भगतसिंह की चिता दो बार जलाई गई थी….?
28 सितम्बर – भगतसिंह जयंती
‘आदमी को मारा जा सकता है उसके विचारों को नहीं। बड़े बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं और बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज जरूरी है।’ बम फेंकने के बाद भगतसिंह द्वारा फेंके गए पर्चों में यह लिखा था। भगतसिंह की इसी आक्रामकता व लोकप्रियता से अंग्रेज डरते थे।
दिन था 23 मार्च 1931 का, कहते हैं 1 साल 350 दिन जेल में रहने के बावजूद, भगतसिंह का वजन बढ़ गया था। खुशी के कारण। खुशी इस बात की कि अपने देश के लिए बलिदान होने जा रहे थे। लेकिन जब इन्हें फांसी देना तय हुआ तो जेल के सारे कैदी रो रहे थे। इसी दिन भगत सिंह के साथ ही राजगुरु और सुखदेव की फांसी भी तय थी। पूरे देश में प्रदर्शन हो रहे थे। लाहौर में भारी भीड़ इकठ्ठा होने लगी थी। अंग्रेजों को इस बात का अंदेशा हो गया कि कहीं कुछ बवाल न हो जाए। इस कारण उन्हें तय दिन से एक दिन पहले ही फांसी पर लटका दिया।
वास्तव में इनकी फांसी का दिन 24 मार्च तय किया गया था। सतलज नदी के किनारे गुप-चुप तरीके से इनके शवों को ले जाया गया। कहते हैं शवों के टुकड़े किए गए और बेहद अपमानजनक तरीके से उन्हें नदी किनारे जलाया जाने लगा। आग देख कर वहां भी हजारों की संख्या में लोग इकट्ठे हो गए जिनमें लाला लाजपत राय की बेटी पार्वती और भगतसिंह की बहन बीबी अमर कौर भी थीं। इतनी भीड़ देख कर अंग्रेज उनके शवों को अधजला छोड़कर वहाँ से भाग गए। उसके बाद देशवासियों ने इन वीर सेनानियों के शवों को अपनी निगरानी में लिया और लाहौर ले गए। वहॉं तीनों शहीदों के लिए तीन अर्थियां बनाई गईं, शव यात्रा निकाली गई और हजारों लोगों की भीड़ के सामने सम्मान पूर्वक इनका दाह संस्कार किया गया। इसीलिए कहा जाता है कि भगतसिंह की चिता को दो बार अग्नि दी गई थी। बताया जाता है कि इस सच्ची घटना का वर्णन सुखदेव के भाई मथुरा दास ने अपनी पुस्तक ‘मेरे भाई सुखदेव’ में किया है।