20वीं सदी में भारत में हुए दो हिन्दू नरसंहार, जिन्हें कभी राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा नहीं बनने दिया गया

20वीं सदी में भारत में हुए दो हिन्दू नरसंहार, जिन्हें कभी राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा नहीं बनने दिया गया

राजीव तुली

20वीं सदी में भारत में हुए दो हिन्दू नरसंहार, जिन्हें कभी राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा नहीं बनने दिया गया20वीं सदी में भारत में हुए दो हिन्दू नरसंहार, जिन्हें कभी राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा नहीं बनने दिया गया

आम बोलचाल की भाषा में हम परस्पर बातचीत के दौरान कई ऐसे शब्दों और मुहावरों का उपयोग करते हैं। लेकिन जब हम इनका उपयोग सामाजिक तौर पर करते हैं तो उनका एक विशिष्ट संदर्भ और अर्थ होता है। उदाहरण के तौर पर दंगा शब्द को लेते हैं। इसके कई पर्यायवाची हैं – जैसे, हिंसक विद्रोह, हत्याकांड, नरसंहार, सामूहिक हत्याकांड और जातीय नरसंहार। लेकिन, इनका विस्तार और व्याख्या करने से पहले हमें उन्हें परिभाषित करने की आवश्यकता है। दंगे वह होते हैं, जिनमें दो या उससे अधिक समूहों के बीच हिंसक लड़ाई होती है, जिसके परिणामस्वरूप दोनों को ही जान माल की हानि होती है।

एक व्यापक शब्द है जातीय नरसंहार

सामूहिक हत्याकांड एक हिंसक दंगा है, जिसमें उद्देश्य किसी जातीय या धार्मिक समूह का नरसंहार या उत्पीड़न होता है।  इसमें सरकारी प्राधिकारियों की भूमिका या तो सक्रिय या फिर निष्क्रिय होती है। हत्याकांड एक समूह द्वारा किए गए अपनी रक्षा ना कर सकने वाले कमजोर पीड़ितों की हत्या है। जातीय नरसंहार एक व्यापक शब्द है, जो बलपूर्वक पलायन, सामूहिक हत्याओं या दोनों के माध्यम से किसी विशेष क्षेत्र को जातीय रूप से समान बनाने के प्रयासों को संदर्भित करता है।

नरसंहार पूरे या आंशिक रूप में लोगों को, जो एक नस्लीय, जातीय, राष्ट्रीय या धार्मिक समूह, को समाप्त करने के लिए की गई सुनियोजित कार्रवाई है। नरसंहार में ना सिर्फ किसी समूह के व्यक्तियों के विरुद्ध की गई उत्पीड़न की कार्रवाई है, बल्कि इसमें सांस्कृतिक नरसंहार भी शामिल है, जिसका उद्देश्य उनकी संस्कृति को नष्ट करना और उनकी संस्कृति व धर्म के प्रतीक चिह्न पर हमला करना है।

उस भौगोलिक क्षेत्र में जो निशाने पर होते हैं, वह सामान्यत: अल्पसंख्यक होते हैं। पहली दृष्टि में साम्प्रदायिक या जातीय आधार पर अल्पसंख्यकों के विरुद्ध घृणा का भाव पैदा करने के लिए अल्पसंख्यक होने के भूत को तेजी से पोषित किया जाता है। एक जातीय समूह विशेष के विरुद्ध घृणा से इसकी शुरुआत होती है। लोगों के मस्तिष्क में कृत्रिम भय पैदा किया जाता है और एक समूह को दूसरे के विरुद्ध खड़ा किया जाता है। यह ना सिर्फ पीड़ितों का भौतिक नरसंहार है, बल्कि उस समूह के अस्तित्व को प्रणालीगत और योजनाबद्ध तरीके से नष्ट करना है। यह ना सिर्फ हमला करना और हत्या करना है, बल्कि जीवन के उस विचार को समाप्त करना है, जिसमें विश्वास का एक पूरा तंत्र शामिल होता है। वह विश्वास धर्म के लिए और पूजा स्थलों के लिए होता है। भौतिक हिंसा में संपत्तियों को लूटना, उनकी महिलाओं की इज्जत लूटना, उनका धर्म परिवर्तन करना और उनकी विचारधारा के साथ ही उनकी जीवन पद्धति को समाप्त करना है। इसमें सांस्कृतिक नरसंहार भी शामिल है, जिसमें ना सिर्फ उनके विचारों को नेस्तनाबूद किया जाता है, बल्कि नरसंहार करने वाले अपने विचार उन पर थोपते हैं। कभी मौन समर्थन करना तो कभी सीधी सहभागिता करना, राज्य प्राधिकारियों की भूमिका इसमें अलग-अलग होती है।

