क्या महाराजा हरिसिंह के चरित्र के साथ इतिहासकारों ने सही न्याय किया है?

क्या महाराजा हरिसिंह के चरित्र के साथ इतिहासकारों ने सही न्याय किया है?
26 अक्टूबर/जम्मू कश्मीर विलय दिवस
 

प्रणय कुमार

क्या महाराजा हरिसिंह के चरित्र के साथ इतिहासकारों ने सही न्याय किया है?

 
तर्कों एवं तथ्यों के आलोक में जम्मू-कश्मीर की जटिल समस्या के लिए महाराजा हरिसिंह को जिम्मेदार या खलनायक ठहराना सरलीकृत एवं एकपक्षीय निष्कर्ष होगा। बल्कि अधिक तर्कसंगत एवं तथ्यपरक तो यह होता कि उनका नाम इतिहास के अग्रणी नायकों में गिना जाता।
26 अक्तूबर, 1947 का दिन भारत वर्ष के लिए ऐतिहासिक महत्व रखता है। इसी दिन जम्मू-कश्मीर रियासत के महाराजा हरिसिंह ने आपातकालीन परिस्थितियों में अधिमिलन-पत्र यानी ”इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन” पर हस्ताक्षर किए थे। यह सर्वविदित है कि 22 अक्तूबर 1947 को कबायलियों के वेश में पाकिस्तानी हथियारबंद सेना कश्मीर में दाख़िल हुई और सीमावर्ती प्रजा के साथ लूट-मार, महिलाओं के साथ दुराचार जैसी बर्बरता करती हुई बड़ी तेज़ी से श्रीनगर की ओर बढ़ने लगी। इन परिस्थितियों में महाराजा के पास अविलंब विलय के अलावा अन्य कोई विकल्प बचा ही नहीं था। ध्यातव्य हो कि जब महाराजा हरिसिंह ने अधिमिलन-पत्र पर हस्ताक्षर किए, उन्होंने अपनी ओर से विलय के लिए कोई शर्त नहीं रखी थी। न ही उन्होंने बाद में भारत सरकार पर किसी प्रकार का दबाव बनाया था। उन्होंने विलय-पत्र पर हस्ताक्षर करने में जो समय लिया उसके पीछे भी स्थानीय कारण एवं प्रजा-हित का भाव था, न कि उनकी निजी-सत्ताकामी महत्त्वाकांक्षा। विलंब से विलय का भी हौआ अधिक खड़ा किया जाता रहा, क्योंकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर के विलय के पश्चात 12 अन्य रियासतों का भारतीय संघ में विलय हुआ था। महाराजा के पास यह विकल्प था कि वे भारत या पाकिस्तान में से जिसके साथ जाना चाहें, जा सकते हैं। वे चाहते तो इस स्थिति का लाभ उठाकर विलय के लिए तमाम शर्तें लाद सकते थे, सौदेबाज़ी कर सकते थे। पर उन्होंने ऐसा कोई प्रयास नहीं किया। लॉर्ड माउंटबेटन ने पाकिस्तान में विलय के लिए उन पर प्रकारांतर से दबाव भी बनाया था।
ब्रिटिश शासन निहित हितों एवं जम्मू-कश्मीर की सामरिक-भौगोलिक महत्ता के कारण यह चाहता था कि  उसका विलय पाकिस्तान में ही हो। ब्रिटिश सरकार भारत की तुलना में पाकिस्तानी सरकार के मनमाने इस्तेमाल को लेकर अधिक आश्वस्त थी। परंतु महाराजा हरिसिंह किसी भी क़ीमत पर पाकिस्तान के साथ नहीं जाना चाहते थे। उन्होंने सब प्रकार के दबावों एवं प्रलोभनों को ठुकराकर भारत वर्ष में स्वेच्छा से रहना स्वीकार किया था।
यदि स्वतंत्र भारत के इतिहास में सर्वाधिक अन्याय या अपमान किसी के साथ हुआ है तो वह महाराजा हरिसिंह के साथ हुआ है। किसी को नायक, किसी को खलनायक सिद्ध करने की सुनियोजित, सुविधावादी, क्षद्म धर्मनिरपेक्षतावादी सोच के कारण इसे जान-बूझकर बिना किसी विशेष ऐतिहासिक पड़ताल के अत्यधिक प्रचारित किया गया कि महाराजा हरिसिंह जम्मू-कश्मीर को एक स्वतंत्र राष्ट्र तथा स्वयं को उसके राष्ट्राध्यक्ष के रूप में देखना चाहते थे। क्या यह संभव है कि जो बात सामान्य मानवी को साफ-साफ़ समझ आती हो, उसकी समझ महाराजा हरिसिंह को नहीं होगी? उस महाराजा हरिसिंह को जो द्वितीय विश्वयुद्ध में ‘वॉर कौंसिल’ के सदस्य के रूप में देश-दुनिया की राजनीतिक स्थिति-परिस्थिति की बेहतर समझ रखते थे। क्या यह कल्पना की जा सकती है कि उन्हें अपनी भौगोलिक एवं जनसंख्या संबंधी वास्तविकता का बोध न हो?  