‘भारत दैट इज भारत’ क्यों नहीं?
6 जून 2020
मुरारी गुप्ता
क्या इस हजारों साल पुराने राष्ट्र की सांस्कृतिक धरोहर और सभ्यता के प्रतीक चिह्नों को ब्रिटिश की स्वार्थी सत्ता तथा लेफ्ट, लिबरल और तथाकथित सेक्युलर इतिहासकारों द्वारा पोषित इंडस या इंडिया नाम के भरोसे छोड़ा जाना चाहिए। यह सही समय है जब हम अपनी गौरवशाली सांस्कृतिक धरोहर भारतवर्ष को फिर से अपने माथे से लगाएं।
किसी भी देश का यह दुर्भाग्य ही होगा कि उनके लोगों को अपनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहचान को प्राप्त करने के लिए देश की सर्वोच्च अदालत में भटकना पड़ता है। हजारों सालों के सर्वज्ञात इतिहास के धनी भारत को अपनी ही पहचान को स्थापित करने के लिए अपनी ही अदालतों और संसद के गलियारों में जूझना पड़ रहा है। भारतवर्ष के उन पूर्वजों तक यदि यह बात किसी माध्यम से पहुंची होगी तो उन्हें कितनी पीड़ा होती होगी, जिन्होंने हजारों वर्ष तक आतताइयों और आक्रांताओं से संघर्ष करते हुए अपने राष्ट्र की पहचान को बनाए रखा था। कितने आश्चर्य की बात है कि हम विश्वगुरू बनने की बात करते हैं और अपने ही सांस्कृतिक गुरु तत्वों को भुला बैठे हैं।
उच्चतम न्यायालय ने देश के अंग्रेजी नाम इंडिया को बदलकर भारत या हिन्दुस्तान करने संबंधी याचिका पर विचार करने से पिछले सप्ताह (बुधवार) को मना कर दिया और याचिकाकर्ता से कहा कि वह अपनी बात सरकार के समक्ष रखें। न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ता अपना ज्ञापन सरकार को दें। याचिकाकर्ता ने ‘इंडिया’ शब्द को औपनिवेशिक और गुलामी का प्रतीक बताते हुए संविधान के अनुच्छेद एक में संशोधन का केंद्र को निर्देश देने का अनुरोध किया था। याचिका में कहा गया था कि इंडिया की जगह भारत नामकरण से देश में एक राष्ट्रीय भावना पैदा होगी। याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में 15 नवंबर, 1948 को हुए संविधान के मसौदे का भी उल्लेख किया था, जिसमें संविधान के प्रारूप एक के अनुच्छेद एक पर बहस करते हुए एम. अनंतशयनम अय्यंगर और सेठ गोविन्द दास ने ‘इंडिया’ की जगह ‘भारत, भारतवर्ष, हिंदुस्तान’ नामों को अपनाने की वकालत की थी। याचिकाकर्ता ने कहा है कि देश के लिए इंडिया शब्द का इस्तेमाल होना बंद होना चाहिए। भारत शब्द हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष को भी सही ठहराएगा।’ याचिकाकर्ता के अनुसार देश के लिए कई नाम-इंडिया, रिपब्लिक ऑफ इंडिया, भारत, भारत गणराज्य आदि नामों का इस्तेमाल किया जाता है। याचिकाकर्ता का कहना है कि एक देश के लिए एक नाम ही होना चाहिए। प्रथम दृष्टया यह ठीक भी है।
यह देश भारत है, इस पर किसी को संदेह नहीं है। ऋग्वेद की एक ऋचा- ‘ब्रह्ममिदम रक्षति भारतम् जनम’ के अनुसार इस राष्ट्र का नाम भारत नाम वैदिक काल से भी प्राचीन है। विष्णु पुरान में प्राचीन भारत की सीमाओं का उल्लेख करते हुए लिखा गया है- “उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् । वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः। अर्थात एक देश जो कि समुद्र के उत्तर और बर्फ के पहाड़ों के दक्षिण में है भारत कहलाता है। यहाँ पर ‘भरत’ के वंशज रहते हैं। भारत के प्राचीन ग्रंथों के अनुसार भरत चक्रवर्ती, प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के सबसे बड़े पुत्र थे। जैन और हिन्दू पुराणों के अनुसार वह चक्रवर्ती सम्राट थे और उन्ही के नाम पर भारत का नाम “भारतवर्ष” पड़ा। स्कन्द पुराण के अध्याय 37 के अनुसार “ऋषभदेव नाभिराज के पुत्र थे, ऋषभ के पुत्र भरत थे, और इनके ही नाम पर इस देश का नाम “भारतवर्ष” पड़ा”| प्राचीन भारतवर्ष में आज के अफगानिस्थान, पाकिस्तान, तिब्बत, भूटान, म्यांमार, बांग्लादेश, श्रीलंका शामिल थे। केवल इतना ही नहीं कालांतर में भारत के साम्राज्य में आज के मलेशिया, फिलीपीन्स, थाईलैंड, दक्षिण वियतनाम, कंबोडिया, इंडोनेशिया भी शामिल थे। और आज भी ये देश सांस्कृतिक रूप से भारत से जुड़े हैं।
