क्या बेंगलुरु की हिंसा प्रायोजित थी?

बेंगलुरु की हिंसा क्या प्रायोजित थी?

प्रणय कुमार

बेंगलुरु की हिंसा क्या प्रायोजित थी?

ऐसे तथ्य सामने आए हैं जिनसे यह माना जा रहा है कि बेंगलुरु की हिंसा प्रायोजित थी। वहां के केजी हल्ली और डीजे हल्ली थाने में जो हुआ वह अराजकता की पराकाष्ठा थी। हिंसा और अराजकता की ऐसी बदरंग तस्वीरों के सुर्खियाँ बटोरने के बावजूद अनेक बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों का इस पर मौन साध जाना पाखंड से भरा दोहरा आचरण है।

मुस्लिम समुदाय को यह समझना होगा कि तुष्टिकरण की इन भयावह प्रवृत्तियों का सर्वाधिक नुक़सान उन्हें ही उठाना पड़ा है। धर्मांधता की अफ़ीम खिलाकर उन्हें ग़रीबी एवं बेरोज़गारी की अंधी सुरंग में भटकने के लिए छोड़ दिया जाता है।

किसी भी सभ्य समाज में मार-काट, उपद्रव, हिंसा, आगज़नी, अराजकता आदि के लिए कोई जगह नहीं होती। ऐसी दुष्प्रवृत्तियों को कदापि स्वीकार नहीं किया जा सकता। और भारत जैसे लोकतांत्रिक एवं सर्वसमावेशी देश में तो इसके लिए किंचित मात्र भी स्थान नहीं। भारत तो संवाद, सहयोग, सहजीविता का दूसरा नाम है।

किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जन-मन की भावनाओं-आकांक्षाओं, सहमति-विरोध को प्रकट करने के अनेकानेक वैध स्वरूप और माध्यम होते हैं। उसमें असहमति, आलोचना, अहिंसक आंदोलन आदि के लिए भी पर्याप्त स्थान होता है।  परंतु मार-काट, लूट-खसोट, हिंसा, आगज़नी और रक्तपात, चाहे वह किसी भी कारण या उद्देश्य से किया गया हो- असभ्य और अमानुषिक आचरण ही कहलाएगा। ऐसी घटनाएँ मनुष्यता को शर्मसार करती हैं। पहले दिल्ली और अब बेंगलुरु में हुई हिंसा एवं आगज़नी ने हमें यह सोचने पर विवश कर दिया है कि क्या हमारे समाज का एक वर्ग शताब्दियों पूर्व की क़बीलाई मानसिकता का परित्याग कर पाया है?

धर्म और आस्था को ठेस पहुँचाना बुरा है। पर आए दिन मज़हबी मान्यता के आहत होने के नाम पर सैकड़ों गाड़ियों को आग के हवाले कर देना, दुकानों और घरों में तोड़-फोड़ करना, पुलिस-प्रशासन पर हमला कर देना, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाना- क्या सभ्य एवं लोकतांत्रिक आचरण है? क्या इसे किसी भी सूरत में जायज़ ठहराया जा सकता है? क्या ज़िंदा लोगों के जान-माल से अधिक मूल्यवान-महत्त्वपूर्ण कुछ और हो सकता है? श्रद्धा और आस्था को इस देश से बेहतर क्या कोई और देश भी समझ सकता है? क्या व्यक्ति विशेष के कुकृत्य का प्रतिशोध संपूर्ण समाज, पुलिस-प्रशासन, व्यवस्था से लिया जा सकता है?

बात निकलेगी तो फिर दूर तक जाएगी। सवाल यह भी कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देने वाले क्या केवल कुछ चुनिंदा मुद्दों या समुदायों तक इसे सीमित रखना चाहते हैं? क्या लोकतंत्र में किसी को यह छूट दी जा सकती है कि वह पुलिस-प्रशासन से लेकर पूरे-के-पूरे शहर को बंधक बना ले? बेंगलुरु के केजी हल्ली और डीजे हल्ली थाने में जो हुआ वह अराजकता की पराकाष्ठा थी। हिंसा और अराजकता की ऐसी बदरंग तस्वीरों के सुर्खियाँ बटोरने के बावजूद तमाम बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों का इस पर मौन साध जाना पाखंड से भरा दोहरा आचरण है। आए दिन असहिष्णुता का राग अलापने वाले लोग ऐसे हिंसक दृश्यों में समुदाय-विशेष की एकपक्षीय संलिप्तता देखकर प्रायः मौन साध जाते हैं।क्या यह उपद्रवियों एवं दंगाइयों के मनोबल को बढ़ाना नहीं है? क्या यह उनके कुकृत्यों को मौन सहमति प्रदान करना नहीं है? क्या उन्हें निष्पक्ष एवं एकजुट होकर ऐसी घटनाओं का पुरजोर विरोध एवं निर्द्वन्द्व निंदा नहीं करनी चाहिए?

