भारत-बांग्लादेश के बीच स्वर्णिम रिश्तों का नया दौर
प्रणय कुमार
कोविड महामारी के बाद यह प्रधानमंत्री मोदी का पहला विदेश दौरा था। बांग्लादेश के राष्ट्रीय दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में उनका भव्य स्वागत अनेक सकारात्मक संदेशों को अपने भीतर समाहित किए हुए था। उनका यह दौरा भारत-बांग्लादेश के बीच राजनयिक संबंधों के 50 वर्ष पूरे होने के कारण ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि बांग्लादेश अपने नायक व निर्माता शेख मुजीबुर्रहमान के जन्म-शताब्दी वर्ष को ‘मुजीब-दिवस’ के रूप में धूमधाम से मना रहा है। यह बांग्लादेश तथा अपने मित्र एवं पड़ोसी देशों के प्रति प्रधानमंत्री मोदी की प्राथमिकता एवं प्रतिबद्धता को भी दर्शाता है। अंतर्बाह्य तमाम चुनौतियों एवं जटिलताओं के बावजूद भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ सतत संपर्क, संवाद, संबंध एवं मैत्रीपूर्ण सहयोग के प्रति प्रतिबद्ध रहा है। पड़ोसी सर्वप्रथम और वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा को यह देश सही मायनों में जीता आया है। बांग्लादेश के साथ तो हम ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासत भी साझा करते हैं।
इस कोविड-काल में भारत अपने पड़ोसी देशों समेत दुनिया के अनेक देशों का भरोसेमंद साथी बनकर उभरा है, उसने अन्य देशों को कोविड-वैक्सीन प्रदान कर अपनी मित्रता एवं उदारता का परिचय दिया है, वहीं दूसरी ओर बांग्लादेश भी अब संयुक्त राष्ट्र के सबसे कम विकसित देशों की सूची से निकलकर विकासशील देशों में उपस्थिति दर्ज करा रहा है। इस दौरे का दोनों देशों के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं व्यापारिक हितों एवं साझेदारी पर गहरा व सकारात्मक असर पड़ेगा। इस संदर्भ में विदेश मंत्री एस जयशंकर का यह बयान उल्लेखनीय है कि ”भारत और बांग्लादेश के संबंध केवल सामरिक दृष्टिकोण से ही मज़बूत नहीं हुए हैं, बल्कि उससे भी आगे जा चुके हैं। सिर्फ़ दक्षिण एशिया ही नहीं, वरन पूरे इंडो-पेसिफिक क्षेत्र में दोनों देश महत्त्वपूर्ण सहयोगी एवं साझेदार बन चुके हैं।”
प्रायः दो पड़ोसी देशों के बीच रिश्तों में उतार-चढ़ाव, आपसी हितों में टकराव आदि देखने को मिलता रहता है। परंतु तमाम राजनैतिक सीमाओं और मज़हबी दुराग्रहों में बंटे होने के बावजूद यदि दो देशों के नागरिकों के बीच मुहब्बत का नमकीन स्वाद घुला हुआ हो तो केवल मानचित्र के आधार पर जमीन और जनता बंट नहीं जाती। अनेक प्रकार के आरोपित भेदभावों और मज़हबी ताक़तों के निरंतर षड्यंत्रों के बीच भी यदि भारत-बांग्लादेश के नागरिकों में शांति, सौहार्द्र एवं सहयोग का रिश्ता क़ायम रहा है, तो उसके कुछ ठोस कारण हैं। वर्ष 1971 में बांग्लादेश को मिली मुक्ति में भारतीय सेना की निर्णायक भूमिका थी। उसे न वहाँ की सरकार भुला सकती है, न वहाँ की जनता। केवल युद्ध-काल में ही नहीं, अपितु उसके बाद भी भारत ने वहाँ के नागरिकों को सब प्रकार के राहत एवं सहयोग प्रदान करने में कभी कोई संकोच नहीं दिखाया। दोनों देश लगभग 4,096 किलोमीटर की लंबी सीमा और 54 नदियों के पानी की साझेदारी करते हैं, इसके बावजूद दोनों देशों के पारस्परिक संबंध कभी चिंताजनक रूप से तनावपूर्ण नहीं रहे। उलटे फेनी नदी पर बने मैत्री सेतु के निर्मित होने तथा 26 जनवरी को नई दिल्ली के राजपथ पर बांग्लादेश की सैन्य-टुकड़ी के परेड में हिस्सा लेने से दोनों देशों के संबंधों को नई दिशा, ऊर्जा एवं गति मिली है। त्रिपुरा के दक्षिणी छोर सबरूम और बांग्लादेश के रामगढ़ को जोड़ने वाले इस 1.9 किलोमीटर लंबे सेतु का दोनों देशों के राजनयिक एवं सामरिक संबंधों की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसके अलावा जानकारों का कहना है कि इस मैत्री सेतु के प्रारंभ होने के पश्चात त्रिपुरा के सबरूम से चिट्टागोंग बंदरगाह की दूरी केवल 80 किलोमीटर रह जाएगी, जिससे यातायात एवं कारोबार सुगम होगा। इससे पूर्वोत्तर भारत के किसान एवं व्यापारी सुगमता से अपना सामान सीमा के आर-पार ले जा सकेंगें। उल्लेखनीय