रवेश लिया।
उनका उत्साह एक संक्रमण की तरह से था और वह अपने साथ अपने कई दोस्तों को भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में ले गए, जहाँ पर शामरावजी गाडगे गण शिक्षक थे। स्कूली बच्चों का यह दल वहाँ खेला करता था और गाडगे से बहादुरी की कथाएँ सुना करता था। कुछ समय के बाद बालासाहब ने अपने छोटे भाई भाऊराव को भी संघ से जोड़ दिया।
एक बार बालासाहब देवरस ने अपनी माँ से कहा, “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मेरे कुछ मित्र भोजन करने के लिए आएंगे। परंतु मैं चाहता हूँ कि उन सबको मेरी तरह सम्मान प्राप्त हो, चाहे वे किसी भी जाति से संबंध रखते हों। उन्हें भोजन उन्हीं बर्तनों में परोसा जाए, जिनमें हमारा परिवार खाता है। मैं जाति के नाम पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं चाहता।”
इस पर माँ ने अपनी सहमति प्रदान कर दी और उसी दिन से जब भी वे उनके घर खाना खाने के लिए आते थे देवरस परिवार में स्वयंसेवकों की जाति को लेकर कभी कोई प्रश्न नहीं पूछा गया। उस काल में देश में यह एक असाधारण बात थी। वे समरस भारत का सपना देखते थे। वे खूब प्रवास करते थे और लोगों से मिलते थे। लोगों को जोड़ने की उनमें अद्भुत प्रतिभा थी। संघ में अनेक दायित्वों को संभालते हुए वर्ष 1939 में बालासाहब एक प्रचारक के रूप में कलकत्ता गए, परंतु डॉ. हेडगेवार के निधन से थोड़ा पहले उन्हें नागपुर वापस बुला लिया गया। उन्हें फिर से नागपुर की मुख्य शाखा के ‘कार्यवाह’ का प्रभार दिया गया, जब गुरुजी सरसंघचालक बने। वह शाखा विशेषकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विकास के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि वहाँ से प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में प्रचारक निकलकर आते थे, जो देश के विभिन्न भागों में जाकर संघ के कार्य का विस्तार करते थे। साधनों की बेहद कमी थी, परंतु इससे समर्पित प्रचारकों को कोई फर्क नहीं पड़ता था और इसका परिणाम यह हुआ कि आने वाले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पदचिह्न देश के विभिन्न हिस्सों में पड़ चुके थे।
वर्ष 1942 से 1947 के मध्य 1000 से अधिक युवाओं ने संघ प्रचारक बनने का निर्णय लिया और देशभर में फैल गए। जैसे–जैसे हिंदू यह मानने लगे कि संघ ही एक ऐसी संस्था है, जो उनको मुस्लिम लीग के गुंडों व इस्लामी कट्टरवादियों के हमलों से बचाए रख सकती है, देश के सभी हिस्सों से संघ की शाखा शुरू किए जाने की माँग उठने लगी। क्योंकि मुस्लिम लीग देश को विभाजित किए जाने वाले अभियान में हिंदुओं को डस रही थी, जिससे उन्हें धर्म पर आधारित एक पृथक् राज्य ‘पाकिस्तान’ प्राप्त हो सके।
वर्ष 1946-47 में चार हजार स्वयंसेवकों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के देश भर में आयोजित प्रशिक्षण शिविरों में भाग लिया। यह अब तक की सर्वाधिक बड़ी संख्या थी।
बालासाहब देवरस कुशल संगठक तो थे ही, उन्हें जनसंपर्क माध्यम के महत्त्व की भी पूर्ण जानकारी थी। उन्होंने नागपुर के श्री नरकेसरी मंडल से मराठी समाचार ‘तरुण भारत’ खरीदने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह समाचार–पत्र कुछ समय से बंद पड़ा था और इस पर 45000 रुपयों की देनदारी थी। बालासाहब ने यह पैसा बड़े प्रयत्नों से एकत्र किया और एक नया प्लेटफार्म ‘नरकेसरी प्रकाशन संस्था’ के नाम से खड़ा किया। इसने इस समाचार–पत्र को खरीद लिया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगे प्रतिबंध के दौरान वर्ष 1948-49 में हिंदी साप्ताहिक पत्रिका ‘युगधर्म’ को शुरू किया गया और इसे ‘नरकेसरी प्रकाशन संस्था’ के अंतर्गत ले लिया गया। बाद में अलग–अलग शहरों से ‘युगधर्म’ के विभिन्न संस्करण शुरू किए गए। यह बालासाहब की दूरदृष्टि ही थी कि उन्होंने ‘युगधर्म’ के विभिन्न संस्करणों के बारे में उस समय सोचा, जब भारत में अन्य किसी भी व्यावसायिक समाचार समूह ने इसके बारे में सोचा न था।
