भारत-विरोधी कुनबे का सच
बलबीर पुंज
गत 24 जून को सर्वोच्च न्यायालय का 2002 गुजरात दंगा मामले में निर्णय आया। इसके अगले ही दिन राज्य के पूर्व पुलिस महानिदेशक आरबी श्रीकुमार के साथ ‘सिटिज़न फॉर जस्टिस एंड पीस’ नामक एनजीओ की सचिव तीस्ता सीतलवाड़ को गिरफ्तार कर लिया गया। इनके विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 120बी, (आपराधिक साजिश), 468 (जालसाजी), 471 (फर्जी दस्तावेजों का उपयोग), 194 (झूठे साक्ष्य गढ़ने) के अंतर्गत मामला दर्ज किया गया है। इसमें तीसरे आरोपी पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट हैं, जो पहले से हिरासत में मौत के मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे हैं।
इन तीनों पर यह आरोप किसी सरकारी एजेंसी की रिपोर्ट पर नहीं, अपितु शीर्ष अदालत द्वारा नियुक्त एसआईटी की प्रमाणिक जांच के पश्चात न्यायिक जिरह और तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ के निष्कर्ष के आधार पर लगाए गए हैं। इसके अनुसार, “…हमें प्रतीत होता है कि गुजरात के असंतुष्ट अधिकारियों के साथ अन्य लोगों का एक संयुक्त प्रयास खुलासे करके सनसनी पैदा करना था… जांच के बाद एसआईटी ने उनके झूठ को पूरी तरह से उजागर कर दिया… दिलचस्प है कि मौजूदा कार्यवाही (जकिया जाफरी द्वारा) पिछले 16 वर्षों से चल रही है… ताकि मामला उबलता रहे। जांच प्रक्रिया में इस तरह के दुरुपयोग में शामिल सभी लोगों को कटघरे में खड़ा करने और विधिवत रूप से आगे बढ़ने की आवश्यकता है।”
इस षड्यंत्र का केंद्र बिंदु तीस्ता सीतलवाड़ है, जिनके पूर्व सहयोगी रईस खान अदालत में शपथ पत्र दाखिल करके उन पर झूठी गवाही दिलाने का आरोप लगा चुके हैं। बेस्ट बेकरी कांड की प्रमुख गवाह यास्मीन बानो शेख ने भी अदालत को बताया था कि तीस्ता ने उसे अदालत में झूठ बोलने को विवश किया था। यही नहीं, दंगा पीड़ितों को सहायता पहुंचाने के नाम पर एकत्र चंदे का निजी उपयोग करने और विदेशी वित्त पोषण के लिए एफसीआरए (FCRA) का उल्लंघन करने का आरोप है। इस प्रकार के पापों की एक लंबी सूची है।
तीस्ता की भांति झूठ का पुलिंदा बांधने में श्रीकुमार का भी कोई सानी नहीं। उन्होंने न केवल गुजरात दंगे को लेकर भ्रामक गवाही दी, अपितु इसरो वैज्ञानिक नंबी नारायणन को 1994 में फर्जी जासूसी के मामले में फंसाने का षड्यंत्र भी रचा। तब श्रीकुमार केरल में खुफिया विभाग के उप-निदेशक थे और उनके सामने नंबी को केरल पुलिस द्वारा हिरासत में कई बार पीटा भी गया। बाद में सीबीआई ने नंबी पर लगाए आरोपों को पूर्णतया फर्जी और मनगढ़ंत बताया। वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने नंबी को मुआवजा देने के साथ उन अधिकारियों पर कार्रवाई के निर्देश जारी किए, जिन्होंने फर्जी मामले की पटकथा लिखी। वर्ष 2019 में मोदी सरकार ने नंबी को पद्म-भूषण से सम्मानित किया। इस प्रतिभाशाली वैज्ञानिक को फंसाने का एकमात्र उद्देश्य भारत को क्रायोजेनिक इंजन से विमुख रखने का प्रयास था, जिस पर वे काम कर रहे थे। इस इंजन से दो हज़ार किलो वज़नी उपग्रहों को प्रक्षेपित किया जा सकता है, जिसमें देश 20 वर्ष बाद सफल हुआ। सोचिए, श्रीकुमार के देश विरोधी षड्यंत्र के कारण देश को यह उपलब्धि प्राप्त करने में दो दशक का विलंब हो गया।