है कि जहाँ भारत बांग्लादेश से कागज़, तैयार कपड़े, धागा, नमक और मछली जैसी चीजों का आयात करता है, वहीं प्याज़, सूत, कपास, स्पंज आयरन और मशीनों के कलपुर्जे जैसी तमाम रोज़मर्रा की वस्तुएँ उसे निर्यात भी करता है। कोरोना महामारी के कारण दोनों देशों के बीच होने वाले व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था। प्रधानमंत्री की यात्रा से इसमें सुधार की संभावना प्रबल हुई है। उनकी इस यात्रा से सड़क, रेल एवं जलमार्ग के माध्यम से दोनों देशों के मध्य और बेहतर संपर्क स्थापित करने के प्रयासों को बल और परियोजनाओं को गति मिलेगी।
दुर्भाग्यपूर्ण है कुछ लोग प्रधानमंत्री के इस दौरे को असम एवं पश्चिम बंगाल के चुनाव से जोड़कर देख रहे हैं। दो देशों के बीच के राजनयिक एवं सांस्कृतिक संबंधों को चुनावी लाभ-हानि से जोड़कर देखना सतही और संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है। यदि प्रधानमंत्री इस दौरे के दौरान भारतीय दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण किसी धार्मिक केंद्र या श्रद्धास्थल पर गए हैं तो ऐसा पहली बार तो नहीं हुआ है? क्या वे 2015 में ढाकेश्वरी देवी के मंदिर नहीं गए थे? तब तो कोई चुनाव नहीं था? यदि वे मतुआ महासंघ के संस्थापक हरिचांद ठाकुर के ओराकांडी स्थित मंदिर और सतखीरा के ईश्वरपुर स्थित जेशोरेश्वरी (यशोरेश्वरी) काली मंदिर गए तो इस पर आपत्ति एवं हायतौबा क्यों? क्या इसके सामाजिक-सांस्कृतिक महत्त्व व निहितार्थ नहीं? क्या यह दोनों देशों के लोगों के रिश्ते को बेहतर बनाने में सहायक नहीं? आश्चर्य है कि निजी आस्था एवं मान्यता के नाम पर चरित्र एवं औचित्य का प्रमाणपत्र बाँटने वाले लोग भी प्रधानमंत्री के हर निर्णय पर सवाल खड़े करते हैं। उन्हें राजनीतिक चश्मे से देखे बिना रह नहीं पाते। क्या भाषा, कला, संगीत, साहित्य, संस्कृति, श्रद्धा, आस्था जैसे विषयों एवं केंद्रों को अकारण राजनीति में घसीटना उचित होगा? क्या प्रधानमंत्री केवल किसी एक दल के प्रतिनिधि होते हैं, पूरे देश और सवा सौ करोड़ देशवासियों के नहीं? क्या द्विपक्षीय संबंधों में प्रगाढ़ता लाने के लिए दोनों देशों के मध्य सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक स्तर पर समझौते-संबंध अनुचित हैं? क्या राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और बंगबंधु मुजीबुर्रहमान की स्मृति में साझे कार्यक्रम प्रशंसनीय नहीं? क्या बांग्लादेश की आज़ादी की स्वर्ण-जयंती, बंगबंधु की जन्म-शताब्दी जैसे तमाम पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों को प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी योजनाओं से जोड़कर देखना उतावलापन व अदूरदर्शिता नहीं?
सच यही है कि प्रधानमंत्री की इस यात्रा से दोनों देशों के आपसी संबंधों में सुधार होगा, बहुविध हितों को पोषण मिलेगा, सीमाओं के आर-पार लोकतांत्रिक मूल्यों को मज़बूती मिलेगी, कला-भाषा-साहित्य एवं संस्कृति के तल पर साझेदारी बढ़ेगी, सीमावर्त्ती क्षेत्रों में आतंकवादी वारदातों में कमी आएगी, आतंकवाद पर प्रभावी अंकुश लगेगा, शांत-स्थिर-अपराधमुक्त सीमा-प्रबंधन को बल मिलेगा, सीमा पर बाड़ लगाने की लंबित योजनाओं को गति मिलेगी, सीमा पर असैनिक लोगों के जान-माल की हिफाज़त होगी, भूमि-पानी-आसमान में सहयोग और संयोजकता को बढ़ावा मिलेगा, नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर भ्रम एवं संशय दूर होगा। यात्रा से पूर्व ही कयासों एवं अफ़वाहों को हवा देने की बजाय दोनों देशों के मध्य मैत्री, सौहार्द्र एवं सहयोग पूर्ण संबंध स्थापित करने के लिए अनुकूलता निर्मित करने का चौतरफा प्रयास अधिक जिम्मेदारी भरा कदम होगा। प्रधानमंत्री या कोई भी पदेन व्यक्ति विदेशी धरती पर देश के प्रतिनिधि होते हैं, दल या संगठन के नहीं। इसलिए उस पर राजनीतिक टीका-टिप्पणी अच्छी परिपाटी नहीं। और वैसे भी सबसे अच्छी राजनीति वह है, जिसमें दलगत हितों से अधिक देशहित को प्रश्रय एवं वरीयता मिले।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)