बेचारगी का विमर्श और द केरल स्टोरी
अरुण सिंह
बेचारगी का विमर्श और द केरल स्टोरी
पूरे देश में फिल्म द केरल स्टोरी की चर्चा है। सिनेमा हॉल हाउसफुल जा रहे हैं। विमर्श की दृष्टि से देखा जाए तो यह पूरी तरह समृद्ध फिल्म है। कथानक को महीन ताने बाने से बुना गया है। कहां क्या दिखाना है, यह ढंग से तैयार किया गया है। दशकों से स्थापित एक झूठे विमर्श के किले की दीवारों को कंपित करना आसान कार्य नहीं है।
बेचारगी की कहानियों से तो हिंदी सिनेमा पहले से ही भरा पड़ा है। हीरो और विलेन की इमेज का खेल रचा जाता रहा है। चाहे वह “शौर्य” का कैप्टन जावेद खान हो, हाल ही का हंसल मेहता का “फ़राज़” हो। खेल वही है। इस्लाम बेचारा है, प्रताड़ित है और हिंदू क्रूर है। बेचारा होकर भी वह हिंदू का रक्षक है। यह केवल एक सिनेमा मात्र नहीं रहा है। इतिहास बनाकर ठूंसा गया है, ताकि हमारी पीढ़ियां यही ढोती रहें, उस “बेचारगी” पर ग़ालिब वाले अश्क बहाती रहें।
कितनी ही शालिनी उन्नीकृष्णन बलि हो गईं इस बेचारगी के विमर्श में। चीखें दबी रह गईं। न कभी इतिहास ने दिखाया, न ही साहित्य और सिनेमा ने। सिनेमा की दुकान इसी विमर्श से चली। आज भी चल ही रही है।
सिनेमा का बाज़ार पूंजी के लिए ही चलता है। पर इस बेचारगी का भंजन करने में कितने निर्माता अपनी पूंजी लगाते हैं और भारतीय सिनेमा को सही दिशा देते हैं? वह दिशा जो दशकों से राह ताक रही है! “केरल स्टोरी” अपनी कहानी कहती है। आज के केरल की कहानी। और क्षेत्र व और हिंदू समुदाय भी अपनी कहानी कहें। जिस ढंग से सुदीप्तो सेन ने कही है, विवेक अग्निहोत्री ने कही है, उस ढंग से कहें। एक उल्लेखनीय पहलू जो यह फिल्म उजागर करती है : साम्यवादी, जो भारत में आधुनिक और क्रांतिकारी विचारों का दम भरते हैं, इनके चंगुल से अछूते नहीं हैं; जो हिजाब और बुर्का पहनने में गर्व महसूस करते हैं और हिंदू जीवन पद्धतियों से जिन्हें घिन आती है, वे सीरिया के रेगिस्तान में काट दिए गए हैं अथवा भारत में ही जिन्हें जहन्नुम अता फरमा दिया है उनके अ ल्लाह ने।