भारत भक्त ईसा मसीह मौत के बाद कब्र से निकलकर कहां चले गए थे!

भारत भक्त ईसा मसीह मौत के बाद कब्र से निकलकर कहां चले गए थे!

प्रागैस्लामी अरब में हिंदू-संस्कृति- (भाग-3)

गुंजन अग्रवाल

मिश्र की सिंचाई-पद्धति भारतमूलक है- यह सर्वविदित है।  सूर्य-पूजा का प्रचलन भारतवर्ष से क्रमशः ईरान, मिश्र और अन्त में यूरोप पहुँचा। मिथ्रेइज़्म (Mithraism) (सूर्योपासना-पद्धति) प्राचीन यूरोप में ईसाइयत के प्रादुर्भाव से पूर्व ‘मित्र’ (सूर्य)-पूजा थी। मिश्र द्वारा भारत से मसाले, हीरे-ज़वाहरात, रंग, लोहा, हाथी-दाँत की वस्तुएँ, कछुए की हड्डी, चन्दन की लकड़ियाँ आदि आयात की जाती थीं।

इज़राइल के प्रसिद्ध राजा सोलोमन अथवा सुलेमान (Soloman : 971-931 BC)  अपने महल के लिए सागौन, हाथी दाँत, मलमल, मसाले, ज़ेवरात, मोर इत्यादि भारत से आयात करते थे। एडवर्ड पोकॉक ने लिखा है : ‘सोलोमन के प्रासाद में दृष्टिगोचर होने वाली मूल्यवान सामग्री भारत से ही लाई गई थी। वे वस्तुएँ,  उन्हें लाने के लिए किया गया दीर्घ प्रवास, फणि उर्फ़ फिनीशियन् लोगों का निवास-स्थान और सागर के किनारे किया हुआ तीन वर्षों का प्रवास आदि विवरण ध्यान में रखते हुए वह समस्त मूल्यवान सामग्री अवश्यमेव भारत से ही आई होगी।’

ईसा के जन्म से पहले इजराइल में बौद्ध मत और भारतीयता  

ईसा मसीह (Jesus of Nazareth : 07-00 BC/1 AD—1st Century AD) के जन्म से पूर्व इज़राइल में बौद्ध-मत और भारतीय विद्या का प्रसार सर्वस्वीकृत तथ्य है। महान् भारतीय सम्राट् अशोक (पौराणिक कालगणनानुसार शासनकाल : 1472-1436 ई.पू.) ने बौद्ध-उपदेशकों को समस्त मध्य-पूर्व के लिए इज़राइल भेजा था। ईसा के जन्म से पूर्व इज़राइल में तीन प्रकार के भारतीय उपदेशकों का उल्लेख मिलता है—

  1. थेरपेउतेई (Therapeutae) (पुरुष)/ थेरपेउट्राइड्स (Therapeutrides) (स्त्री)— (बौद्ध उपदेशक/उपदेशिका, स्थविरपुत्र/पुत्री) : जो मनस्ताप के लिए शान्ति के बौद्ध-सिद्धान्तों का उपदेश देते थे। ये अपने कन्धे पर औषधियों का थैला लटकाए रखते थे और रोगियों को औषधि देकर स्वस्थ करते थे। ‘स्थविर’ भी संस्कृत-भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है वृद्ध मनुष्य या वृद्ध भिक्षु। स्थविर शब्द पाली भाषा में ‘थेर’ हो गया है। श्रीलंका में भिक्षुओं का बौद्ध-सम्प्रदाय अभी भी ‘थेरवाद’ के नाम से जाना जाता है। वृद्ध बौद्ध-भिक्षुणियाँ ‘थेरी’ (स्थविरी) कही जाती हैं। सम्राट् अशोक के आह्वान पर युवाओं ने नैतिकता के आदर्श सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार के लिए भिक्षु बनना स्वीकार किया। ऐसे युवक ‘स्थविरपुत्र’ कहलाये। जिस प्रकार श्रीलंका में स्थविर का रूपांतरण ‘थेर’ हुआ, उसी प्रकार इज़राइल में स्थविर का रूपांतरण ‘थेरपेउतेई’ हुआ। इतिहास का एक रोचक तथ्य यह भी है कि इनकी चिकित्सा-सेवा भी कालान्तर में औषधि विज्ञान में ‘थैराप्युटिक’ (Therapeutic) एवं ‘थेरेपी’ (Therapy) कहलायी।
  2. इस्सेंसेस (Essences) : हिंदू-संन्यासी
  3. सद्दुसीज़ (Sadducees) : जैन-साधु।

ईसा मसीह ने भारत में बिताए थे 18 वर्ष ?

ईसाइयत (Christianity) के जनक कहे जाने वाले ईसा मसीह अपने 12वें वर्ष से लेकर 30 वर्ष तक क्या करते रहे अथवा कहाँ थे- इस विषय में बाइबल (नवविधान, New Testament) में कुछ भी लिखा नहीं मिलता। यह समय उन्होंने ज्ञानार्जन, धर्म-चिन्तन और प्रवास में निकाला- ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। इस अवधि में उनका बौद्ध-भिक्षुओं से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं हुआ होगा- ऐसा कौन कह सकता है; क्योंकि उस समय बौद्ध-भिक्षु यूनान तक पहुँच चुके थे। इतिहास से यह सिद्ध होता है कि सिकन्दर के समय से आगे, और विशेषकर अशोक के समय में ही पूर्व की ओर मिश्र के अलेक़्जेंड्रिया तथा यूनान तक बौद्ध-यतियों की पहुँच हो चुकी थी।

भारत भक्त ईसा मसीह मौत के बाद कब्र से निकलकर कहां चले गए थे!