अब हम भारतीय इतिहास की 20वीं शताब्दी के दो भुला दिए गए नरसंहारों की चर्चा करते हैं। यद्यपि हिटलर के नेतृत्व वाले फासीवादी शासन द्वारा यहूदियों के नरसंहार के बाद नरसंहार शब्द प्रचलन में आया, लेकिन 1940 के दशक के यहूदियों के नरसंहार के पहले और बाद में भारत में भी नरसंहार हुए थे।

यहूदियों ने कभी भी अपने मन की सामूहिक चेतन स्मृति से इस अत्याचार को गायब नहीं होने दिया, लेकिन भारत में हुए नरसंहारों को कभी भी राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा नहीं बनने दिया गया। इतना ही नहीं, उन्हें हमारे इतिहास से मिटाने तक के प्रयास किए गए। 20वीं शताब्दी में दो नरसंहार हुए, जिनमें बहुत सारी समानताएं थीं और पैटर्न भी एक सा था। इसे अंजाम देने वालों की सोच और उसे क्रियान्वित करने का तरीका भी एक समान था।

20वीं शताब्दी के दो नरसंहार

पहला नरसंहार था मोपला का, जो अगस्त 1921 में हुआ था। दूसरा, कश्मीर का नरसंहार था, जो 1989-91 में हुआ था। अच्छी बात यह है कि कश्मीर के नरसंहार की घटनाओं से जुड़े इतिहास को ‘‘कश्मीर फाइल्स’’ फिल्म ने उचित स्थान देने का प्रयास किया। लेकिन मोपला नरसंहार अभी भी भारतीय इतिहास से गायब है। उल्लेखनीय है कि इन दोनों नरसंहारों के बीच 70 साल का अंतर है, लेकिन इनके पैटर्न और इनसे जुड़ी घटनाओं की व्यापकता एक समान है।

इन दोनों ही नरसंहारों में हिन्दुओं को निशाना बनाया गया और दोनों ही राज्यों में वे अल्पसंख्यक थे। दोनों ही मामलों में इसे अंजाम देने वाले चरमपंथी मुसलमान थे और आम मुसलमानों ने इनका समर्थन किया था। दोनों ही नरसंहारों को मजहब के नाम पर अंजाम दिया गया। इनका उद्देश्य बलपूर्वक मतांतरण था।

मोपला में हिन्दुओं पर हमले का सुनियोजित प्रयास हुआ था। असहयोग आंदोलन को खिलाफत आंदोलन में बदल कर मुसलमानों के तुष्टिकरण का पहला सीधा परिणाम तत्काल उन्हें इसका लाभ देना था। कश्मीर के मामले में मुसलमानों के तुष्टिकरण का यह प्रयास तत्कालीन राज्य व केंद्र की सरकारों द्वारा किया गया।

इन दोनों ही नरसंहारों में पहली अवस्था अल्पसंख्यकों का भूत खड़ा करना था। दोनों ही मामलों में हिन्दुओं को काफिरों के रूप में प्रस्तुत किया गया था और हिन्दुओं को उस भूमि से जातीय रूप से साफ करने के लिए एक सांप्रदायिक आह्वान किया गया था।

दोनों ही मामलों में मुसलमानों की भीड़ ने हिन्दुओं की हत्या की, उनकी संपत्तियों को लूटा, महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया और उनके पूजास्थलों का बर्बाद किया। इतना ही नहीं जबरन हिन्दुओं का मतांतरण किया गया। बड़ी बात यह कि इसमें मस्जिदें भी शामिल थीं। उन्होंने हिन्दुओं के नरसंहार में बड़ी भूमिका निभाई। कश्मीर में 1381 हिन्दुओं की हत्या की गई। मोपला के मामले में 10,000 हिन्दुओं की हत्या की गई और लाखों को बचाया गया।

केरल में हिन्दू मकानों के मालिक थे। कश्मीर में भी हिन्दू सामाजिक और आर्थिक रूप से अच्छी स्थिति में थे। दोनों ही नरसंहारों से संबंधित घटनाओं को पूरी तरह से नजरअंदाज करने के प्रयास किए गए। मोपला के नरसंहार को दंगे के रूप में दिखाया गया और मैकुलियन-नेहुर्वियन-वामपंथी इतिहासकारों द्वारा इसे कमतर दिखाने के प्रयास हुए।

इसे एक जातीय संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया गया, जिसमें हिन्दू जमींदारों को गरीब मुस्लिम किसानों की तुलना में शोषकों के रूप में प्रस्तुत किया गया था। कश्मीर नरसंहार के मामले को हिन्दुओं के पलायन के रूप में दर्शाया गया। एक पत्रकार ने तो दावा किया कि यह नरसंहार और पलायन इसलिए हुआ क्योंकि हिन्दू “घुसपैठ और विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग” थे।

एक इतिहासकार का कर्तव्य अतीत को साफ करना नहीं है। अतीत में वास्तव में जो हुआ, उसे स्वीकार करके ही हम बातचीत और मंथन से समाधान की ओर बढ़ सकते हैं।

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