धर्म व संस्कृति के रक्षक भगवान बिरसा मुंडा
भगवान बिरसा मुंडा बलिदान दिवस
धर्म व संस्कृति के रक्षक भगवान बिरसा मुंडा
आज धर्म व संस्कृति के रक्षक एवं जनजाति अस्मिता के महानायक भगवान बिरसा मुंडा का बलिदान दिवस है। जनजाति संस्कृति, स्वाभिमान और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए बिरसा के संघर्ष ने अंग्रेजी राज को हिला कर रख दिया था। अंग्रेज 25 वर्ष के इस युवा से, जिन्हें लोग भगवान मानते थे, इतना डर गए कि उन्हें षड्यंत्रपूर्वक विष दे दिया।
बिरसा का आह्वान “अंग्रेज शासन और गोरे विदेशी पादरी– फादर मिलकर इस देश को भ्रष्ट करना चाहते हैं। दोनों की टोपियां एक हैं, दोनों के लक्ष्य एक हैं। वे हमारे देश को गुलाम बनाना चाहते हैं। अबुआ दिशोम, अबुआ राज यानि अपना देश, अपनी माटी के लिए हम लड़ते रहेंगे” युवाओं में जोश भर देता था और अंग्रेजों की मुट्ठियां भिंच जाती थीं। वे उन्हें मारने के नए षड्यंत्रों में लग जाते थे।
जनजातीय समाज को नई दिशा देने वाले ऐसे क्रांतिकारी बिरसा मुंडा का जन्म रांची जिले के उलिहातु गांव में 15 नवम्बर 1875 को हुआ था। पिता सुगना मुंडा और माता करमी की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। वे मजदूरी करके परिवार का लालन पालन करते थे। उनके दो भाई एवं दो बहनें भी थीं। बिरसा का बचपन एक सामान्य वनवासी बालक की तरह बीता। माता–पिता ने उन्हें पढ़ने के लिए मामा के घर भेज दिया। जहां बिरसा ने भेड़–बकरियां चराने के साथ–साथ शिक्षक जयपाल नाग से अक्षर ज्ञान और गणित की प्रारम्भिक शिक्षा पाई।
बिरसा ने बुर्जू मिशन स्कूल में प्राथमिक शिक्षा पाई। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने चाईबासा के लूथरेन मिशन स्कूल में प्रवेश लिया, जहाँ बिरसा की शिखा काट दी गई। इससे उनके मन को बड़ा आघात लगा। वहां उन्होंने अपने धर्म पर संकट अनुभव किया। बिरसा ने ईसाइयों के षड्यंत्र को भाँप लिया और वे धर्म रक्षा का संकल्प लेकर गांव लौटे। 1891 में चाईबासा से लौटने के बाद बिरसा बंदगांव आ गए। यहां लोग उनके अनुयायी बनने लगे। एक जन आंदोलन खड़ा हो गया। बिरसा ने जनजातीय युवकों का एक संगठन बनाया। सामाजिक सुधारों के साथ–साथ राजनीतिक शोषण के विरुद्ध लोगों को जागरूक किया।
उन्होंने रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथों का अध्ययन किया। इन ग्रंथों का उनके मन पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा। धीरे धीरे एक आध्यात्मिक महापुरुष के रूप में उनकी पहचान बनने लगी। बिरसाइयत नाम से उन्होंने एक आध्यात्मिक आंदोलन की शुरुआत की। सर्व समाज के हजारों लोग इस आंदोलन में शामिल होने लगे। शराब मत पियो, चोरी मत करो, गो हत्या मत करो, पवित्र यज्ञोपवीत पहनो, तुलसी का पौधा लगाओ जैसी उनकी छोटी–छोटी बातों से लोगों में एक आध्यात्मिक चेतना जागृत होने लगी।
बिरसा की इस बढ़ती शक्ति का ब्रिटिश सरकार में एक डर पैदा हुआ। उन्होंने छल कपट से बिरसा मुंडा को हजारीबाग की जेल में कैद कर लिया। लेकिन वह उन्हें अधिक समय तक जेल में रख नहीं पाए। जेल से छूटने के बाद तो बिरसा ने मानो अंग्रेज सरकार को उखाड़ फेंकने का निश्चय ही कर लिया था। जल, जमीन और जंगल के अधिकारों के लिए उन्होंने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध एक प्रखर आंदोलन शुरू किया। 9 जनवरी 1900 को डोम्बारी पहाड़ी पर एक विशाल जनसभा का आयोजन किया गया। इस आंदोलन को कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने स्ट्रीटफील्ड को नियुक्त किया। उसने आंदोलनकारियों पर अंधाधुंध गोलियां चलवाईं। इधर बंदूकें थीं तो उधर पत्थर और धनुष–बाण, आंदोलनकारियों के खून से पहाड़ी रंग गई। अंतत: अंग्रेजों ने डोम्बारी पहाड़ी पर कब्जा कर लिया। लेकिन बिरसा उनके हाथ नहीं लगे। अंग्रेजों ने बिरसा को पकड़वाने वाले को इनाम देने की घोषणा की। दुर्योग से दो गद्दार अंग्रेजों से जा मिले। 3 फरवरी को भेदियों की गद्दारी से बंदगांव में उन्हें पकड़ लिया गया और हथकड़ी पहनाकर रांची जेल लाया गया। 9 जून 1900 के दिन स्वतंत्रता के इस महानायक की रांची जेल में मृत्यु हो गई। जेल रिकॉर्ड में बताया गया कि उन्हें हैजा हो गया था, लेकिन जेल में उनके साथियों की धारणा थी कि उन्हें विष देकर मारा गया। उनके पार्थिव शरीर को चुपचाप एक नाले के किनारे जला दिया गया।
इस अंग्रेजी षड्यंत्र ने भगवान बिरसा मुंडा की जान तो ले ली, लेकिन स्वधर्म, संस्कृति और स्वदेश की रक्षा की जो ज्योति उन्होंने प्रज्वलित की थी, वह और तेज हो गई। उसको सहारा बना कर सैकड़ों क्रांतिकारियों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। उनके कार्य हमें आज भी अपने धर्म व संस्कृति की रक्षा के प्रति जागरूक रहने का संदेश देते हैं।