भगतसिंह और वीर सावरकर : एक दूजे की कलम से

भगतसिंह और वीर सावरकर : एक दूजे की कलम से

भगतसिंह और वीर सावरकर : एक दूजे की कलम सेभगतसिंह और वीर सावरकर : एक दूजे की कलम से

विश्वप्रेमी वह वीर है जिसे भीषण विप्लववादी, कट्टर अराजकतावादी कहने में हम लोग तनिक भी लज्जा नहीं समझतेवही वीर सावरकर विश्व प्रेम की तरंग में आकर घास पर चलतेचलते रुक जाते कि कोमल घास पैरों तले मसली जायेगी।

सावरकर के बारे में उपरोक्त उद्गार अमर बलिदानी सरदार भगत सिंह के हैं।  भगत सिंह काविश्व प्रेम” नामक लेख 15 और 22 नवंबर, 1924 कोमतवालाके अंक में दो बार प्रकाशित हो चुका है। उपरोक्त उद्गार उसी लेख के अंश हैं। “हमारा अंतिम लक्ष्य विश्व बंधुत्व है राष्ट्र प्रेम वहां तक पहुंचने की एक सीढ़ी मात्र है“- ऐसा सावरकर ने कई बार कहा है। यह लेख बताता है कि भगत सिंह को यह न केवल ज्ञात था, बल्कि स्वीकार्य भी था।  सावरकर के बाहर से सख्त लेकिन अंदर से अत्यंत कोमल हृदय का ऐसा वर्णन शायद ही कहीं और देखा गया हो

विशेष बात यह है कि, सावरकर उन दिनों राजनीति में भाग नहीं लेने की शर्त पर रत्नागिरी में नजरबंद थे सावरकर के इस शर्त को स्वीकारने के निर्णय पर भगत ने आलोचना का एक शब्द भी नहीं लिखा है हम कह सकते हैं कि ये दो क्रांतिकारी एक दूसरे के हृदय व मस्तिष्क को भली भांति समझते थे।

फिर मार्च 1928 में, कीर्ति में, मदनलाल ढींगरा और सावरकर के बारे में लिखते समय भगत सिंह कहते हैं कि स्वदेशी आंदोलन का असर इंग्लैंड तक भी पहुंचा और जाते ही सावरकर नेइंडियन हाउसनामक सभा खोल दी मदनलाल भी उसके सदस्य बने

….एक दिन रात को श्री सावरकर और मदनलाल ढींगरा बहुत देर तक बातचीत करते रहे। अपनी जान तक दे देने का साहस दिखाने की परीक्षा में मदनलाल को जमीन पर हाथ रखने के लिए कहकर सावरकर ने हाथ पर सुआ गाड़ दिया, लेकिन पंजाबी वीर ने आह तक नही भरी। सुआ निकाल लिया गया दोनों की आँखों में आँसू भर आये दोनों एकदूसरे के गले लग गए आहा, वह समय कैसा सुंदर था वे अश्रु कितने अमूल्य और अलभ्य थे! वह मिलाप कितना सुंदर कितना महिमामय था! हम दुनियादार क्या जानें, मौत के विचार तक से डरने वाले हम कायर लोग क्या जानें की देश की खातिर कौम के लिए प्राण दे देने वाले ऐसे लोग कितने ऊंचे, कितने पवित्र और कितने पूजनीय होते हैं।

अगले दिन से फिर ढींगरा इंडियन हाउस, सावरकर वाली सभा में नहीं गये और  सर कर्नल वायली ..द्वारा चलायी गयी  हिंदुस्तानी विद्यार्थियों की सभा में जा शामिल हुए यह देखकर, इंडियन हाउस वाले लड़कों को बड़ा जोश आया और उन्होंने उन्हें देशघातक, देशद्रोही तक कहना शुरू कर दियालेकिन उनका गुस्सा भी तो सावरकर ने यह कहकर शांत किया कि आख़िर उन्होंने हमारी सभा को चलाने के लिए भी भरपूर प्रयत्न किया था  और उनकी मेहनत के फलस्वरूप ही हमारी सभा चल रही है, इसलिए हमें उनका धन्यवाद करना चाहिए। खैर! कुछ दिन तो चुपचाप गुजर गए

