भगवान राम के जीवन में जनजाति समाज

भगवान राम के जीवन में जनजाति समाज

प्रमोद भार्गव

भगवान राम के जीवन में जनजाति समाजभगवान राम के जीवन में जनजाति समाज

प्राचीन भारतीय संस्कृत ग्रंथों में ‘रामायण’ जनमानस में सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ है। रामायण-कालीन मूल्यों ने भारतीय जन-मानस को सबसे ज्यादा उद्वेलित किया है। इस जन-समुदाय में रामकथाओं में उल्लेखित वे सब जनजातियां भी सम्मिलित हैं, जिन्हें वानर, भालू, गिद्ध, गरुड़ भील, कोल, नाग इत्यादि कहा गया है। ये वन-प्रांतों में रहने वाले ऐसे विलक्षण समुदाय थे, जिनकी निर्भरता प्रकृति पर अवलंबित थी। उस कालखंड में इनमें से अधिकांश समूह वृक्षों की शाखाओं, पर्वतों की गुफाओं या फिर पर्वत शिखरों की कंदराओं में रहते थे। ये अर्धनग्न अवस्था में रहते थे और रक्षा के लिए पत्थर और लकड़ियों का प्रयोग करते थे। भगवान राम ने अपने वनवास के दौर में इनके सहयोग से ही लंका पर विजय प्राप्त की।

​रामायण में जनजातियों की महिमा का प्रदर्शन बालकांड से ही आरंभ हो जाता है। राजा दशरथ के साढ़ू अंग देश के राजा लोमपाद थे। संतान नहीं होने पर दशरथ ने पत्नी कौशल्या से जन्मी पुत्री शांता बाल्यावस्था में ही लोमपाद को गोद दे दी। अंगदेश में जब भयंकर सूखा पड़ा, तब जनजाति समाज के ऋषि ऋश्यश्रंग को बुलाया गया। ऋषि विभाण्डक के पुत्र श्रृंगी ने अंगदेश पहुंचकर यज्ञ के माध्यम से वर्षा के उपाय किए और अंततः मूसलाधार बारिश हुई। इससे प्रसन्न होकर लोमपाद ने अपनी दत्तक पुत्री शांता का विवाह श्रृंगी से कर दिया। कालांतर में जब दशरथ को अपनी तीनों रानियों कौशल्या, कैकेई और सुमित्रा से कोई संतान नहीं हुई, तो उन्हें चिंता हुई। तब मंत्री सुमन्त्र ने बताया कि श्रृंगी पुत्रेश्ठि यज्ञ में दक्ष हैं। उनकी सलाह पर श्रृंगी ऋषि को अयोध्या आमंत्रित किया गया। ऋश्यश्रृंग ने यज्ञ के प्रतिफल स्वरूप जो खीर तैयार की उसे तीनों रानियों को खिलाया। तत्पश्चात कौशल्या से राम, कैकेई से भरत और सुमित्रा की कोख से लक्ष्मण व शत्रुघ्न का जन्म हुआ। इस प्रसंग से यह प्रमाणित होता है कि जनजाति समाज में महातपस्वी ऐसे ऋषि भी थे, जो कृत्रिम वर्षा और गर्भधारण चिकित्सा विधियों के जानकार थे।

​​राम को वनगमन के बाद पहला साथ निषादराज गुह का मिला। तब प्रयागराज के पास स्थित श्रृंगवेरपुर से निषाद राज्य की सीमा आरम्भ होती थी। निषादराज को जब राम के आगमन की सूचना मिली तो वे स्वयं राम की अगवानी के लिए पहुंचे। निषादराज के पास पांच सौ नौकाओं का बेड़ा उपलब्ध होने के साथ ही यथेष्ठ सैन्य-शक्ति भी थी। उन्हें  जब राम को वापस अयोध्या ले जाने की भरत की इच्छा पर संदेह हुआ तो उन्होंने अपनी सैन्य शक्ति के बल पर राम-लक्ष्मण की रक्षा का भरोसा जताया। किंतु राम ने अपने भ्राता पर अटूट विश्वास जताते हुए समस्त कुशंकाओं का पटाक्षेप कर दिया। भरत-मिलन के बाद निषादराज ने अपनी नौका पर राम, लक्ष्मण और सीता को बिठाकर गंगा पार कराई।

