भारत में ‘भारतीय’ बन कर रहें
राष्ट्रचिंतन लेखमाला – 5
नरेंद्र सहगल
‘भारतीय होने का सीधा और स्पष्ट मापदंड है भारत के अखंड भूगोल, सनातन संस्कृति और गौरवशाली अतीत के प्रति आस्था/विश्वास और इसी के साथ जुड़े रहने का दृढ़ संकल्प। अपनी जाति, क्षेत्र और महजब से ऊपर उठ कर ‘हम भारतीय’ कहने में गौरव की अनुभूति, यही तो है भारतीयता। सर्वप्रथम हम भारतीय हैं।
भारतीय होने के उपरोक्त मापदंड के संदर्भ में अनेक प्रश्न खड़े हो जाते हैं। क्या उन लोगों को भारतीय, कहा जा सकता है जो ‘गजवा-ए-हिन्द’ और ‘दारुल इस्लाम’ के स्वप्न देखते हैं? क्या वे लोग भारतीय कहलाने के हकदार हैं जो गरीबों, वंचितों की लाचारी का लाभ उठा कर, उनका मतांतरण करके उनके गले में जबरदस्ती ‘क्रॉस’ लटका देते हैं? वे लोग कैसे भारतीय हैं, जो विदेशों में जाकर खुलेआम तिरंगे ध्वज को जलाकर ‘खालिस्तान’ का शोर मचाते हैं? उन लोगों को भारतीय कैसे माना जाए जो ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ की इच्छा रखते हैं? उन लोगों को भारतीय क्यों कहा जाए, जो चीन से आशीर्वाद लेकर भारत को लाल करने के उद्देश्य से निर्दोष भारतीयों का खून बहाते हैं? हम तो उन लोगों की भारतीयता पर भी प्रश्न उठाएंगे, जो भारत की पराक्रमी सेना के शौर्य पर प्रश्न उठाते हैं।
इन प्रश्नों के घेरे में तो वे राजनीतिक दल और नेता भी आते हैं, जो अपनी सियासी औकात को चमकाने के लिए भारत में रचे गए पवित्र ग्रंथों को ‘घृणित’ पुस्तक कहकर भारत की राष्ट्रीयता का अपमान करते हैं। वेदों में दकियानूसी, रामायण में नारी और पिछड़ो की निंदा, महाभारत में सत्ता की भूख, गीता में जिहाद और मनुस्मृति में सामाजिक वैमनस्य की खोज करते हैं। इन पवित्र मानवीय ग्रंथों के वास्तविक अर्थों से पूर्णतया अनभिज्ञ, सत्ता के भूखे और धर्मविहीन लोगों को क्या भारतीय कहलाने का अधिकार है?
उल्लेखनीय है कि उपरोक्त सभी ग्रंथों में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों, योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया उच्चकोटि का कर्मयोग ज्ञान, मनु द्वारा निर्धारित की गई आदर्श जीवन प्रणाली की व्यवहारिक व्याख्या है। इसी संदर्भ में इस सत्य को भी जान लेना चाहिए कि भारत में ही रचे गए जैन, बुद्ध और सिख धर्मग्रंथों में कहीं भी अलगाववाद अथवा भारतीयता के विरोध में एक अक्षर भी नहीं मिलता। उल्लेखनीय है कि हमारे दस गुरुओं की वाणी, श्रीगुरु ग्रंथ साहिब और दशम ग्रंथ आदि साहित्य में समग्र भारतीयता समाई हुई है। यह सभी ग्रंथ सभी भारतवासियों को एक राष्ट्रपुरुष बनकर खड़ा होने के लिए धरातल प्रदान करते हैं।
वास्तव में भारत की इसी मुख्यधारा से जुड़े रहकर ही हम भारतीय बने रह सकते हैं। इसी राष्ट्रीय स्वाभिमान की आज आवश्यकता है। भारत राष्ट्र की संस्कृति, राष्ट्र के मानबिन्दु, राष्ट्र का इतिहास और राष्ट्र का धर्म (जीवन प्रणाली) और राष्ट्र की उज्ज्वल परम्पराएं ही ऐसे केंद्र बिन्दु हैं, जिनको किसी भी राष्ट्र का स्वाभिमान और राष्ट्रीयता कहा जाता है। इस धारा के साथ जुड़े रहने को ही देशभक्ति कहा जाता है। राष्ट्र की इस मुख्यधारा का सम्प्रदाय, जाति, पंथ, प्रांत और भाषा इत्यादि से कोई भी टकराव नहीं होता।
