मीनू गेरा भसीन

बालिका सप्ताह मनाने के लिए विद्यालय में रूपरेखा तैयार की जा रही थी। प्रधानाचार्य जी ने बच्चों के घर जाकर अभिभावकों से संपर्क करने के लिए कहा। अतः मैं अपनी सहकर्मी अध्यापिका के साथ घर घर जाकर बालिकाओं की शिक्षा आदि के विषय में चर्चा करने के लिए निकल पड़ी। गांव की तंग गलियों से गुजरते हुए हम प्रत्येक घर में बालिका शिक्षा के महत्व के विषय में बताते चल रहे थे। एक घर के बाहर एक बुजुर्ग हुक्का पी रहे थे। हमें देखकर प्रसन्न होते हुए बोले, मास्टरनी जी आज कैसे आईं? हमने उन्हें बालिका सप्ताह के विषय में जानकारी दी। प्रत्येक दिवस होने वाले कार्यक्रमों के बारे में बताया। वे हुक्का गुड़गुड़ा कर हंसते हुए बोले,म्हारे घर मां तो रोज ही बालिका दिवस मने है। दरअसल उनकी 6 पोतियां और एक पोता हमारे स्कूल में पढ़ते हैं। हमारी बातचीत सुनकर उनकी दोनों बहुएँ भी दरवाजे की ओट में घूंघट निकाले आ गई थीं। वह बोले – अब कै देखो बालक दिवस मन जाए तो…। उनकी एक बहू जो गर्भवती थी सकुचा कर घर के अंदर चली गयी। मैंने उन्हें किताबी ज्ञान देते हुए कहा “अंकल जी लड़के और लड़की में क्या भेद है? मैं अपनी छोरी नै रात में खेतन में पानी देवे भेज सकूं का मास्टरनी जी – वे बोले। मेरे पास उनकी बात का कोई जवाब नहीं था। एक पोता होय जाय तौ वंश तर जायगो… वे बोले जा रहे थे। तभी पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाली गरिमा बोल पड़ी, बाबा आप हमैं घर से बाहर तौ निकलन ना देव खेतन पर कैसे जायंगे …सब हंसने लगे। मैं सोच में पड़ गई.. गरिमा सही है या उसके बाबा? समाज में कुत्सित मानसिकता के कुछ लोगों के  कारण न जाने कितनी गरिमाओं के पॉंवों में जाने अनजाने बेड़ियॉं पड़ ही जाती हैं।

Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *