तो क्या महाविद्यालय परिसर बदल जाएंगे?

तो क्या महाविद्यालय परिसर बदल जाएंगे?

निखिल यादव

तो क्या महाविद्यालय परिसर बदल जाएंगे?

किसी भी विभाग में बदलाव आना या लाना, एक लम्बी प्रणाली है। बदलाव समय मांगता है, वातावरण मांगता है और सबसे महत्वपूर्ण निरंतरता की चाहत रखता है। कोरोना महामारी के भारत आगमन के बाद अगर किन्हीं संस्थानों को सबसे पहले प्रत्यक्ष तौर पर भारत सरकार को बंद करने पर मजबूर होना पड़ा था तो उनमें से एक शिक्षण संस्थान थे, जो अभी तक वापस नहीं खुल पाए हैं। विद्यार्थी घर से ही ऑनलाइन माध्यम से पढ़ाई कर रहे हैं। जिस मोबाइल फ़ोन से शारीरिक और मानसिक दुष्परिणाम होते थे, अब वही मोबाइल विद्यार्थियों के स्कूल और महाविद्यालय में कक्षा लगाने का एक महत्वपूर्ण साधन बन चुका है। इतने लम्बे समय तक चलने वाली ऑनलाइन कक्षाओं का दूरगामी परिणाम तो समय ही बताएगा। लेकिन एक पहलू जिस पर मैं इस लेख में ध्यान देने वाला हूँ, वह यह है कि जब युवा महाविद्यालय परिसर में लगभग दो वर्ष के बाद वापसी करेंगे तो क्या परिसर के अंदर वर्षों से चल रहे चाल – चलन में किसी प्रकार का बदलाव आएगा या इसके लिए मात्र इतना समय पर्याप्त नहीं है।

तो क्या महाविद्यालय परिसर बदल जाएंगे? 
स्नातक और स्नातकोत्तर के दौरान महाविद्यालय कैंपस में बिताए गए दिन किसी भी युवा के लिए विभिन्न पहलुओं से महत्वपूर्ण होते हैं। महाविद्यालय कैंपस में उसे पुस्तकीय ज्ञान ही नहीं मिलता है बल्कि वह अपने व्यक्तित्व विकास के अनेकों आयामों से भी परिचित होता है। हॉस्टल में रहने वाले युवाओं को जहां एक तरफ समूह में रहने, भोजन करने, अलग अलग देश – विदेश के ज्वलंत और वैचारिक मुद्दों पर चर्चा और बहस करने का अवसर मिलता है, वहीं दूसरी तरफ अपने घर से रोज़ महाविद्यालय की दूरी तय करके पढ़ाई करने वाले युवा इन सब मुद्दों के साथ साथ अपनी दिनचर्या को ऐसे ढालने का प्रयास करते हैं, जिससे वे परिवार और कॉलेज के बीच समन्वय बनाकर चल सकें। कॉलेज के गेट पर आइडेंटिटी कार्ड दिखाने से लेकर, फोटोकॉपी और एग्जामिनेशन फॉर्म भरने की लाइन में लगने तक के अनेकों अनुभवों से हर युवा को गुज़रना पड़ता था। कैंटीन में चाय और समोसे के साथ कब देश – विदेश के मुद्दों पर हल्की – फुल्की चर्चा वाद – विवाद का रूप ले लेती थी पता ही नहीं चलता था। इसीलिए महाविद्यालय कक्षा में अर्जित ज्ञान ही नहीं बल्कि हर युवा के लिए शारारिक, मानसिक और भावनात्मक विकास का भी केंद्र हुआ करते थे।

जब हर कोई परिसर में नया होता, तब विद्यार्थी अपने ज्येष्ठ विद्यार्थियों का अनुकरण करता था और उनके अनुभव के आधार पर ही अनेकों पहलुओं पर अपना मत बनाता था अथवा निर्णय लेता था। चाहे उसमें विषय का चयन करना हो या अध्यापक के प्रति मत बनाना या विशेष रवैया अपनाना हो, चाहे अहम पुस्तकों का चयन और पिछले वर्ष के नोट्स फोटोकॉपी करवाने हों या फिर आगे की पढ़ाई का चयन करना हो, चाहे नए विद्यार्थियों की रैगिंग करनी हो या फिर परिसर में सकारात्मक या विरोध के नारे लिखने या लगाने हो, चाहे कक्षा या विभाग स्तर का कार्यक्रम करवाना हो या फिर किसी सोसाइटी से जुड़ना हो, चाहे प्रथम वर्ष में महाविद्यालय चुनाव में वोट डालना हो या फिर दूसरे और तीसरे वर्ष में स्वयं चुनाव की तैयारी करनी हो, हर किसी निर्णय में प्रथम वर्ष में पढ़ने वाला विद्यार्थी दूसरे वर्ष और दूसरे वर्ष वाले तीसरे वर्ष में पढ़ने वाले अपने से ज्येष्ठों का अनुकरण करते या उनके अनुभव और सुझाव पर निर्णय लेता था। इसके कारण वर्षों से महाविद्यालय कैंपस में बहुत अधिक मात्रा में परिवर्तन नहीं दिख पाता था। लेकिन पिछले लगभग 18 महीनों से महाविद्यालय बंद हैं विद्यार्थियों के लिए। जिस विद्यार्थी ने 2019 में प्रथम वर्ष में दाखिला लिया था, वह आज स्नातक के तीसरे और अंतिम वर्ष में है। वह प्रथम वर्ष में लगभग 8 महीने प्रत्यक्ष तौर पर महाविद्यालय गया है। उसके बाद सारी कक्षाएं ऑनलाइन ही हुई हैं। दूसरी तरफ जो विद्यार्थी आज दूसरे वर्ष में हैं उन्होंने तो अपने एडमिशन से लेकर अब तक का सफर ऑनलाइन ही तय किया है। जिसमें से अधिकांशों ने तो अपना महाविद्यालय अभी तक देखा भी नहीं है और इस वर्ष जो विद्यार्थी प्रथम वर्ष में एडमिशन ले रहे हैं वे भी अपनी पूरी 12वीं कक्षा ऑनलाइन पढ़ कर आए हैं और एडमिशन ऑनलाइन ही करवा रहे हैं। तो क्या जब महाविद्यालय परिसर फिर से अपनी पूरी क्षमता में खुलेंगे तो एक अलग नजारा दिखेगा? क्या एक बदलाव दिखेगा जहां हर कोई नया होगा? एक ऐसा वातावरण जहां फिर से सब कुछ नए सिरे से लिखने की आवश्यकता होगी? या फिर बदलाव के लिए इतना समय कम है और अभी उसे और समय की आवश्यकता है?

तथाकथित छात्र नेताओं की तो जैसे दुकानदारी ही बंद हो गई है। जो युवा कॉलेज में छात्र संघ चुनाव लड़ने के लिए ही एडमिशन लेते थे उनका तो समझो करियर ही चौपट हो गया। कोरोना के कारण छात्र वैचारिक, जातिगत या धार्मिक प्रदूषण से बचे हुए हैं।  राजनैतिक छात्र संगठन जो कि पिछले अनेकों वर्षों से छात्र हित के नाम पर मात्र चुनाव जीतने का दृष्टिकोण रखते थे, अब उन्हें स्वयं ही इन नवीन परिस्तिथियों में आत्मावलोकन करने की जरूरत आ पड़ी है। इस वर्ष भी अगर परिसर नहीं खुले और चुनाव नहीं हुए तो उनकी प्रासंगिकता क्या रह जाएगी। आज इस दौर में वही संगठन और छात्र नेता प्रासंगिक हैं जो विद्यार्थी को मात्र एक मतदाता नहीं बल्कि महाविद्यालय परिवार का हिस्सा मानते हैं।

परिसर कितने बदलेंगे यह तो समय ही बताएगा लेकिन कोरोना महामारी ने विद्यार्थियों, प्राध्यापकों और महाविद्यालय परिसर के बीच एक लम्बा गैप उत्पन्न कर दिया है, यह साफ दिखाई पड़ता है।

(लेखक विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रान्त के युवा प्रमुख हैं और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधकर्ता हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

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