1 जुलाई, 1909 को इंपीरियल इंस्टीट्यूट के जहाँगीर हॉल में एक बैठक थी कर्जन वायली भी वहां गया हुआ था वह और दो लोगों से बात कर रहा था कि अचानक ढींगरा ने पिस्तौल निकालकर. . उसे सदा की नींद सुला दिया। फिर कुछ संघर्ष के बाद वे पकड़े गए बस फिर क्या था, दुनिया भर में सनसनी मच गई सब लोग उन्हें जीभरकर गालियां देने लगे उनके पिता ने पंजाब से तार भेजकर कहा कि ऐसे बागी, विद्रोही और हत्यारे आदमी को मैं अपना पुत्र मानने से इन्कार करता हूं भारतवासियों ने बड़ी बैठकें कीं बड़े बड़े भाषण हुए  बड़ेबड़े प्रस्ताव पारित हुए  सब उनकी निन्दा में पर उस समय भी सावरकर थे, जिन्होंने खुल्लमखुल्ला उनका पक्ष लिया पहले तो उनके विरुद्ध प्रस्ताव पास होने देने के लिए यह तर्क प्रस्तुत किया कि अभी तक उन पर  मुकदमा चल रहा है और हम उन्हें दोषी नहीं कह सकते आखिर में जब इस प्रस्ताव पर वोट लेने लगे तो सभा के अध्यक्ष बिपिनचंद्र पाल यह कह ही रहे थे कि क्या यह सभी की सर्वसम्मति से पास समझा जाये, तो सावरकर साहब  उठ खड़े हुए और अपना व्याख्यान शुरू कर दिया इतने में ही एक अंग्रेज ने उनके मुँह पर घूँसा मार दिया और कहा, “देखोअंग्रेजी मुट्ठी कितनी सीधी जाती है!” एक हिंदुस्तानी नौजवान ने उस अंग्रेज के सिर पर एक लाठी जड़ दी, और कहा, “देखा, यारों का हिंदुस्तानी डंडा कैसे ठिकाने पर पड़ता है! “शोर मच गया  बैठक बीच में ही छूट गयी प्रस्ताव भी ऐसे ही रह गया

1924 में भगत सिंह ने पंजाबी हिंदी साहित्य सम्मेलन के लिए एक लेख लिखा वे कहते हैं, “… मुसलमानों में भारतीयता का सर्वथा अभाव है, इसीलिए वे समस्त भारत में भारतीयता का महत्व समझकर, अरबी लिपि और फ़ारसी भाषा का प्रचार करना चाहते हैं समस्त भारत की एक भाषा और वह भी हिंदी होने का महत्व उन्हें समझ में नही आता, इसलिए वे अपनी उर्दू की रट लगाते रहते हैं।बाद में उसी लेख में भगतसिंह कहते हैं, “हम तो चाहते हैं कि मुसलमान भाई भी अपने मजहब पर पक्के रहते हुए ठीक वैसे ही भारतीय बन जायें जैसे कि कमाल टर्क (तुर्क) हैं। भारतोद्धार तभी हो सकेगा। हमें भाषा आदि के प्रश्नों को मार्मिक (धार्मिक) समस्या बनाकर खूब विशाल दृष्टिकोण से देखना चाहिए” भगत सिंह द्वारा प्रस्तुत ये विचार केवल सावरकर के विचारों के अनुरूप हैं, बल्कि श्री गुरुजी केविचारधनके अनुरूप भी हैं

यह साबित हो गया है कि भगत सिंह ने सावरकर की पुस्तक ‘1857 का स्वातंत्र्य समरका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया था और क्रांतिकारियों में इसका प्रचार किया था कुछ लेखकों ने दावा किया है कि सावरकर और भगत सिंह रत्नागिरी में मिले थे, लेकिन इसकी कोई निर्विवाद पुष्टि नहीं हो पायी

गांधीजी के अनुयायी वाई डी फड़के के अनुसार, भगत सिंह ने सावरकर की “1857 का स्वातंत्र्य समरसे प्रेरणा पाई, लेकिन सावरकर की “हिंदूपदपादशाहीपुस्तक को नजरअंदाज कर दिया

किंतु अब यह बात भी सामने आई है कि भगतसिंह ने हिंदूपदपादशाही से भी प्रेरणा ली थी उन्होंने अपनी जेल डायरी में कई लेखकों के उद्धरण नोट किए हैं उसमें केवल सात भारतीय लेखक हैं, जिनमें से एकमात्र सावरकर हैं, जिनके एक से अधिक उद्धरण भगत सिंह ने अपनी डायरी में शामिल किए हैं और उनमें से छह के छह उद्धरण एक ही पुस्तक, हिंदूपदपादशाही से हैं। 

वे इस प्रकार हैं:

1उस बलिदान की सराहना केवल तभी की जाती है जब बलिदान वास्तविक हो या सफलता के लिए अनिवार्य रूप से अनिवार्य हो लेकिन जो बलिदान अंततः सफलता की ओर नहीं ले जाता है, वह आत्मघाती है और इसलिए मराठा युद्धनीति  में उसका कोई स्थान नहीं था। (हिंदूपदपादशाहीपृष्ठ 257)

2) इन मराठों से लड़ते हुए हवा से लड़ रहे हैं, पानी पर पानी खींच रहे हैं[हिंदूपदशाही, 258 ]

3) वीरता के कार्य किए बिना, वीरता का प्रदर्शन किए बिना, साहस के साथ इतिहास बनाये बिना इतिहास लिखना हमारे वक्त का एक बुरा सपना है वीरता को वास्तविकता बनाने का अवसर मिलना हमारे लिए अफ़सोस की बात है [हिंदूपदपादशाही, 265—66]

4) राजनीतिक दासता को कभी भी आसानी से उखाड़ फेंका जा सकता है लेकिन सांस्कृतिक वर्चस्व के बंधनों को तोड़ना मुश्किल है। [हिंदूपदपादशाही, 272—73]

