भारतीय स्वाभिमान का चेहरा – धरमपाल

भारतीय स्वाभिमान का चेहरा – धरमपाल

धरमपाल जन्मशताब्दी वर्ष

प्रशांत पोळ

भारतीय स्वाभिमान का चेहरा – धरमपालभारतीय स्वाभिमान का चेहरा – धरमपाल

वर्ष 1960। ग्वालियर से दिल्ली जाती हुई एक खचाखच भरी ट्रेन। इस ट्रेन में तीसरे दर्जे का एक डिब्बा। एक 38 वर्ष का, प्रौढ़ावस्था की ओर बढ़ता हुआ युवक उस भीड़ में डिब्बे के अंदर आने का प्रयास करता है। कुछ लोग उस भीड़ में भी उसे जगह देते हैं। लगभग एक दर्जन लोगों का यह समूह है। सात – आठ पुरुष और चार – पांच महिलाएं। प्रत्येक के पास कुछ सामान, कुछ डिब्बे और थोड़े बर्तन हैं। ये युवक इन लोगों से पूछता है, “आप सब कौन हो और कहाँ जा रहे हो…?” उन लोगों में मुखिया जैसा दिखने वाला बुजुर्ग उत्तर देता है कि वे सब पिछले ढाई महीने से तीर्थयात्रा के लिए निकले हैं। अभी रामेश्वरम से आ रहे हैं। हरिद्वार जा रहे हैं। वहाँ से अपने गांव वापस जाएँगे। कुल तीन महीने का कार्यक्रम है। उन बर्तनों मे, डिब्बों में उनके खाने का सामान, दाल, चावल, गेहूं आदि हैं। ये सारे लोग लखनऊ के पास के दो गावों से हैं।

युवक का कौतूहल जागृत होता है। वो पूछता है, “आप सब एक ही जाति के हैं, ना…?”
“अरे नहीं नहीं… एक जात के नहीं हैं हम। अलग – अलग जात के हैं।”
युवक आश्चर्य में, “यह कैसे संभव हैं ?”
“बाबूजी, यात्रा में, तीर्थयात्रा में जात – पात ना होवे।” युवक और ज्यादा चकित। उसके अभी तक के अध्ययन और जानकारी के पूर्णतः विपरीत बात वह देख रहा है।

युवक फिर पूछता है, ‘बंबई देखी है?’ उत्तर आता है, ‘हां। वहाँ से गुजरे, लेकिन शहर नहीं देखा। उसमे क्या देखना?’ वही हाल मद्रास का और बाकी शहरों का भी।

फिर दिल्ली तक के प्रवास में अगले पांच – छह घंटे उन श्रद्धावान ग्रामीणों से उसकी गपशप होती है। भारतीय समाज की अंतरंगता का, ग्रामीण आस्था का, उनके विश्वास का, उनके जीवन मूल्यों का एक अलग ही चेहरा उस युवक के सामने आता है….।

ग्वालियर से दिल्ली का, वह छह – सात घंटों का प्रवास, उस युवक को झकझोर कर रख देता है। जीवन के अड़तीस वर्षों के पश्चात, उस धरमपाल नाम के युवक को अपने जीवन का लक्ष्य दिखने लगता है। पहली बार, अंग्रेजी हुकूमत को, उसके ही कागजातों के माध्यम से आईना दिखाने वाले, अंग्रेजों के झूठ का पर्दाफाश करने वाले, भारत में ब्रिटिश राज का वस्त्रहरण करने वाले धरमपाल का उदय होता है।

धरमपाल यानि एक ज़िंदादिल फक्कड़ इंसान। गांधी जी के विचारों के प्रभाव के कारण भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल। फिर गांधी जी की शिष्या मीराबेन के साथ हरिद्वार में ग्राम स्वराज के प्रयोग में भागीदारी। स्वतंत्रता के पश्चात ब्रिटेन और इज़राइल में। इज़राइल के सामुदायिक ‘किबुत्ज’ का आकर्षण। इसलिए कुछ सप्ताह किबुत्ज में बिताए। किन्तु यह मॉडल अपने ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं चल सकेगा, इस निष्कर्ष पर पहुंचे। लंदन के ‘स्कूल ऑफ इक्नोमिक्स’ में बतौर विद्यार्थी प्रवेश लिया। वहीं पर ‘फिलीस अलेन फोर्ड’ इस युवती से विवाह किया और डेढ़ वर्ष के बाद, पत्नी के साथ वापस भारत।