सच तो यह है कि उन्हें भली-भाँति मालूम था कि उनकी भौगोलिक एवं जनसांख्यकीय स्थिति उन्हें एक स्वतंत्र राष्ट्र एवं शासक के रूप में अधिक दिनों तक अस्तित्व में रहने ही नहीं देगी। ऐसा संभव नहीं कि वे जिन्ना व पाकिस्तान की छिपी हुई मंशा  तथा चीन के संभावित ख़तरे से परिचित न हों। पढ़े-लिखे, शिक्षित व्यक्ति के रूप में वे संपूर्ण देश में व्याप्त राष्ट्रीय चेतना एवं तदनुसार बदलाव का भी सहज ही अनुमान लगा पा रहे होंगे। उन्हें निश्चित आभास रहा होगा कि राजतंत्र अधिक दिनों तक टिकने वाला नहीं है। उनके तमाम निर्णय भी उन्हें उस दौर के एक उदार, प्रगतिशील एवं प्रजा-हितैषी शासक अधिक सिद्ध करते हैं।
महाराजा हरिसिंह ने लंदन के गोलमेज़ सम्मेलन में न केवल दृढ़ता से भारत का पक्ष रखा था, अपितु स्पष्ट तौर पर यह भी कहा था कि जब भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र बनेगा तो वे उसका हिस्सा बनेंगे। उन्होंने अपने राज्य में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक कार्य किए। आर्यसमाजी होने के कारण उन्होंने अपने राज्य में वंचित समाज के लिए मंदिरों के द्वार उस समय खोल दिए थे, जब अन्य रियासतों में इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। बल्कि तथ्य तो यह बताते हैं कि अपनी ग़ैर मुस्लिम प्रजा की सुरक्षा एवं भविष्य को लेकर उनकी कुछ आशंकाएँ एवं चिंताएँ थीं। उन्हें नेहरू जी की ओर से विलय के बाद उन सबकी सुरक्षा एवं भविष्य को लेकर कोई ठोस आश्वासन भी नहीं मिल पा रहा था।
महाराजा काँग्रेस की तमाम नीतियों से पहले से ही असहमत एवं क्षुब्ध थे। नेहरू जी का शेख़ अब्दुल्ला के प्रति एकतरफा प्रेम एवं झुकाव उन्हें दुविधा और अनिर्णय में डाल रहा था। बल्कि शेख़ अब्दुल्ला के प्रति महाराजा का संदेह व आशंकाएँ भविष्य में सत्य और नेहरू जी का विश्वास मिथ्या साबित हुए। काल की कसौटी पर अब्दुल्ला को लेकर उनका आंकलन यथार्थवादी और नेहरू जी का भावुक एवं वायवीय सिद्ध हुआ। अतः तर्कों एवं तथ्यों के आलोक में जम्मू-कश्मीर की जटिल समस्या के लिए महाराजा हरिसिंह को इकलौता जिम्मेदार या खलनायक ठहराना सरलीकृत एवं एकपक्षीय निष्कर्ष होगा। बल्कि अधिक तर्कसंगत एवं तथ्यपरक तो यह होता कि उनका नाम इतिहास के अग्रणी नायकों में गिना जाता।
कम-से-कम उनका नाम हैदराबाद के उस निज़ाम की शृंखला में तो कदापि नहीं लिया जाना चाहिए, जिसने दुनिया के दस से भी अधिक देशों को पत्र लिखकर हैदराबाद को स्वतंत्र मुल्क़ का दर्ज़ा देने का अनुरोध किया, स्वतंत्र भारत से लड़ने के लिए हथियारों के ज़खीरे इकट्ठे किए, शाही खज़ाने को ब्रिटेन में रह रहे तत्कालीन पाकिस्तानी उच्चायुक्त हबीब रहमतुल्ला के खाते में जमा करवा पैसों का भारी हेर-फेर किया। महाराजा हरिसिंह अपनी रियासत के भारत में विलय को लेकर किसी प्रकार के विभ्रम या महत्त्वाकांक्षा से ग्रसित थे, इसका कोई ठोस एवं पुष्ट प्रमाण उनके विरोधी भी आज तक प्रस्तुत नहीं कर सके हैं।