जैसे जैसे राम आगे बढ़ते गए, उनकी भेंट अत्रि, वाल्मीकि, भरद्वाज, अगस्त्य, षरभंग, सुतीक्ष्ण, माण्डकणि और मतंग जैसे ऋषियों से हुई। निसंदेह जनजाति समाज के बीच वन-खंडों में रहने वाले इन ऋषियों ने ही राम का मार्ग प्रशस्त किया। ​ये ऋषि इन जंगलों में इन जनजातियों के बीच रहकर उन्हें सनातन हिंदू धर्म के सूत्र में पिरोने और उनके कल्याण में संलग्न रहते थे। यह दृष्टिकोण इसलिए भी समीचीन है, क्योंकि इस ओर लंकाधीश रावण की निगाहें थीं और वह इन जनजातियों को शूर्पनखा, खर व दूषण के माध्यम से रक्ष अर्थात अनार्य संस्कृति में ढालने में लगा था। राम अनार्य संस्कृति के विस्तार में बाधा बनें, इस दृष्टि से ही अगस्त्य ऋषि ने राम को पंचवटी भेजा और पर्ण-कुटी बनाकर वहीं रहने की सलाह दी। यहीं से राम वनगमन में ऐतिहासिक मोड़ आया। राम को जब पता चला कि शूर्पनखा का पुत्र शंबूक ‘सूर्यहास-खंग‘ नामक विध्वंसक शस्त्र का निर्माण कर रहा है तो राम ने लक्ष्मण को भेजकर शंबूक को मरवा दिया। शंबूक इसलिए दानव कहलाया, क्योंकि शूर्पनखा का विवाह दानव कालिका के पुत्र विद्युतजिव्ह से हुआ था। रावण जब दिग्विजय पर निकला था, तब उसने कालकेय दानवों के राजा अष्मनार पर हमला बोला था। विद्युतजिव्ह कालकेयों के पक्ष में लड़ा। रावण ने रणोन्मत्त होकर कालकेयों को तो परास्त किया ही विद्युतजिव्ह का भी वध कर दिया।

इस समय शूर्पनखा गर्भवती थी। रावण को अपने किए पर पश्चाताप हुआ। शूर्पनखा ने भी उसे भला-बुरा कहा। अंततोगत्तवा रावण ने शूर्पनखा को त्रिषिरा के साथ दण्डकवन भेजा और वहॉं की अधिष्ठात्री बना दिया। इस क्षेत्र में खर और दूषण पहले से ही तैनात थे। इसी दण्डकवन क्षेत्र में राम ने पंचवटी का निर्माण किया था। पंचवटी के निर्माण पर शूर्पनखा को आपत्ति थी। इसी विरोध का परिणाम शंबूक-वध और शूर्पनाखा के अंग-भंग के रूप में सामने आया। बाद में जब रावण को इन घटनाओं का पता चला तो उसने छद्म-भेष में सीता का हरण कर लिया। जटायु ने जब एक स्त्री को बलात रावण द्वारा ले जाते हुए देखा तो उसने पुष्पक विमान पर सवार रावण पर हमला बोल दिया। हालांकि जटायु मारा गया। लेकिन जटायु ऐसा पहला जनजाति समाज का योद्धा था, जिसने अनजान स्त्री सीता की प्राण रक्षा के लिए अपना बलिदान दे दिया। संभवतः यह पहला अवसर था, जहां से राम और जनजाति समाज के बीच परस्पर रक्षा में आहुति देने का व्यवहार पनपा।

​जटायु के बाद जनजाति समाज की ही महिला शबरी ने राम को सुग्रीव के पास भेजा। यहीं राम ने शबरी की भावना का आदर करते हुए उसके जूठे बेर भी चाव से खाए। वाल्मीकि रामायण से इतर रामायणों में तो यहां तक जानकारी मिलती है कि शबरी लंका की गुप्तचर होने के साथ विभीषण की विश्वसनीय थी। इस भेंट के दौरान वह राम को विभीषण का एक संदेश भी देती है। इस संदेश से सीता के लंका में होने की पुष्टि होती है। इन घटनाक्रमों के बाद राम और सुग्रीव की वह मित्रता है, जिसने राम को रावण से युद्ध का धरातल दिया। सुग्रीव जनजाति समाज की उपप्रजाति वानर से थे। बालि सुग्रीव के सगे भाई थे, जो किष्किंधा राज्य के सम्राट थे। बालि ने सुग्रीव को किष्किंधा से निष्कासित कर उसकी पत्नी रूमा को भी अपनी सहचारिणी बना लिया था। बालि इतना शक्तिशाली था कि रावण भी उससे पराजित हो चुका था। इसके बाद दोनों में मित्रता हुई और एक-दूसरे के सहयोगी बन गए। राम बालि की ताकत से परिचित थे। तत्पश्चात भी उन्होंने अपेक्षाकृत कमजोर सुग्रीव से मित्रता की, क्योंकि बालि शक्ति का भय दिखाकर शासन चला रहा था। इस कारण अनेक वानर किष्किंधा से पलायन कर गए थे। राम ने उदारता दिखाते हुए पहले बालि को मारा और फिर सुग्रीव को किष्किंधा के राज-सिंहासन पर बिठाया। तत्पश्चात सीता की खोज में जुट जाने की बात कही। बालि की मृत्यु और राम व सुग्रीव की मित्रता की जानकारी फैलने के बाद वे वानर किष्किंधा लौट आए, जो बालि के भय से भाग गए थे। यहीं से राम को जामबंत, हनुमान, नल, नील, अंगद, तार और सुषेण का साथ मिला। इनमें हनुमान तीक्ष्ण बुद्धि होने के साथ दुभाषिए भी थे। सीता की खोज में वानरों की सहायता स्वयंप्रभा नाम की एक वनवासी तपस्विनी और गंधमादन पर्वत पर रहने वाले संपाती और उनके पुत्र सुपार्श्व ने भी की।

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