ध्येय साधना से सारे काम सध जाते हैं – बिरसा मुंडा
जिस समय महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी सरकार के विरुद्ध लोगों को एकजुट कर रहे थे, लगभग उसी समय भारत में बिरसा मुंडा बर्बर अंग्रेजों के विरुद्ध एक महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ चुके थे। गांधी से लगभग छह साल छोटे बिरसा मुंडा का जीवन मात्र 25 साल का रहा। उनका संघर्ष काल भी सिर्फ पांच साल का रहा। लेकिन इस अवधि में उन्होंने जनजाति समाज की दशा और दिशा बदलकर नए सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया। उन्होंने अंग्रेजी कानूनों का खुलकर विरोध किया और अपने समाज को जड़ों से जुड़े रहने की प्रेरणा दी। ध्येय साधना से सारे काम सध जाते हैं, का मंत्र देने वाले बिरसा सामाजिक जागरण के पुरोधा और लोकनायक थे।
बिरसा मुंडा का जन्म 1875 में वृहस्पतिवार के दिन चलकद नामक गॉंव में हुआ था, इसी से उनका नाम बिरसा पड़ा। बिरसा का पूरा परिवार ईसाई बन चुका था। जिस के चलते उनकी शिक्षा दीक्षा चाइबासा के लूथरेन मिशनरी में हुई। मिशनरी में जनजाति संस्कृति का मजाक उड़ाया जाता था। ईसाई पादरी जनजाति समाज की जमीन पर मिशन का कब्जा करने के प्रयास करते थे। बिरसा ने इसे ईसाई मिशनरियों व अंग्रेजी शासकों की साजिश के रूप में पहचाना और विरोध किया, जिसके चलते मिशनरी से निकाल दिए गए। बिरसा चलकद आ गए। वे कहते थे साहब-साहब एक हैं, यानि सारे अंग्रेज चाहे वे शासक हों या पादरी सब एक जैसे हैं।
मिशनरीज का छल जानने के बाद उनका ईसाइयत से मोहभंग हो गया। वे वैष्णव पंथ से जुड़ गए और लगभग 5 वर्षों तक उन्होंने धर्म, नीति व दर्शन आदि का अध्ययन किया और धर्मोपदेश देना आरम्भ कर दिया। उन्होंने अपने गॉंव चलकद को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया और समाज में चेतना जागृति का अभियान शुरू किया। उस दौरान इलाके में अकाल और महामारी फैली हुई थी। उन्होंने अकाल पीड़ितों और बीमारों की सेवा के साथ-साथ मुंडा समाज की अज्ञानता और अंधविश्वास के विरुद्ध जेहाद छेड़ा। जनजाति समाज को अंग्रेजी शासन व मिशनरियों के विरुद्ध संगठित किया। धीरे धीरे लोग उनके अनुयायी बनने लगे। उन्हें ईश्वर का दूत माना जाने लगा और उनके अनुयायी ‘बिरसाइत’ कहलाने लगे।
बिरसा ने सरदार आंदोलन व 1895 के वन सम्बंधी बकाए की माफी के आंदोलन को तेज धार दी और जन जागृति हेतु चाइबासा तक की यात्रा की। अंग्रेजों ने समस्याओं का हल निकालने के बजाय आंदोलन को कुचलने के प्रयास किए और बिरसा को गिरफ्तार करने का कुचक्र रचा। पहले प्रयास में वे सफल नहीं हुए, बिरसाइतों ने उन्हें खदेड़ दिया। परंतु दूसरी बार अत्यंत सावधानी से रात के अंधेरे में बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें पहले रांची और फिर खूंटी ले जाया गया। वहॉं बिरसाइतों की इतनी भीड़ उमड़ी कि मुकदमे की कार्यवाही रोक, बिना सुनवाई ब्रिटिश शासन के खिलाफ लोगों को भड़काने का आरोप लगाते हुए जेल भेज दिया गया। अनेक बिरसाइतों को भी जेल हुई। सबको दो साल के सश्रम कारावास व 50 रुपए जुर्माने की सजा दी गई।
1897 में बिरसा मुंडा अनुयायियों समेत रिहा हुए। उस समय फिर चलकद इलाके में भीषण अकाल पड़ा था। बिरसा जेल से सीधे अकाल पीड़ितों के बीच पहुंचे और उनकी खूब सेवा की। इस बीच धार्मिक उपदेशों के साथ साथ लोगों को संगठित करने का काम भी उन्होंने जारी रखा। वे कहते थे ध्येय साधना से सारे काम सध जाते हैं। एक दिन ये जंगल फिर हमारे होंगे। लोगों का आत्मविश्वास लौटने लगा और वे अपने खोए राज्य को वापस पाने के लिए एकजुट होने लगे।
लगभग दो साल तक शांतिपूर्ण तरीके से नीतियां बनाने व संगठन का काम चला। 1899 में रांची जिले के खूंटी, तमाड़, सिंहभूम, चक्रधर आदि स्थानों पर जमींदारों को लगान न देने, जमीन को मालगुजारी से मुक्त रखने और जंगल के अधिकार वापस लेने आदि मांगों के साथ विद्रोह का बिगुल बजा दिया गया। ब्रिटिश सरकार ने फिर इसे कुचलने का प्रयास किया और इन इलाकों में भारी पुलिस बल तैनात कर दिया। आंदोलनकारियों को खूब प्रताड़ित किया गया और बिरसा का सुराग बताने वाले को जीवन पर्यंत गॉंव का लगान मुक्त पट्टा देने का लालच दिया गया। फिर भी अंग्रेजों को सफलता नहीं मिली। एक दिन बोम्बारी की पहाड़ी पर मुंडाओं की बैठक हुई जिसमें बिरसा ने रणनीति बदल गुरिल्ला युद्ध करने की घोषणा की। इस आंदोलन को उलगुलान नाम दिया गया।
मुंडा, उरांव, कोल के जत्थों ने तीर कमान, बर्छे, कुल्हाड़ियां हाथ में ले एक साथ कई जगह चर्च, मिशनरियों, सरकारी कार्यालयों पर हमले किए और आग लगा दी। पूरा छोटा नागपुर अंग्रेजो भारत छोड़ो के नारों से गूंज उठा। अंग्रेजी सेना की गोलियों से 200 से ज्यादा आंदोलनकारी मारे गए। लोगों को प्रताड़ित किया जाने लगा, घर लूटे गए, महिलाओं की इज्जत तार तार की गई, जमीनें कुर्क की गईं। बिरसा को पकड़वाने वाले को पॉंच सौ रुपए इनाम की घोषणा की गई। बिरसा रात में लोगों से मिलते, घने जंगलों में उन्हें प्रशिक्षित करते व अपने उपदेशों से लोगों को लक्ष्य से न भटकने के लिए प्रेरित करते। एक दिन दो सरदारों के आत्मसमर्पण की खबर आई, पता चला सरकार उन्हें सरकारी गवाह बनाएगी। 3 फरवरी 1900 को सेतेरा के जंगल में एक शिविर से रात में सोते हुए बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया। नकद इनाम की घोषणा कारगर सिद्ध हुई।
बिरसा व उनके साथियों पर मिशनरियों पर हमला, आगजनी व राजद्रोह जैसे 15 आरोपों के विरुद्ध मुकदमा चला। जेल में अंग्रेजों ने बिरसा को धीमा जहर दिया। जिससे 9 जून 1900 को उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन लोक गीतों और जनजातीय साहित्य में बिरसा मुंडा आज भी जीवित हैं। पूरा जनजातीय समाज उन्हें आज भी भगवान की तरह पूजता है।