माओवादियों के लिए राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के निहितार्थ

माओवादियों के लिए राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के निहितार्थ

माओवादियों के लिए राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के निहितार्थमाओवादियों के लिए राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के निहितार्थ

जैसे-जैसे देश में लेफ्ट यानि कम्युनिस्ट विचारधारा का ग्राफ नीचे गिरता गया, उन्होंने कांग्रेस को अपनी राजनीतिक वैशाखी बनाने से परहेज नहीं किया। हालांकि, आश्चर्यजनक रूप से यह सांठगांठ केवल केंद्र में ही दिखाई देती है। राज्यों में जहां कहीं भी कम्युनिस्ट विचारधारा के दलों का कोई ठोस अस्तित्व रहा है, वहां दूसरे के विरोध में खड़े होने से इन्होंने कभी गुरेज नहीं किया।

कुल मिलाकर सुविधा की राजनीति और गठबंधन से ना तो कांग्रेस और ना ही कम्युनिस्टों को ही कोई समस्या है। इस क्रम में हिंसा के माध्यम से सत्ता पाने की कवायद में लीन प्रतिबंधित माओवादी संगठन कम्युनिस्ट पार्टी भी कोई अपवाद नहीं और बीते दिनों इस हिंसक संगठन ने अपनी मासिक पत्रिका में इसे खुल कर दर्शाया भी है।

माओवादियों ने अपनी मासिक पत्रिका द पीपुल्स मार्च में खुलकर राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की प्रसंशा करते हुए कथित रूप से घृणा की राजनीति की काट के रूप में चिन्हित किया है। पत्रिका में छपे आलेख में माओवादियों ने दर्शाने का प्रयास किया है कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को प्रत्येक आयु एवं वर्ग के लोगों का समर्थन मिला है और इसे वर्तमान में केंद्र एवं कई राज्यों में सत्तासीन भाजपा एवं संघ की तथाकथित घृणा की राजनीति के विकल्प के रूप में गंभीरता से लिया जा सकता है।

नक्सलियों ने राहुल एवं कांग्रेस की सॉफ्ट हिन्दुत्व की छवि को लेकर उन्हें घेरा भी है, पत्रिका में राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ में सत्तासीन कांग्रेस के नरम हिन्दुत्व की छवि को उसके विकल्प के रूप में सबसे बड़ी बाधा बताते हुए माओवादियों ने कांग्रेस नेतृत्व से सहानुभूति जताई है।

दशकों से समाज को धर्म, संप्रदाय, रंग, भाषा अथवा भौगोलिक आधार पर बांटने के पीछे अपनी सारी शक्ति झोंकने वाले माओवादियों के लिए राहुल आशा की आखिरी किरण जैसे हैं, जिनके आधार पर वे संगठित होते समाज को तोड़ने का यथासंभव प्रयास कर रहे हैं। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि देश के नागरिकों का संस्कृति, राष्ट्रीयता, देशभक्ति, धार्मिक अथवा किसी भी अन्य आधार पर संगठित होना ही उस कथित क्रांति के लिए सबसे बड़ा खतरा है, जिसका सपना भारत के कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी दशकों से देख रहे हैं।

इसमें भी दो राय नहीं कि वर्ष 2014 में केंद्र की सत्ता में मोदी सरकार आने के बाद सरकार ने ना केवल जमीनी स्तर पर सक्रिय माओवादियों की सैन्य इकाई पीएलजीए के विरुद्ध बड़े स्तर पर सुरक्षाबलों की तैनाती को मजबूत किया है, अपितु समानांतर रूप से माओवादियों के कथित शहरी बुद्धिजीवी वर्ग (अर्बन नक्सलियों) के विरुद्ध भी मुहिम छेड़ रखी है, अब ऐसे में वर्तमान सरकार का सत्ता से हटना तो माओवादियों के लिए तो जैसे अस्तित्व बचाने का संघर्ष है।

इसलिए कतई अस्वाभाविक नहीं कि यात्रा की शुरुआत से लेकर अब तक वैचारिक रूप से माओवाद का समर्थन करने वाले वर्ग के पोस्टर बॉय रहे योगेंद्र यादव एवं पूर्व कॉमरेड कन्हैया कुमार जैसे लोग राहुल गांधी के साथ कदमताल करते आए हैं, रही सही कसर मेधा पाटकर, फिल्म जगत में कम्युनिस्टों की पोस्टर गर्ल स्वरा भास्कर, कुणाल कामरा, प्रशांत भूषण जैसों ने पूरी की है। इन सब में वैचारिक रूप से एक समानता है कि ये सभी भारत विरोधी पक्ष रखने अथवा ऐसी किसी मुहिम को वैचारिक समर्थन देते आये हैं।

इतिहास की दृष्टि से देखें तो भी कांग्रेस में कम्युनिस्ट विचारों के पैराकारों की घेलमेल कोई छिपी बात नहीं। नेहरू के कथित आदर्शवाद की नीति से लेकर, इंदिरा गांधी के जमाने का सोवियत आयातित समाजवाद, कम्युनिस्ट झुकाव वाले इतिहासकारों की देख रेख में शिक्षा नीति का विकास आदि, सब कहीं ना कहीं कांग्रेस के भीतर कम्युनिस्ट घुसपैठ की रणनीति का ही बखान करते हैं। हालांकि इस संदर्भ में महत्वपूर्ण यह भी है कि सांस्कृतिक मार्क्सवाद के इस युग में सत्तासीन दलों में कम्युनिस्ट कैडरों की घुसपैठ कम्युनिस्टों की टाइम टेस्टेड रणनीति का भाग रही है। यह अपवाद स्वरूप भाजपा सरीखे दलों पर ही लागू नहीं होता।

अब ऐसे में माओवादियों की राहुल की मुक्त कंठ से की गई प्रशंसा एवं समानांतर रूप से सॉफ्ट हिन्दुत्व की उनकी आलोचना को उनके अस्तित्व बचाने की वेदना से जोड़ कर देखा जा सकता है। जहां तक बात आगामी वर्षों में कांग्रेस को मिलने वाले समर्थन से है तो यह अब छिपी बात नहीं कि कृषि कानूनों एवं अग्निपथ जैसी योजनाओं के विरुद्ध हुए प्रदर्शनों में माओवादियों की अपनी अहम भूमिका थी। जिसका खुलासा उनके आंतरिक वितरण को तैयार किये गए बुकलेट के सामने आने से हुआ भी था।

देश के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में अस्तित्व बचाने का जितना संघर्ष माओवादी कर रहे हैं, कमोबेश वही स्थिति कांग्रेस की भी है। मूल अंतर केवल इतना ही है कि जहां कांग्रेस सॉफ्ट हिन्दुत्व से लेकर येन-केन प्रकारेण केवल केंद्र में अपनी वापसी चाहती है तो वहीं माओवादियों के लिए भय केवल इस बात का है कि यदि यह वापसी सॉफ्ट हिन्दुत्व के रास्ते हुई तो उनके लिए सामाजिक ताने बाने को तोड़कर क्रांति की कल्पना भी दूर की कौड़ी बनकर ही रह जाएगी।

बावजूद इसके कॉमरेडों को इस बात का भी बखूबी भान है कि यदि सत्ता के इस संघर्ष में वह 2024 की लड़ाई हार जाते हैं तो उनका अस्तित्व कहीं बस कागजों तक ना सिमट जाए। उनके लिए भारत जोड़ो सहित कांग्रेस की सत्ता में वापसी तक की यात्रा के अपने मायने हैं।

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