भारत को लेकर भू-राजनीति में मौलिक परिवर्तन

भारत को लेकर भू-राजनीति में मौलिक परिवर्तन

बलबीर पुंज

भारत को लेकर भू-राजनीति में मौलिक परिवर्तनभारत को लेकर भू-राजनीति में मौलिक परिवर्तन

हाल के कुछ समय से विश्व घोर अस्थिरता से जूझ रहा है। प्रतिकूल स्थिति होने के बाद भी भारत, शेष दुनिया में ध्रुव तारे की भांति चमक रहा है। यह इस बात से स्पष्ट है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते सप्ताह तीन यूरोपीय देशों- जर्मनी, डेनमार्क और फ्रांस के राजकीय दौरे पर थे, तब डेनमार्क की प्रधानमंत्री मेट फ्रेडरिकसेन ने कहा था, “पुतिन (रूसी राष्ट्रपति) को इस युद्ध को रोकना होगा… मुझे आशा है कि भारत रूस को प्रभावित करेगा।” आखिर भारत के संदर्भ में दुनिया के दृष्टिकोण में आए इस आमूलचूल मौलिक परिवर्तन का कारण क्या है?

मई 2014 से पहले जिस प्रकार वामपंथी-वंशवादी-जिहादी कुनबे ने बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए वर्षों तक विषवमन किया, जिसके कारण अमेरिका ने उन्हें वीज़ा तक जारी करने से इनकार कर दिया, अब वही अमेरिका बीते कई वर्षों से- चाहे वह पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का प्रशासन हो या फिर ट्रंप के राजनीतिक विरोधी राष्ट्रपति जो.बाइडन का कार्यकाल- सभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत के साथ संबंधों को शिखर पर पहुंचाने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं। यह ठीक है कि इस दौरान अमेरिका ने कई अवसरों पर अपनी चिर-परिचित ‘धौंसिया’ नीति के अंतर्गत भारत पर हावी होने का प्रयास किया, किंतु भारतीय समकक्ष- विशेषकर विदेश मंत्री एस.जयशंकर की स्पष्टवादिता ने उसे ध्वस्त कर दिया। मानवाधिकारों और रूस आयातित ईंधन/ऊर्जा के विषय पर एस.जयशंकर द्वारा अमेरिकी-यूरोपीय दोहरे मापदंड को बेनकाब करना- इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। बात केवल अमेरिका तक भी सीमित नहीं। रूस, फ्रांस, ब्रिटेन आदि देश भी वैश्विक विषयों पर भारत का साथ पाने हेतु लालायित हैं। बीते दिनों रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत का ‘देशहित केंद्रित पक्ष’ और इस संदर्भ में कई देशों के प्रतिनिधियों का भारत का एकाएक दौरा- वैश्विक मीडिया की सुर्खियों में है।

इस परिवर्तन के कई कारण हैं। स्वतंत्र भारत, पूर्व के कई दशकों में विश्व के समक्ष अपनी बात भारत बनकर नहीं रख पाया। तब हम विदेशी मापदंडों-एजेंडों पर खरा उतरने के कारण पश्चिमी व्यवस्था-लोकाचार की भद्दी कार्बन-कॉपी बन चुके थे। विश्व सदियों से मूलरूप को पसंद करता आया है। इस कारण ही सदियों पहले अपने उद्गमस्थलों पर मजहबी अत्याचारों से तंग आकर सीरियाई ईसाइयों, यहूदियों, पारसियों आदि ने बहुलतावादी-समरस सनातन भारत में शरण ली। मई 2014 से पहले हमारा दृष्टिकोण कैसा था, यह स्वतंत्रता के बाद देश पर लगभग 50 वर्षों तक प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से शासन करने वाली कांग्रेस के वर्तमान शीर्ष नेता राहुल गांधी के विचारों से स्पष्ट है। 2 अप्रैल 2021 को पूर्व अमेरिकी राजनयिक निकोलस बर्न्स से ऑनलाइन चर्चा करते हुए राहुल इस बात से असंतुष्ट हो गए थे कि भारत के आंतरिक मामलों पर अमेरिका अब कुछ नहीं बोलता। ऐसा ही विचार 1972 बैच के भारतीय विदेश सेवा अधिकारी (सेवानिवृत्त), पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) और चीन आदि देशों में भारतीय राजदूत रहे शिवशंकर मेनन ने भी विदेशी पत्रिका को लिखे कॉलम में प्रस्तुत किया था।

इस पृष्ठभूमि में वर्तमान भारतीय नेतृत्व दुनिया को वास्तविक भारत से परिचय कराते हुए अपने हितों को ध्यान में रखकर विदेश-नीति को आकार दे रहा है। उदाहरणस्वरूप, बीते दिनों दिल्ली में आयोजित ‘रायसीना डायलॉग 2022’ में विदेश मंत्री एस.जयशंकर ने कहा, “…भारत अपनी शर्तों पर दुनिया से संबंध निभाएगा और इसमें भारत को किसी की सलाह की आवश्कता नहीं। वो कौन हैं, समझकर दुनिया को खुश रखने की जगह हमें इस आधार पर दुनिया से संबंध बनाने चाहिए कि हम कौन हैं। दुनिया हमारे बारे में बताए और हम दुनिया से अनुमति लें, वो वाला दौर खत्म हो चुका है…।” इसी वैचारिक सुस्पष्टता के कारण ही अनादिकालीन भारतीय दर्शन का एक जीवंत प्रतीक योग, वर्ष 2015 से अंतरराष्ट्रीय आंदोलन बना हुआ है।