ये छोटी इकाइयां और समूह राष्ट्र की मुख्यधारा को पुष्ट करने में अपना आवश्यक योगदान करती हैं। इसी प्रकार राष्ट्र की मुख्यधारा भी इन मजहबी इकाइयों के स्वतंत्र विकास में खाद-पानी का काम करती हैं। यदि किसी वर्ग अथवा मजहब के लोग राष्ट्र की मुख्यधारा से हट कर, राष्ट्र पर आक्रमण करने वाले विदेशी लुटेरे आक्रान्ताओं का दामन थाम लें, तो वह वर्ग राष्ट्रीय नहीं कहा जा सकता।
आक्रमणकारियों का स्वागत करना (जैसे 1962 में साम्यवादियों ने चीन की सेना का स्वागत किया था), हमलावरों के साथ मिलकर अपने ही बाप-दादाओं की विरासत को बर्बाद करना और फिर उन विदेशी लुटेरों की तहजीब को स्वीकार करके उनके मजहब में शामिल होकर न केवल अपने पूर्वजों का त्याग ही करना अपितु उनके इशारे पर देश/समाज के घोर शत्रु बन जाना इत्यादि कार्य राष्ट्र के साथ द्रोह करना नहीं तो और क्या है। क्या यही भारतीयता है?
इसी को मानसिक अथवा बौद्धक गुलामी कहते हैं। राजनीतिक परतंत्रता, भौगोलिक परतंत्रता और आर्थिक परतंत्रता तो कालांतर में समाप्त होकर स्वतंत्रता में बदल सकती है, परंतु यह मानसिक परतंत्रता (जिसके अंतर्गत विदेशी शासकों का मजहब स्वीकार किया जाता है) तो राष्ट्र जीवन पर कोढ़ की तरह जाम जाती है। इस कोढ़ को समाप्त किए बिना राष्ट्र जीवन को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। यह गुलामी अगर समाप्त नहीं हुई, तो फिर शेष तीनों स्वतंत्रताएं : भौगोलिक, आर्थिक और राजनीतिक भी सुरक्षित नहीं रखी जा सकती। देश की अखंडता और समाज की एकता पर भी संकट मंडराने लगते हैं।
अतः यदि स्पष्ट रूप से साहस बटोरकर यह स्वीकार कर लिया जाए कि भारत में रहने वाले हम सभी भारतवासी हिन्दू पूर्वजों की ही संताने हैं और हमारा देश पर आक्रमण करने वाले विदेशी/विधर्मी आक्रान्ताओं के साथ कोई संबंध नहीं है, तो भारत की अनेक सांप्रदायिक गुत्थियां क्षणों में ही सुलझ सकती हैं। इसके लिए प्रचंड राष्ट्रभक्ति और प्रबल इच्छा शक्ति (राष्ट्रीयता) की आवश्यकता होती है।
देशभक्त भारतीय बनने के लिए यह समझ लेना आवश्यक है कि मजबूरी में मजहब बदलने से बाप-दादाओं की संस्कृति नहीं बदलती, राष्ट्र के प्रति श्रद्धा में अंतर नहीं आता, मान बिंदुओं के प्रति भक्ति में कोई अंतर नहीं आता और अपने जन्मदाता समाज के प्रति घृणा भी उत्पन्न नहीं होती।
यदि इन ऐतिहासिक और विश्व स्तर पर स्वीकृत सच्चाईयों की वास्तविकता को राष्ट्रहित में स्वीकार कर लिया जाए तो भारत के प्रत्येक व्यक्ति और जाति पंथ की पहचान और स्वतंत्रता पर आंच तक नहीं आ सकती। भारत में भारतीय बनकर रहने का यही एकमेव मार्ग है। यही भारत की अखंडता और सुरक्षा की गारंटी है। गर्व से कहो हम सभी भारतवासी एक राष्ट्रपुरुष हैं।