‘ईसा भारत गए थे’— यह विचार सर्वप्रथम चन्दननगर के प्रधान न्यायाधीश (1865-’69) और फ्रांसीसी-लेखक लुई ज़क़ोलियट (Louis Jacolliot : 1837-1890) ने सन् 1869 में ‘La Bible dans l’Inde, ou la Vie de Iezeus Christna’ (भारत में बाइबल) नामक ग्रन्थ में व्यक्त किया। अगले वर्ष उसका अंग्रे़ज़ी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ। उस ग्रन्थ में विद्वान् लेखक ने यह भी सिद्ध किया कि संसार की सभी प्रधान विचारधाराएँ प्राचीन आर्य-विचारधारा से निकली हैं। उसने भारतभूमि को मानवता की जन्मदात्री (Cradle of Humanity) बताते हुए लिखा है— प्राचीन भारतभूमि! मानवता की जन्मदात्री! नमस्कार। पूजनीय मातृभूमि! जिसको शताब्दियों से होने वाले नृशंस आक्रमणों ने अभी तक विस्मृति की धूल के नीचे नहीं दबाया, तेरी जय हो। श्रद्धा, प्रेम, काव्य एवं विज्ञान की पितृभूमि! तेरा अभिवादन। हम अपने पाश्चात्य भविष्य में तेरे अतीत के पुनरागमन का जय-जयकार मनाएं।

ईसा मसीह भारत भक्त थे!

ज़क़ोलियट के पश्चात् एक रूसी कज़ाक़ (Cossack) अधिकारी, गुप्तचर एवं पत्रकार निक़ोलस नोटोविच (Nicolas Notovitch : 1858) को लद्दाख के ‘हेमिस’ (Hemis or Himis) नामक तिब्बती बौद्ध-मठ से ईसा का एक प्राचीन हस्तलिखित जीवन चरित प्राप्त हुआ था। वह तिब्बती-भाषा में था और दो बड़ी-बड़ी ज़िल्दों में समाप्त हुआ था। रूस में पुस्तक पर रोक लग जाने के कारण नोतोविच ने उस ग्रन्थ का फ्रांसीसी-अनुवाद प्रकाशित किया था। प्रकाशन के बाद नोटोविच को रूसी-सरकार ने दो साल के लिए साइबेरिया के बर्फीले रेगिस्तान में कैद कर दिया।

पत्रकार निक़ोलस नोटोविच

इस अनुवाद से ज्ञात होता है कि ईसाइयत के जनक कहे जाने वाले ईसा मसीह भारतीयता के भक्त तथा स्वयं भारत के दीक्षित शिष्य रहे थे। उनका जन्म इज़राइल के एक ग़रीब धर्मनिष्ठ परिवार में हुआ था। बचपन से ही उनकी वृत्ति धार्मिक थी। बारह वर्ष की अवस्था में वह अपने माँ-बाप से रूठकर घर से भाग निकले और किसी व्यापारिक कारवें के साथ सिंध (भारत) आए। यहाँ जैनियों ने उनका स्वागत किया था। ईसा ने पुरी, राजगृह, काशी, मथुरा, काश्मीर, नेपाल, लद्दाख एवं तिब्बत में रहकर भारतीय पण्डितों से योग-संबंधी हिंदू एवं बौद्ध-सिद्धान्तों का अध्ययन किया। उन्होंने बौद्ध-भिक्षुओं से पाली सीखी और बौद्ध-दर्शन में विशेषज्ञता प्राप्त की। उन्होंने फ़ारस की यात्रा करके पारसियों को भी आर्य-धर्म का उपदेश दिया। 29-30 वर्ष की अवस्था में वह स्वदेश लौटे। वह अपने देशवासियों के लिए भारत के विवेक का सन्देश लेकर आये। उन्होंने ‘ओल्ड टेस्टामेण्ट’ (Old Testament) के सिद्धान्त— ‘आँख के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत, हाथ के बदले हाथ और पाँव के बदले पाँव’  के स्थान पर भारत के सर्वे भवन्तु सुखिनः का सन्देश दिया। स्वदेश में उन्हें ग़वर्नर पाइलेट (Pilate) ने कारागार में डाल दिया। बाद में उन्हें क्रूस पर लटका दिया गया। कहते हैं, उनकी मृत्यु हो गयी, किन्तु तीन दिनों पश्चात् उनकी कब्र खुली हुई मिली और उनका कुछ पता न चला कि वह कहाँ गए।

आखिर ईसा मसीह अपनी कब्र से निकल कर कहां चले गए थे। इस पर विस्तार से चर्चा अगले अंक में।

(क्रमशः जारी)

(लेखक महामना मालवीय मिशन, नई दिल्ली में शोध-सहायक हैं तथा हिंदी त्रैमासिक ‘सभ्यता संवाद’ के कार्यकारी सम्पादक हैं)

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