5) “धर्मांतरित होने के बजाय मार डाले जाओउस समय हिंदुओं के बीच यही पुकार प्रचलित थी लेकिन रामदास ने खड़े होकर कहा, “नहीं, यह सही नहीं है धर्मांतरित होने के बजाय मार डाले जाओ —- यह काफी अच्छा है लेकिन उससे भी बेहतर है मारे जायें और ही धर्मांतरण किया जाएबल्कि, स्वयं हिंसक ताकतों को मार दें और अगर मौत आनी है तो मारते मारते  जाए, लेकिन जीत के लिए लड़ते हुए जाएं। (हिंदूपदपादशाही . 181-82)

भगत सिंह द्वारा प्रस्तुत समाजवादी हिंदुस्तान के विज्ञानआधारित राष्ट्र का चित्रण सावरकर के विज्ञाननिष्ठ हिंदुस्तान के बहुत निकट है

पूरे 750 पन्नों के दस्तावेजों में भगतसिंह ने सावरकर की, उनके हिंदुत्व की, या उनकी शर्तें मानने की आलोचना कहीं भी नही की है।

सावरकर और भगत सिंह दोनों ने काकोरी कांड पर लेख लिखे हैं, दोनों के पहले लेखों में अशफाक का उल्लेख नहीं है सावरकर ने अशफाक पर एक अन्य लेख लिखा है तो भगतसिंह ने दूसरे लेख में अशफाक का उल्लेख किया है  मदनलाल, अंबाप्रसाद, बालमुकुंद, सचिंद्रनाथ, कुका ये क्रांतिकारी सावरकर तथा भगतसिंह दोनों के लेखों के विषय हैं

सावरकर ने 20 दिसंबर, 1928 को लाला लाजपतराय पर हुए हमले की निंदा करते हुए एक लेख लिखा है हमले में लगी चोटों से लालाजी का निधन हुआ उसका बदला लेने के लिए भगतसिंह और साथियों द्वारा सॉंडर्स को मार दिया गया महात्मा गांधी ने इसे कायराना कृत्य बतलाया। इस पर व्यंग्य कसते हुए सावरकर ने 19 जनवरी 1929 को एक लेख लिखा सावरकर ने अपने साहित्य में भगतसिंह और साथियों का अनेक बार गरिमापूर्ण उल्लेख किया है सावरकर के श्रद्धानंद में प्रकाशित  “आतंक के असली अर्थनामक लेख भगतसिंह और साथियों द्वारा मई 1928 मेंकीर्तिमें प्रकाशित किया गया। भगतसिंह और साथियों के समर्थन में वीर सावरकर द्वारा लिखित और एक लेख  का शीर्षक थासशस्त्र लेकिन अत्याचारी नहीं बम का दर्शन नामक ऐसा ही लेख भगत सिंह और वोरा ने 26 जनवरी, 1930 को प्रकाशित किया था फड़के का कहना है कि ऐसे लेखों से सावरकर नौजवानों के दिलों में चिंगारियां भड़का रहे थे 8 अक्टूबर, 1930 को सावरकर के सहयोगी पृथ्वी सिंह आजाद और भगत सिंह की सहयोगी दुर्गा भाभी ने मुंबई में एक सार्जंट पर गोली चलाई। इसके परिणामस्वरूप सावरकर के नजरबंदी का कार्यकाल बढ़ा 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई

उस समय सावरकर ने निम्नलिखित कविता की रचना की:

हा, भगत सिंह, हाय हा!

चढ गया फांसी पर तू वीर हमारे लिये हाय हा!

राजगुरु तू, हाय हा!

वीर कुमार, राष्ट्र समर में हुआ शहीद

हाय हा! जय जय हा!

आज की यह हाय कल जीतेगी जीत को

राजमुकुट लायेगी घर पर

उससे पहला मृत्यू का मुकुट पहन लिया

हम लेंगे हथियार वो हाथ में

जो तुमने पकड़ा था दुश्मन को मारते मारते!

अधम तो कौन है?

तेरे इरादों की बेजोड़ पवित्रता को जो वंदन ना करें

जाओ, शहीद!

गवाही से शपथ लेते है हम अभी बाकी है

शस्त्रसंगर चंड है

लडके लेंगे आझादी

हाय भगत सिंह, हाय हा!

रत्नागिरि में सावरकर के घर पर हमेशा भगवा झंडा फहराया जाता था उनके घर का पता इसी से  पहचाना जा सकता था  हालांकि, 26 मार्च को, सावरकर के घर पर एक काले झंडे को प्रदर्शित किया गया था उसे समझना सरकार के लिये कठिन नहीं था इस कविता को गाते हुये रत्नागिरी के बच्चों ने 24 मार्च को जुलूस निकाला। उस समय सावरकर वरवाडे नामक गांव गये थे। वे 25 मार्च को लौटे और काला झंडा फहराया। भगतसिंह की याद दिलाने वाला एक लेख सावरकर ने चार महीने के भीतर ही प्रकाशित किया। बहाना था नेपाली आंदोलन का

भगतसिंह के अन्य साथी शिव वर्मा एवम् वोरा आदि साथियों ने भी सावरकर के क्रांतिकारियों पर प्रभाव के बारे में लिखा है।

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