फिर मीराबेन के साथ ऋषिकेश के पास ‘बापुग्राम’ नाम के सहकारी ग्रामीण प्रयोग में शामिल। तीन – चार वर्ष वहां गुजारने के बाद, इस प्रयोग की असफलता से निराश होकर, परिवार समवेत पुनः इंग्लैंड। तीन वर्ष वहां रहने के बाद पुनः भारत में वापसी। गांधी जी की कल्पना का भारत और जवाहर लाल नेहरू निर्माण कर रहे वो भारत… इन के बीच का अंतर देखकर दुखी। तभी वह ‘ग्वालियर – दिल्ली’ प्रवास की घटना होती है और धरमपाल जी का मन उद्वेलित होता है। ‘इस ग्रामीण भारत को तो प्रधानमंत्री नेहरू जानते तक नहीं हैं। इनकी बात कौन करेगा..? अंग्रेजों ने भारतीयों के बारे में और विशेषतः भारतीय ग्रामीणों के बारे में जो अत्यंत अपमानजनक चित्र निर्माण किया है, उसे गलत कौन साबित करेगा..?’

बहुत कम लोग जानते हैं कि सन 1962 में, चीनी युद्ध के समय, जवाहरलाल नेहरू की गलत नीतियों की जबरदस्त आलोचना करने के कारण नेहरू ने धरमपाल जी को दो महीने तक जेल में बंद रखा था। धरमपाल जी गांधीजी के अनुयायी अवश्य थे। लेकिन कांग्रेसी नहीं थे। सच्चे गांधीवादी होने के कारण वे निर्भय थे। 1975 – 1977 के आपातकाल के दौर में वे इंग्लैंड में थे इसलिए गिरफ्तारी से बच गए अन्यथा इंदिरा गांधी की सरकार उन्हें छोड़ने वाली नहीं थी। वे इंग्लैंड से, भारतीय लोकतंत्र के समर्थन में आंदोलन चला रहे थे।

1962 में धरमपाल जी की पहली पुस्तक प्रकाशित हई, ‘पंचायती राज’ पर। 1963 से 1965 के बीच उन्होंने ‘तमिलनाडु राज्य अभिलेखागार’ में घंटों बैठ कर ब्रिटिश शासन के दौरान के कागजात छान मारे। किन्तु इसी बीच, 1965 में उनके बेटे प्रदीप की लंदन में भीषण दुर्घटना हुई। इस कारण उन्हें, मद्रास का शोध कार्य छोड़कर लंदन जाना पड़ा। किन्तु लंदन जाना शायद ज्यादा ठीक रहा। वहां उन्होंने British Colonial Archives में जाकर अपना शोध कार्य जारी रखा। इस शोधकार्य की मानो उन्हे धुन चढ़ गई थी। ‘ब्रिटिश राज में ध्वस्त हुई भारतीय व्यवस्थाएं’ इस विषय पर शोधकार्य उनका पैशन बन गया था। 1965 में उनकी एक  महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुई – ‘अठारवीं शताब्दी में भारतीय विज्ञान और तकनीकी’। यह पुस्तक जबरदस्त थी। पूरे देश को हिलाने की शक्ति रखती थी। इस पुस्तक ने वे सारे मिथक दूर किए, जो अंग्रेजों ने और बाद में उनके पिट्ठुओं ने बना के रखे थे। तब तक यही बताया जाता था, यही सिखाया जाता था कि अंग्रेज़ों के आने से पहले भारतीय तो गंवार थे, अनाड़ी थे। उनको शिक्षित किया अंग्रेजों ने। उनको दुनिया दिखाई, अंग्रेजों ने।

धरमपाल जी ने अंग्रेजों के कागजातों के माध्यम से ही यह दिखा दिया, कि अंग्रेज़ों के आने से पहले हम विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में कितने आगे थे और अंग्रेजों ने कैसे हमारी सारी ज्ञान परंपरा ध्वस्त की।

इस के बाद तो धरमपाल जी के शोध कार्य की, अध्ययन की और उन के निष्कर्षों के आधार पर सप्रमाण पुस्तक लिखने की शृंखला ही प्रारंभ हो गई। 1980 से वे वर्धा के समीप, सेवाग्राम में रहने लगे। 1983 में उनकी चर्चित पुस्तक प्रकाशित हुई – ‘The Beautiful Tree’। अंग्रेज़ों के आने से पहले भारत की शिक्षा व्यवस्था कितनी समृद्ध थी, परिपक्व थी और अंग्रेजों ने इस पूरी व्यवस्था को किस प्रकार से ध्वस्त किया, इसका वर्णन विस्तार से इस पुस्तक में है।