महाराजा के बरक्स तमाम इतिहासकार शेख़ अब्दुल्ला को ऐसे नायक की तरह प्रस्तुत करते हैं, जैसे वे सभी कश्मीरी की लड़ाई लड़ रहे थे। जबकि तथ्यों की कसौटी पर कसने पर कुछ भिन्न ही निष्कर्ष सामने आते हैं। उस समय जम्मू-कश्मीर मुख्यतः पाँच भागों में विभाजित था- जम्मू, कश्मीर, लद्दाख, गिलगिट और बाल्टिस्तान। इन सभी क्षेत्रों को एकता के सूत्र में बाँधकर एक राज्य बनाने का श्रेय डोगरा राजपूतों को ही जाता है। यह शोध का विषय है कि शेख़ अब्दुल्ला की स्वीकार्यता इनमें से केवल घाटी तक सीमित होने के बावजूद नेहरू उन्हें बिना किसी चुनावी प्रक्रिया के प्रधानमंत्री बनाने की हठधर्मिता क्यों पाले बैठे थे? ध्यान देने वाली बात यह भी है कि जिस शेख अब्दुल्ला को कतिपय इतिहासकार आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले महानायकों में शुमार करते हैं उनके द्वारा महाराजा के विरुद्ध छेड़े गए आंदोलन में मज़हब के आधार पर ही घाटी के मुसलमानों को लामबंद किया गया था। प्रारंभ में उनका आंदोलन लोकतंत्र या समस्त भूभाग के निवासियों के लिए न होकर सिर्फ़ मज़हब विशेष तक सीमित था। जिस आंदोलन के मूल में ही सांप्रदायिक सोच हो, उसे स्वतंत्रता-आंदोलन कहकर महिमामंडित करना कितना उचित होगा?
ग़ौरतलब है कि शेख अब्दुल्ला अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से पोस्ट ग्रेजुएट थे। वहाँ से लौटने के बाद उन्हें यह बात बहुत नागवार गुजरी की मुस्लिम बहुसंख्या वाली घाटी में अल्पसंख्यक हिंदू शासक हो। उन्होंने ‘ऑल जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कॉंफ्रेंस’ का गठन कर राजशाही के विरुद्ध मुस्लिमों को भड़काना शुरू किया। बाद में जब उन्हें लगा कि कुछ अन्य धर्मों एवं जातियों को शामिल किए बिना उनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा पूरी नहीं हो सकती तब कुछ सालों बाद उन्होंने इसी संगठन का नाम बदलकर ‘नेशनल कांफ्रेंस’ कर दिया। हाँ, उन्हें इस बात का श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए कि वे जम्मू-कश्मीर का पाकिस्तान में विलय के  प्रबल पैरोकार कभी नहीं रहे। उन्हें अच्छी तरह पता था कि जिन्ना के रहते मुस्लिम लीग में उनकी कोई विशेष पहचान नहीं बनेगी। न आज़ाद पाकिस्तान में वे बड़ी पहचान बना पाएँगें। क्योंकि पृथक पहचान एवं भिन्न राष्ट्रीयता (द्विराष्ट्रवाद) जैसे नारों की भावनात्मक लहर पर सवार होकर जिन्ना उस समय तक मुस्लिमों के सर्वमान्य नेता माने जा चुके थे। इधर अब्दुल्ला पाकिस्तान न जाने को बहुत बड़ा त्याग बता-जतलकर नेहरू से अपनी हर जायज़-नाजायज़ माँग मनवाते रहे। उनकी माँगों को मिली अनवरत एवं अंधी स्वीकृति ने उनकी अदम्य महत्त्वाकांक्षाओं को परवान चढ़ाया और वे जम्मू-कश्मीर को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में ‘पूरब का स्विट्जरलैंड’ बनाने का ख़्वाब संजोने लगे।
सदरे रियासत बनने के थोड़े साल बीतते-बीतते वे जम्मू-कश्मीर को एक संप्रभु राष्ट्र और स्वयं को एक स्वतंत्र राष्ट्राध्यक्ष की तरह देखने-बरतने लगे। अब्दुल्ला-नेहरू मित्रता का परिणाम न केवल राष्ट्र के लिए त्रासद रहा, बल्कि उसकी परिणति भी त्रासद ही रही। जो नेहरू कभी बिना किसी चुनावी प्रक्रिया के शेख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर का तख़्तो-ताज सौंप चुके थे, उन्हें स्वयं इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन को जेल में डालना पड़ा। अब्दुल्ला की जिद्द व जुनून तथा नेहरू से उनकी निकटता के कारण एक ओर कल तक के शासक महाराजा हरिसिंह निर्वासन की पीड़ा भोगने को अभिशप्त हुए तो दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर के निवासियों के भाग्य में भी तरक्की व अमन-चैन नहीं आया। अचरज़ यह कि जिस कश्मीरियत, जम्हूरियत एवं इंसानियत का ढ़ोल पीटा जाता रहा, उसमें भरत मुनि, पाणिनी, आनंदवर्धन, अभिनवगुप्त, वसुगुप्त, ललितादित्य, क्षेमेन्द्र, कल्हण, बिल्हण, रुद्रट, मम्मट, ललद्यद आदि की समृद्ध परंपराओं और लाखों कश्मीरी पंडितों के लिए कोई स्थान या अवसर नहीं छोड़ा गया!