चिंतन के मामले में विरोधाभासी-अस्वाभाविक और भारत-विरोधी एजेंडे रूपी वेंटिलेटर पर जीवित चीन-पाकिस्तान गठजोड़- दशकों से भारतीय एकता, संप्रभुता, अखंडता को चुनौती दे रहा है। किंतु बीते कुछ वर्षों में पाकिस्तान द्वारा कब्जाए कश्मीरी क्षेत्र सहित बालाकोट में भारतीय सेना की दो सफल सर्जिकल स्ट्राइक और गलवान-डोकलाम प्रकरण में कुटिल चीन के विरुद्ध भारत की रणनीतिक प्रतिक्रिया ने स्पष्ट कर दिया कि हम अपनी सीमाओं की रक्षा हेतु पहले से कहीं अधिक प्रतिबद्ध, स्पष्ट और स्वतंत्र हैं।

जब दुनिया के लगभग सभी देशों को महामारी कोविड-19 ने अलग-थलग कर दिया, तब भारत ने स्वदेश निर्मित टीकों से न केवल देश में मुफ्त टीकाकरण अभियान चलाया, साथ ही कई संकटग्रस्त देशों की सहायता भी की। भारत ने वैक्सीन ही नहीं, दवाओं, चिकित्सीय उपकरण से लेकर खाद्यान्न तक जरूरतमंद देशों को पहुंचाया। चीनी प्रेम के कारण दिवालिया हुए श्रीलंका को वित्तीय-खाद्य सहायता दी। तालिबान के इस्लामी राज में भुखमरी के शिकार अफगानिस्तान को मानवीय आधार पर भारी मात्रा में अनाज दिया। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, “…यदि डब्ल्यूटीओ अनुमति देता है, तो भारत कल से ही दुनिया को खाद्य भंडार की आपूर्ति शुरू करने को तैयार है…।”

वैश्वीकरण के दौर में भारत न केवल शेष दुनिया का पेट भरने हेतु प्रतिबद्धता व्यक्त कर रहा है, अपितु उसने अपने देश में भी मुफ्त राशन वितरित करके कोरोनाकाल में करोड़ों लोगों को भूखा रहने से बचा लिया। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने अपनी हालिया रिपोर्ट में कहा कि मोदी सरकार की गरीब कल्याण अन्न योजना ने वैश्विक महामारी में देश को अत्यधिक गरीबी की जकड़ में जाने से बचाए रखा। आईएमएफ ने अपने शोध में पाया कि वर्ष 2019 में भारत में अत्यधिक गरीबी का स्तर 1 प्रतिशत से कम था, जो वर्ष 2020 के कोरोनाकाल में भी उसी स्तर पर बना रहा।

वास्तव में, यह सब इसलिए संभव हुआ, क्योंकि वर्तमान भारतीय नेतृत्व न केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति से परिपूर्ण है, साथ ही संभवत: वह स्वतंत्र भारत में पहली ऐसी सरकार है, जिसका शीर्ष नेतृत्व और मंत्री-सचिव स्तरीय प्रशासन भ्रष्टाचार रूपी दीमक से मुक्त है। बात चाहे सैकड़ों करोड़ की लागत से बन रहे सेंट्रल विस्टा परियोजना की हो या हाल ही में निर्मित प्रधानमंत्री संग्रहालय हो या फिर हजारों किलोमीटर लंबे सड़कों का विस्तार इत्यादि- अब तक ऐसी सभी परियोजनाएं भ्रष्टाचार से मुक्त रही हैं। यही नहीं, पहले की तुलना में केंद्रीय लाभार्थियों तक एक-एक पैसा पहुंच रहा है। जनधन योजना के अंतर्गत, 45 करोड़ खाताधारकों के खाते में मोदी सरकार ने सब्सिडी या अन्य किसी केंद्रीय वित्तीय सहायता के रूप एक लाख 66 हजार करोड़ रुपये सीधे हस्तांतरित किए हैं। इसी तरह 11 करोड़ किसानों को भी सरकार ने इतनी ही राशि सीधा उनके बैंक खाते में भेजी है। ऐसे ढेरों उदाहरण हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत, दुनिया को शांति-समरसता का संदेश दे रहा है। पं.नेहरू के कालखंड में भी ऐसा होता था- पंचशील सिद्धांत इसका उदाहरण है। किंतु दोनों में बड़ा अंतर है। 261 ईसा पूर्व में सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध जीतकर शांति का आह्वान किया था, जिसे दुनिया आज भी प्रभावशाली मानती है। यदि कलिंग में अशोक विजयी नहीं होते, तब क्या उनकी शांति-समरसता संबंधित बातों का कोई मोल होता? सच तो यह है कि पराजितों के मुख से शांति-भाईचारे की बात, कमजोरी-कायरता समझी जाती है। पं.नेहरू से लेकर प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में स्वतंत्र भारत की यात्रा को इस संदर्भ में समझा जा सकता है।

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