किन्तु दुर्भाग्य से धरमपाल जी के इस महान कार्य की जानकारी बहुत कम लोगों को अपने देश में थी। धरमपाल जी के गांधीवादी होने के बावजूद भी, तत्कालीन काँग्रेस सरकारों ने उनकी कोई सुध नहीं ली। इस का कारण था, धरमपाल जी मानते थे की नेहरू की नीतियाँ गांधीवाद के विरोध में थीं। इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर लोकतंत्र की हत्या की, इसलिए वे इंदिरा गांधी के भी विरोध में लिखते – बोलते थे।

कानपुर और मद्रास आईआईटी के कुछ छात्रों के पढ़ने में धरमपाल जी की लिखी हुई कुछ पुस्तकें आईं। उन्होंने उस साहित्य पर विमर्श करने के लिए एक छोटा समूह बनाया, जिसमें कानपुर और मद्रास आईआईटी के छात्र थे। इस समूह का नाम रखा गया – Patriotic and People-Oriented Science and Technology (PPST) group. इस समूह ने 1980 – 1981 में धरमपाल जी के साहित्य के बारे में काफी हलचल खड़ी की। इसी दौरान गोवा के पर्यावरण कार्यकर्ता क्लौड़े अल्वारिस ने धरमपाल जी के साहित्य के बारे में लिखना प्रारंभ किया। गुजरात की शिक्षाविद सुश्री इन्दुमति ताई काटदरे जी के हाथ में, उनके मद्रास प्रवास के दौरान धरमपाल जी का साहित्य आया। इतने समृद्ध और सप्रमाण लिखे साहित्य को देखकर इन्दुमति ताई ने उसे गुजराती, मराठी और हिन्दी में अनुवाद कर के प्रकाशित करने की योजना बनाई। धीरे – धीरे धरमपाल साहित्य पर देश में, विश्वविद्यालय में चर्चा और विमर्श होने लगा। मैं जब ‘विनाशपर्व’ पुस्तक पर काम कर रहा था, तब मैंने धरमपाल साहित्य अनेकों बार पढ़ा। उस साहित्य के कुछ अंश पुस्तक में भी लिए।

अटल बिहारी बाजपेयी जी की सरकार ने पहली बार धरमपाल जी को पशुधन बोर्ड का अध्यक्ष बनाकर उनका सम्मान किया था। इस देश का दुर्भाग्य रहा कि गांधीवाद की विचारधारा के सच्चे अर्थों में अनुयायी, उस विचारधारा को जीवन में लाने का प्रयास करने वाले फक्कड़ कार्यकर्ता और ब्रिटिश पुरालेख और कागजातों का गहरे में अध्ययन करने वाले इतिहास संशोधक, धरमपाल जी को काँग्रेस ने ना कभी अपना माना और ना ही उनका सम्मान किया। उल्टे नेहरू जी ने तो उन्हें दो महीने जेल में बंद कर के रखा था…!

आज उनके जन्मशताब्दी वर्ष की समाप्ति हो रही है। भारतीय स्वाभिमान को निर्भयता के साथ विश्व के सामने लाने वाले इस सच्चे गांधीवादी को मेरे विनम्र श्र्द्धा सुमन..!

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धरमपाल जी ने अनेक पुस्तकों का लेखन किया है, उन में से कुछ महत्वपूर्ण हैं –
अंग्रेज़ी में –
– साइंस एण्ड टेक्नालॉजी इन एट्टींथ सेंचुरी (Indian Science and Technology in the Eighteenth Century)
– द ब्यूटीफुल ट्री (The Beautiful Tree)
– सिविल डिसआबिडिएन्स एण्ड इंडियन ट्रेडिशन (Civil Disobedience and Indian Tradition)
– डिस्पाइलेशन एण्ड डिफेमिंग ऑफ़ इंडिया (Despoliation and Defaming of India)
– अंडरस्टेंडिंग गाँधी (Understanding Gandhi)
हिन्दी में –
– भारतीय चित्त मानस और काल
– भारत का स्वधर्म

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