भारत का गौरव जनजातीय समाज

भारत का गौरव जनजातीय समाज

जनजातीय गौरव दिवस पर विशेष

भारत का गौरव जनजातीय समाज

भारत की इस पुण्यभूमि पर ऐसी असंख्य महान विभूतियों ने जन्म लिया है जो राष्ट्र व धर्म के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देवता की श्रेणी में प्रतिष्ठित हो गईं। राजस्थान की ही बात करें तो गोरक्षा व धर्म रक्षा करते हुए बलिदान होने वाले वीर शिरोमणि पाबूजी, गोगाजी, वीरवर कल्लाजी आदि लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं। ऐसे ही झारखण्ड के वनवासी क्षेत्र में जन्मे, भारत के गौरव तथा जनजातीय समाज के अग्रदूत हुतात्मा बिरसा मुंडा को भी ‘भगवान’ बिरसा के रूप में श्रद्धा से नमन किया जाता है।

15 नवंबर अर्थात् भगवान बिरसा मुंडा की जयंती को पूरे देश में ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है। भगवान बिरसा आजीवन अंग्रेजी अत्याचारों तथा ईसाई मिशनरियों के षड्यंत्रों के विरुद्ध अभेद्य दीवार बनकर डटे रहे तथा सनातन के अभिन्न अंग वनवासी बंधुओं की रक्षा की। उनके इन्हीं कार्यों से भयभीत होकर अंग्रेज उन पर हमला करते रहे, 2 बार छल से उन्हें जेल भेजा तथा अंततः वहीँ षड्यंत्रपूर्वक उनकी हत्या कर दी। इस बलिदान से वे जन-जन के लिए पूज्य बन गए।

राजस्थान में भी जनजातीय समाज धर्म, राष्ट्र तथा स्वराज्य के रक्षक के रूप में सदा से अविचल खड़ा है। हिंदुआ सूरज महाराणा प्रताप का सहयोग करने वाले भील समुदाय के सम्मान में मेवाड़ के राज चिह्न पर महाराणा के साथ भील राणा का अंकन किया गया है। अंग्रेजों के समय भारत माता की स्वतंत्रता के लिए राजस्थान के जनजातीय समूहों ने कई आन्दोलन किए तथा बलिदान दिए। अंग्रेजों तथा उनकी हिमायती सामंतशाही के विरुद्ध गोविंदगुरु के भगत आन्दोलन को जनजातियों का अपार समर्थन मिला। इसी से भयभीत होकर 17 नवंबर 1913 को बाँसवाड़ा के मानगढ़ में सभा कर रहे हजारों निर्दोष निहत्थे वनवासियों पर अंग्रेजों ने गोलियां बरसाकर उनकी हत्या कर दी। महात्मा गांधी ने इस घटना को जलियांवाला बाग़ से भी अधिक भयावह बताया था। इसके बाद भी जनजातीय बंधु डरे नहीं और समय-समय पर अंग्रेजों का प्रतिकार करते रहे।

एकी आन्दोलन के दौरान 7 मार्च 1922 को मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में अजमेर के नीमड़ा गाँव में हो रही सभा पर अंग्रेजों ने गोलीबारी कर दी। इस नरसंहार में बारह सौ भीलों ने बलिदान दिया। इसी प्रकार प्रजामंडल आन्दोलनों का मुख्य आधार भी यहाँ के जनजातीय भगिनी-बंधु ही थे। बालिका कालीबाई के हौतात्म्य को हम कैसे भूल सकते हैं? 18 जून 1947 के दिन अपने गुरु व शिक्षक सेंगाभाई को अंग्रेजों की पुलिस से बचाते हुए यह वीर बालिका गोलियों से छलनी हुई तथा पूरे 2 दिन मरणान्तक पीड़ा झेलने के बाद 20 जून को उसने भारत माता की गोद में सदा के लिए अपने नेत्र मूंद लिए।

भारत का जनजातीय समाज हमारी सनातन संस्कृति का अभिन्न प्रतिनिधि है। यहाँ नगरीय तथा वन्य जीवन के मध्य संवाद सेतु बना रहा। ऋषि मुनियों ने वनों में वनवासी समुदायों के मध्य आश्रमों का निर्माण कर अनुसंधान व तप किए। अनेक जनजातीय समूहों को भगवान श्रीराम की मित्रता व स्नेह सान्निध्य मिला तथा रावण के आततायी शासन का अंत करने में वे सहयोगी बने। महाभारत में अनेक जनजातीय विभूतियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। विडंबना है कि जिन मिशनरी शक्तियों ने पूरे विश्व में जनजातीय समुदायों का शोषण किया, करोड़ों जनजातीय बंधुओं को मार डाला, भिन्न-भिन्न प्रकार के रोग दिए, गुलाम बनाया, वही मिशनरी आज इनके हितैषियों का मुखौटा ओढ़े बैठे हैं। जनजातियों को उनकी सनातन संस्कृति, गौरव तथा परम्पराओं से काटकर कन्वर्ट कराने के षड्यंत्र चल रहे हैं। इन षड्यंत्रों को नष्ट कर पुनः जनजातीय गौरव की स्थापना हम सबका लक्ष्य होना चाहिए।

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