बात यहीं तक सीमित नहीं। वर्ष 2019 की फोर्ब्स रिपोर्ट हमें यह समझाने में सहायता करती है कि कैसे पर्यावरण-मानवाधिकार के नाम पर (विशेषकर एनजीओ द्वारा) देश के विकास को सफलतापूर्वक बाधित किया जा रहा है। इस रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 1985 में भारत और चीन का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 293 डॉलर था, जिसमें बाद में जमीन-आसमान का अंतर आ गया। इसमें उदाहरण देते हुए बताया गया कि चीनी नदी- यांगत्जी पर बांध (22,500 मेगावाट) दशकभर में तैयार हो गया था, जिसमें 13 नगर, 140 कस्बे, 1,350 गांव डूब गए, तो 12 लाख लोग विस्थापित हो गए। इस पृष्ठभूमि नर्मदा नदी पर बना सरदार सरोवर बांध, जोकि चीनी बांध की तुलना में काफी कम शक्तिशाली (1450 मेगावाट) है और उससे मात्र 178 गांव प्रभावित व बहुत ही कम लोग विस्थापित हुए- उसे पूरा करने में भारत को 56 वर्ष लग गए। नर्मदा बांध की नींव 1961 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू ने रखी थी, जिसका उद्घाटन वर्ष 2017 में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था। इतना विलंब इसलिए हुआ, क्योंकि मानवाधिकार-पर्यावरण संरक्षण के नाम पर मेधा पाटकर के ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ (एनबीए) ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। सरदार सरोवर बांध विरोधी आंदोलन का नाम ‘नर्मदा बचाओ’ था, परंतु क्या बांध बनने से नर्मदा नदी समाप्त हो गई? सच तो यह है कि इस बांध से मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में बिजली के अतिरिक्त 9,490 गुजराती गांवों को स्वच्छ पेयजल मिल रहा है। 3,112 गुजराती गांवों में 18 लाख हेक्टेयर से अधिक, राजस्थान के बाड़मेर-जालौर में लगभग ढाई लाख हेक्टेयर और महाराष्ट्र में जनजाति क्षेत्र के 37,500 हेक्टेयर भूखंड को सिंचाई हेतु पानी प्राप्त हो रहा है। लाभ की एक लंबी सूची है।
हालिया घटनाक्रम देखकर मुझे इस तथाकथित ‘एक्टिविस्ट गैंग’ की एक अग्रणी आवाज, बुकर पुरस्कार से सम्मानित, ‘लेखिका’ और वामपंथी अरुंधति रॉय का दो दशक पुराना आलेख स्मरण होता है, जिसमें उन्होंने दावा किया था कि गुजरात दंगे के दौरान जाफरी की बेटी को भीड़ ने निवस्त्र करके जीवित जला दिया था, जोकि सफेद झूठ था। तब जाफरी की बेटी अमेरिका में सकुशल थी। इस बात के लिए अरुंधति को माफी मांगनी पड़ी थी।
यक्ष प्रश्न है कि तीस्ता सीतलवाड़, अरुंधति रॉय, मेधा पाटकर और इन जैसे सैकड़ों ‘भारतीय पासपोर्टधारक’ आखिर किसके लिए काम करते हैं? उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि इसका उत्तर ‘भारत’ तो नहीं है। वास्तव में, विदेशी वित्तपोषण और बाह्य-वैचारिक खुराक से सुसज्जित यह टोली भारतीय लोकतंत्र, मीडिया और न्यायिक व्यवस्था का दुरुपयोग करके देश के सामान्य जनमानस को उनकी मूल सनातन संस्कृति से काटने और समेकित विकास से वंचित करने का प्रयास कर रहे है, जो अलग-अलग मुखौटे लगाकर भारत के अस्तित्व, सम्मान और विकास के विरुद्ध युद्धरत है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)