बालासाहब देवरस को खेती का भी पूर्ण ज्ञान था। उन्होंने और भाऊराव ने नागपुर तथा बालाघाट में भूमि विरासत में प्राप्त की थी। बालासाहब अक्सर खेत पर जाकर व्यक्तिगत रूप से वहाँ हो रही खेती का निरीक्षण करते थे। उन्हें ऐसा करना पसंद था और वे उन अवसरों की प्रतीक्षा करते थे। खेती से होने वाली आय को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कामों पर खर्च किया जाता था। बाद में दोनों भाइयों ने अपनी सारी जमीन बेच दी और प्राप्त राशि को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में लगा दिया।
वर्ष 1950 तक बालासाहब ने अथक श्रम किया। उन्हें 35 वर्ष की युवा अवस्था में स्वास्थ्य से संबंधित कई कठिनाइयों ने घेर लिया। गुरुजी को इससे स्पष्ट रूप से चिंता सताने लगी। बालासाहब ने कुछ समय के लिए आराम तथा पुनः स्वस्थ होने के बारे में निर्णय लिया। वर्ष 1950 से लेकर 1960 तक बालासाहब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की औपचारिक जिम्मेदारी से दूर रहे। जब वे पुनः स्वस्थ हो गए, तो उनसे ‘नागपुर प्रांत प्रचारक’ की जिम्मेदारी संभालने के लिए कहा गया। वर्ष 1963 में उन्हें ‘सहसरकार्यवाह’ (उप महासचिव) नियुक्त किया गया और मार्च 1965 में वे सरकार्यवाह नियुक्त हुए।
आगे वर्षों तक बालासाहब ने अथक रूप से यात्राएँ जारी रखीं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पूरे देश में बड़ी तेजी से अपना काम बढ़ाया। 1973 में 58 वर्ष की उम्र में वे संघ के सरसंघचालक बने। वे छुआछूत मुक्त समाज का निर्माण चाहते थे।
8 मई, 1974 के दिन वसंत व्याख्यानमाला पर अपने एक व्याख्यान में उन्होंने बड़ी स्पष्टता से कहा, “ हमें यह मानना ही पड़ेगा कि छुआछूत एक बड़ा अभिशाप है तथा हमें इसे दूर करने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए।” यह बयान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इतिहास में एक मील का पत्थर माना जाता है, क्योंकि इसने संस्था द्वारा जाति पर आधारित भेदभाव के विरुद्ध लड़ाई को नए जोश के साथ लड़ने की प्रेरणा दी।
उन्होंने अब्राहम लिंकन को उद्धृत करते हुए आगे कहा, “लिंकन ने कहा था, ‘अगर गुलामी अनैतिक या गलत नहीं है, तो फिर कुछ भी गलत नहीं है।’ हमें भी कहना चाहिए, ‘अगर छुआछूत गलत नहीं है तो फिर कुछ भी गलत नहीं है।’
वे ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व के व्यक्ति थे जिन्होंने 1993 में बिगड़ते स्वास्थ्य के कारण अपना पद स्वयं ही छोड़ दिया तथा उनका 1996 में निधन तब हुआ जब उन्होंने अपने ‘जनसंघ का कोई भारत का प्रधानमंत्री बने’, जैसे स्वप्न और संकल्प को अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बन जाने के रूप में साकार होते देख लिया। वह ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने स्वतंत्र भारत के बाद के सर्वश्रेष्ठ और सबसे बुरे क्षणों को न मात्र अपनी आँखों से देखा था बल्कि उनमें ऐसी निर्णायक भूमिका निभाई जिसने सामाजिक–राजनीतिक विमर्श और भारतीय राजनीति की धारा को ही बदल दिया। इंदिरा गांधी के नेतृत्व में 1971 युद्ध में भारत की पाकिस्तान पर विजय और 1975 का दुर्दांत आपातकाल; जनता पार्टी का उदय और पतन; पंजाब में चरमपंथ; दलितों का इस्लाम में सामूहिक कन्वर्जन; इंदिरा गांधी की दुखद हत्या; तुष्टीकरण की राजनीति का शिखर; पाकिस्तान प्रायोजित जेहादी आतंकवाद में वृद्धि; आपातकाल के विरुद्ध आंदोलन; बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ के विरुद्ध असम आंदोलन, आरक्षण विरोधी आंदोलन और राम जन्मभूमि आंदोलन तथा भाजपा का कांग्रेस के सशक्त विकल्प के रूप में उभार जैसी कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं हैं, जिनके प्रभावों से देश की एकता और अखंडता को बचाए रखने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।