अराजकता के व्याकरण में विश्वास रखने वाला समूह चेहरा और वेष बदल-बदलकर देश को लहूलुहान कर रहा है और कथित धर्मनिरपेक्ष धड़ा चुप है। कभी दिल्ली, कभी कानपुर, कभी केरल तो कभी बेंगलुरु। स्थान अलग-अलग, पर हिंसा एवं उपद्रव की प्रवृत्ति, प्रकृति और पृष्ठभूमि एक जैसी।शाहीनबाग, जामिया, अलीगढ़, कानपुर, केरल या बेंगलुरु में हुई हिंसा-आगजनी किसी सुनियोजित साज़िश की ओर इशारा करती है। महज़ चंद घण्टों में बमों-असलहों-पत्थरों से लैस भारी भीड़ का जुटना बिना पूर्व तैयारी और व्यापक नेटवर्क के संभव नहीं।

यह एक प्रभावी, परिणामदायी एवं दंगों पर अंकुश लगाने वाला क़दम है कि पहले उत्तरप्रदेश और अब कर्नाटक सरकार इन दंगाइयों-बलवाइयों की संपत्ति ज़ब्त कर दंगे और आगज़नी से हुए आर्थिक नुक़सान की भरपाई करना चाह रही है। सरकार को बिना किसी दबाव में आए ऐसे दंगाइयों एवं उनके आकाओं को चिह्नित कर उनसे अनुमानित क्षति का पाई-पाई अविलंब वसूलना चाहिए। इतना ही नहीं दंगा एवं हिंसा में संलिप्त संगठनों पर त्वरित प्रतिबंध भी एक ठोस उपचार सिद्ध होगा।

विदित हो कि इन सभी घटनाओं में बार-बार इस्लामिक संगठन पीएफआई और उसके राजनीतिक चेहरे एसडीपीआई का नाम आ रहा है। केवल इतना ही नहीं इन दोनों संगठनों को सहयोग देने वालों का जाल भी देश-विदेश तक फैला हुआ है। इसमें राजनेताओं एवं रसूखदारों की संलिप्तता को भी स्वतंत्र जाँच का विषय बनाना चाहिए।

सनद रहे कि पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया वही संगठन है जो शाहीनबाग के प्रदर्शनकारियों को फंडिंग कर रहा था। उस समय लगभग 15 प्रदर्शनकारियों के खातों में 1 करोड़ से अधिक की राशि इसी संगठन के द्वारा जमा कराई गई थी।बल्कि इसी कट्टरपंथी संगठन ने तब दिल्ली दंगों के मुख्य अभियुक्त ताहिर हुसैन का बचाव करते हुए कहा था कि ”उसकी कोई ग़लती नहीं थी, वह तो राजनीति का शिकार बेचारा इंसान है।” पुलिस की छानबीन से यह तथ्य सामने आया है कि नागरिकता क़ानून के विरोध के नाम पर इस संगठन ने देश भर में हिंसक दंगे कराने की साज़िश रची थी।

उत्तरप्रदेश समेत देश के सात राज्यों में यह संगठन लगभग 2009 से ही सक्रिय है। इसके कई पदाधिकारी पूर्व में सिमी जैसे प्रतिबंधित कट्टरपंथी संगठन के सदस्य रह चुके हैं।बल्कि एनआइए की एक रिपोर्ट के अनुसार इस संगठन की आतंकवादी घटनाओं में भी संदिग्ध भूमिका रही है। इसने घोषित रूप से स्वयं को ग़रीबों-पिछड़ों के लिए काम करने वाला संगठन तो बताया है, पर इसका असली मक़सद धर्मांतरण एवं धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा देना रहा है। और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (SDPI) इसकी राजनीतिक शाखा है।

परंतु इससे भी आश्चर्यजनक यह है कि इन दोनों संगठनों और इनकी देश-विरोधी गतिविधियों पर अधिकांश राजनीतिक दलों ने मौन साध रखा है। हद तो यह है कि दलितों के हितों की पैरोकारी का दावा करने वाले तमाम राजनीतिक दल बेंगलुरु-हिंसा पर अपना मुँह तक खोलने को तैयार नहीं। एक दलित विधायक के आवास पर उपद्रवियों-दंगाइयों द्वारा किए गए तोड़-फोड़ एवं आगज़नी का सामान्य विरोध करने तक का वे साहस नहीं जुटा पाए। इसे ही कहते हैं घोर तुष्टिकरण की राजनीति।

विरोध तो दूर, पीएफआई जैसे कट्टर इस्लामिक संगठन का केस दिग्गज़ काँग्रेसी नेता कपिल सिब्बल लड़ते रहे हैं। हामिद अंसारी इस संगठन के सार्वजनिक जलसे में शिरकत कर चुके हैं। आप के तमाम नेताओं का पीएफआई से प्रत्यक्ष-परोक्ष संबंध उजागर हो चुका है। वोट-बैंक की ख़ातिर आख़िर कब तक देश को सांप्रदायिकता और दंगे की आग में झोंकने का षड्यंत्र चलता रहेगा? जैसे काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ाई जा सकती वैसे ही तुष्टिकरण की फ़सल भी बार-बार नहीं काटी जा सकती। तुष्टिकरण की विभाजनकारी राजनीति पर अविलंब विराम अत्यावश्यक है।

मुस्लिम समुदाय को यह समझना होगा कि तुष्टिकरण की इन भयावह प्रवृत्तियों का सर्वाधिक नुक़सान उन्हें ही उठाना पड़ा है। कट्टरता की अफ़ीम खिलाकर उन्हें ग़रीबी एवं बेरोज़गारी की अंधी सुरंग में भटकने के लिए छोड़ दिया जाता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि कोई भी समुदाय भीड़ की तरह सोचना छोड़कर जागरूक मतदाता वर्ग की तरह सोचे और जिम्मेदार नागरिक की भाँति देश के विकास में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करे। क़ानून और संविधान को अपना काम करने देना चाहिए और समाज के सभी वर्गों-समुदायों को एकजुट होकर राष्ट्रीय विकास एवं सौहार्द्र में अपना योगदान देना चाहिए। यही बदलते भारत की मुकम्मल एवं सच्ची तस्वीर होगी।

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