भारत वर्ष की यह परंपरा सदियों से हर भारतीय परिवार में संकल्प मंत्र के रूप में गाई जा रही है। हर सनातन परिवार में कोई भी शुभ कार्य के समय संकल्प मंत्र में भी इस मान्यता को पुष्टि मिलती है, जिसमें कहा जाता है-‘‘ओउमतत्सदध्ये तस्य ब्राह्मो ह्नी द्वितीय परर्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भरतखंडे आर्यावर्त अंतर्गत देशे वैवस्त मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथम चरने श्री विक्रमार्क राज्यदमुक संवत्सर…’’ और संकल्प लेने की यह परंपरा आदि काल से है। इसलिए हमारे मनों में भारत नाम को लेकर किसी भी प्रकार की दुविधा नहीं है और न ही रहनी चाहिए।
यह दुविधा तो स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश के तत्कालीन राष्ट्रवादी नेताओं को भी नहीं थी। लेकिन उनकी आवाजों को दबा दिया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब 18 सितंबर 1949 को सभापति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा में देश के नाम पर चर्चा हो रही थी, तब संवैधानिक रूप से देश का नाम भारत, हिंदुस्तान, हिंद, भारतभूमि या भारतवर्ष के नाम सामने आए। कांग्रेस के राष्ट्रवादी नेताओं के.एम.मुंशी, एचवी कामथ, संपूर्णानंद, कमलापति त्रिपाठी और बहुत से नेताओं ने भारत के ऐतिहासिक नाम भारत, भारतभूमि या भारतवर्ष का पक्ष लिया। कमलापति त्रिपाठी ने राष्ट्र का नाम उसकी ऐतिहासिक गौरव के नाम पर रखने के पक्ष में तर्क देते हुए कहा था कि हजारों सालों की गुलामी, दासता और शोषण के बाद दुनिया में आज ऐसा कोई देश नहीं है, जो अपने अतीत को संरक्षित रख सका है, लेकिन हमारा राष्ट्र ऐसी ही परिस्थितियों के बावजूद अपना नाम भारत को संरक्षित रख सका है। लेकिन संविधान सभा में वे लोग यूरोपीय सभ्यता और मार्क्सवादी इतिहासकारों को इसके बारे में समझाने में विफल रहे।
ख्यात ब्रिटिश राजनैतिक लेखक और पत्रकार जॉर्ज ऑरवेल ने ठीक ही कहा था कि किसी भी देश को लोगों को खत्म करने का सबसे प्रभावी तरीका है उन लोगों में अपने ही इतिहास को समझने की क्षमता को खत्म कर दीजिए। भारत की स्वतंत्रता के बाद वामपंथी इतिहासकारों ने इस देश की सांस्कृतिक जड़ों को सींचने वाले नाम भारत की परंपराओं को खोखला करने का वही काम शुरु किया, जो मुगल काल से शुरू होकर ब्रिटिश शासन तक जारी था। और आज तक लेफ्ट, लिबरल सेकुलर दलों की ओर से यह विषवमन अब भी अनवरत जारी है।
दुर्भाग्य से स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की सरकारों ने हमारे पूर्वजों के उन संघर्षों का लगातार घोर अपमान किया है जिन्होंने अपने संघर्षों से इस राष्ट्र की संस्कृति, इतिहास और सभ्यता को बचाकर उसे नई पीढ़ी के पास धरोहर के रूप में छोड़ा था। उन सरकारों ने इस राष्ट्र की संस्कृति और ऐतिहासिक धरोहरों को अपनी मृत्य के लिए छोड़ दिया था।
क्या इस हजारों साल पुराने राष्ट्र की सांस्कृतिक धरोहर और सभ्यता के प्रतीक चिह्नों को ब्रिटिश की स्वार्थी सत्ता तथा लेफ्ट, लिबरल और तथाकथित सेक्युलर इतिहासकारों द्वारा पोषित इंडस या इंडिया नाम के भरोसे छोड़ा जाना चाहिए। यह सही समय है जब हम अपनी गौरवशाली सांस्कृतिक धरोहर भारतवर्ष को फिर से अपने माथे से लगाएं। और इस पुण्य कार्य के लिए देश की संसद, सभी जनप्रतिनिधि और नागरिक आगे आएं।
(लेखक भारतीय सूचना सेवा में कार्यरत हैं)