उल्लेखनीय है कि शेख अब्दुल्ला और उनके उत्तराधिकारियों की ग्रंथियों में पैठे सत्ता की अदम्य एवं अनियंत्रित महत्त्वाकांक्षा को पालने-पोसने-सींचने में धारा 370 एवं अनुच्छेद 35 A ने आग में घी का काम किया। आज जब वर्तमान सरकार चिर-प्रतीक्षित राष्ट्रव्यापी आकांक्षाओं एवं अपेक्षाओं को पूरा करते हुए दोहरी राष्ट्रीयता एवं प्रावधानों वाले, देश की एकता एवं अखंडता को बाधित करने वाले- धारा 370 और अनुच्छेद 35 A को समाप्त करने का साहसिक निर्णय लेकर विकास की राह पर दृढ़ता से क़दम आगे बढ़ा चुकी है, तब कुछ लोग जान-बूझकर विभाजनकारी-पृथकतावादी मानसिकता को हवा देते हुए विभाजन की विषबेल को पुनः सींचने एवं संवर्द्धित-संपोषित करने की कुचेष्टा कर रहे हैं। उनकी व्यग्रता और व्याकुलता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वे भारत के शत्रु-राष्ट्र चीन तक से पूर्व की स्थिति बहाल कराने की सार्वजनिक अपील कर रहे हैं। यह जयचंद-मीरजाफ़र जैसी स्वार्थी-सत्तालोलुप मानसिकता नहीं तो और क्या है? ये वही लोग और घराने हैं जो सत्ता और सुविधाओं पर दशकों से कुंडली मारे बैठे रहे हैं और आज भी सत्ता का मोह त्यागने को तैयार नहीं हैं। काल-विशेष में मिली सुविधाओं और रियायतों को सार्वकालिक अधिकार समझ बैठना निर्लज्ज ढिठाई एवं कोरी हठधर्मिता है। उन्हें समझना होगा कि धारा 370 एवं अनुच्छेद 35A अब अतीत का अध्याय बन चुका है। कालचक्र का पहिया आगे की ओर बढ़ता है, पीछे नहीं। उदार, गतिशील एवं आधुनिक समाज स्मृतियों के शव को चिपकाए नहीं घूमता।   वह अतीत से सीख लेकर, वर्तमान को सज़ा-सँवारकर भविष्य की बेहतर एवं मुकम्मल तस्वीर गढ़ता है।

धारा 370 और अनुच्छेद 35 A ने आतंक, अलगाव और कट्टरता को बढ़ावा देने के अतिरिक्त घाटी को और कुछ नहीं दिया है। यही कारण है कि जम्मू-कश्मीर-लद्दाख की आम जनता को 5 अगस्त 2019 को हुआ बदलाव रास आने लगा है। केंद्र की नीतियों, योजनाओं, कार्यक्रमों के लाभ उठाकर  वे अमन, भाईचारा एवं तरक्की की नई इबारत लिखना चाहते हैं। अच्छा होता, विरोध की जिद और जुनून पाले दल और राजनेता विकास की राहों के यात्री और अन्वेषी बनते, न कि हिंसा, आतंक एवं अलगाव के अंधे-अँधेरे कूपों-खोहों-कंदराओं के।

Print Friendly, PDF & Email
Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *