राष्ट्रीय चिंतनधारा के प्रखर प्रवक्ता माणिकचन्द्र वाजपेयी “ मामाजी ”
डॉ. ईश्वर बैरागी
पत्रकारिता का यदि पांच दशक का इतिहास लिखना हो तो बात श्री माणिकचन्द्र वाजपेयी (मामाजी) से शुरू करनी पड़ेगी। आज जबकि पत्रकारिता के सभी मानदंड खूंटी पर टंग गये हैं, पत्रकारिता सादगी, शुचिता, कर्मठता, कर्तव्य को अलविदा कहते हुए एक नये दौर में प्रवेश कर चुकी है। ऐसे में माणिकचन्द्र वाजपेयी जैसे कर्मठ और ध्येयनिष्ठ पत्रकार याद आते हैं, जिन्होंने अपने जीवन का हर क्षण देश, समाज और पत्रकारिता को समर्पित किया। जैसे दादा माखनलाल चतुर्वेदी “कर्मभूमि” स्वतन्त्रता आंदोलन के प्रवक्ता बने, वैसे ही मामाजी राष्ट्रीय चिंतनधारा और सनातनी संस्कार परम्परा के प्रखर प्रवक्ता बने। मामाजी ने ऐसे दौर में पत्रकारिता की जब समाचार पत्र सत्ता के बेहद निकट पहुंचकर “सत्ता सुख” ढूंढना चाहते थे। उन्होंने स्वदेश के माध्यम से गांव से लेकर नगर तक की बात सत्ता के गलियारों तक पहुंचाई। स्वच्छ पत्रकारिता की पहचान देते हुए व्यवसायिक मानसिकता को स्वदेश की चौखट पर फटकने भी नहीं दिया।
औसत कद सुगठित देहयष्टि सिर पर छोटे-छोटे घने खड़े उगे बाल राष्ट्र की चिंता में ललाट पर खिंची गहरी लकीरें, चतुष्कोणीय श्रमसाध्य मुखाकृति पर पुरुषोचित घनी मूंछें, छोटी छोटी आंखों से प्रस्फुटित पैनी दृष्टि जिस पर गहराई से गड़ जाए वह उनका हो जाए। कर्मठता की प्रतीक सुपुष्ट भुजाएं सतत पथ संचलन के कारण सुदृढ़ पादप पेशियां और धोती व कमीज धारण किए, ऐसी छवि मामाजी के रूप में हमारे अंतःकरण में चिरस्थायी है। मामाजी सदैव मैं नहीं हम के हामी रहे और इन्ही संस्कारों ने कभी उनके ऊपर अहंकार को हावी नहीं होने दिया।
उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के प्रसिद्ध स्थान बटेश्वर में श्रीयुत श्रीदत्त वाजपेयी के यहां 7 अक्टूबर 1919 को तदनुसार आश्वनी कृष्ण त्रयोदशी (पितृ पक्ष) में माणिकचन्द्र वाजपेयी का जन्म हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा बटेश्वर में ही हुई। इसके बाद ग्वालियर आ गए। बहुमुखी प्रतिभा के धनी मामाजी ने मिडिल की परीक्षा में ग्वालियर राज्य में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया। इंटर परीक्षा में अजमेर बोर्ड से स्वर्ण पदक अर्जित किया। बाद में ग्वालियर से ही आपने बी.ए., एल.एल.बी. की उपाधि प्राप्त की।
बटेश्वर से मुरार ग्वालियर आये एक साधारण ग्रामीण बालक के जगत मामाजी बनने की भी रोचक कहानी है। मामाजी की बहन का विवाह मुरार में दीक्षित परिवार में हुआ था। इसलिए दीक्षित परिवार के बच्चे इन्हें मामाजी कहते थे। उनकी देखा- देख आस-पड़ोस के बच्चे भी मामाजी कहने लगे। संघ में आने के बाद माणिकचन्द्र वाजपेयी उपाख्य ‘मामाजी’ बन गए।
मामाजी का विवाह करीब 13-14 वर्ष की छोटी आयु में सुश्री सरला वाजपेयी से हो गया था। समाज जीवन में रहते हुए भी उन्होंने अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों का बखूबी निर्वहन किया। उनके जीवन में कई दुखद घटनाएं हुईं। लेकिन मामाजी कभी विचलित नहीं हुए। हर एक घटना को विधि का विधान समझकर हँस कर सहन कर लिया। अपने लक्ष्य से कभी नहीं भटके ना ही किसी पर दोषारोपण किया। राष्ट्र यज्ञ में जीवन आहुति देने में मामीजी ने उनका पूरा साथ दिया।
मामाजी सगंठन का निर्णय सर्वोपरि मानते थे। संगठन ने जो भी दायित्व दिया उसे वे पूरी लगन और मेहनत से पूरा करने में जुटे रहे और अपने कृतित्व की छाप इस कदर छोड़ते गए कि वह इतिहास बन गई।
शिक्षा पूरी करने के बाद मामाजी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भिण्ड प्रचारक के नाते भेजा। यह वह दौर था जब संघ कार्य अपने शैशव में था। बागी और बीहड़ के नाम से विख्यात इस क्षेत्र को मामाजी ने अपनी कर्मभूमि बनाया। 1944 से 1953 तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में भिंड के चप्पे- चप्पे में घूमकर राष्टभक्ति की अलख जगाई। इतना ही नहीं मामाजी 1954 से 1964 तक भिण्ड जिले के लहरौली में करीब दस वर्ष शिक्षक रहे। इसके बाद ग्वालियर में एक विद्यालय में 1964 से 1966 तक प्रधानाचार्य रहे।
21 अक्तूबर, 1951 को अ.भा. जनसंघ की स्थापना हुई। इसके बाद मध्यभारत में जनसंघ का काम बढ़ाने के लिए कुशाभाऊ ठाकरे को जिम्मेदारी सौंपी गई। मामाजी की उत्तरी मध्यप्रदेश में पकड़ के चलते उन्हें इस का संगठन मंत्री बनाया गया। वे 1951 से 1954 तक संगठन मंत्री रहे। मामाजी ने संगठन के आदेश पर चुनाव भी लड़ा। पहला मुकाबला विधानसभा चुनाव में नरसिंहराव दीक्षित से हुआ। मामाजी चुनाव हार गए, परिणाम आते ही दीक्षित को बधाई देने पहुंच गए। दूसरा चुनाव राजमाता विजयाराजे सिंधिया के खिलाफ लड़ा। मामाजी दूसरे स्थान पर रहे। इस कालखंड में कांग्रेस की तूती बोलती थी। राजमाता जैसी दिग्गज हस्ती के सामने लोग चुनावी रण में उतरने से ही घबराते थे। वहीं जनसंघ के टिकट पर प्रत्याशी ढूंढे नहीं मिलते थे। विचित्र संयोग रहा मामाजी दोनों ही चुनाव हारे लेकिन कालान्तर में अपने दोनों ही विरोधियों को जनसंघ में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। नरसिंहराव दीक्षित भाजपा से राज्यसभा सांसद बने और राजमाता जनसंघ की बड़ी नेता के रूप में उभरीं और जनसंघ से भाजपा के गठन तक उन्होंने तन, मन और धन से पूरा सहयोग किया।
मामाजी को कोई भी काम कठिन नहीं लगता था। जो काम मिलता उसमें वे रम जाते थे। पत्रकारिता में हमेशा से ही उनकी रुचि थी। भिण्ड में शिक्षक रहने के दौरान वे साप्ताहिक पत्र ‘देशमित्र’ में काम करते रहे। वर्ष 1966 में दैनिक ‘स्वदेश’ की स्थापना हुई। मामाजी को नई जिम्मेदारी मिली और उन्हें स्वदेश का काम संभालने के लिए ग्वालियर से इन्दौर भेजा गया। 1968 से 1985 तक इसके सम्पादक रहे। इस बीच आपातकाल का दंश भी झेला और जेल में भी रहे।
स्वदेश से सेवानिवृति के बाद मामाजी को पुनः संघ के प्रचारक की जिम्मेदारी मिली और संघ के प्रत्यक्ष काम में रहते हुए 1985 से ‘स्वदेश’ भोपाल, जबलपुर, सागर व रायपुर, बिलासपुर के सलाहकार संपादक तथा ग्वालियर, सतना, गुना, झांसी के प्रधान संपादक के रूप में 1987 से 2005 तक काम देखते रहे।
मामाजी ने अपनी लेखनी का उपयोग कभी नाम कमाने के लिए नहीं किया। जो लिखा वह इतिहास बन गया। राष्ट्रभक्ति की बलिवेदी पर बलिदान हुए हजारों स्वयंसेवकों को मामाजी की लेखनी ने कलमबद्ध किया। मामाजी द्वारा लिखी गईं आपातकाल की संघर्ष गाथा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहली अग्नि परीक्षा, भारतीय नारी स्वामी विवेकानंद की दृष्टि में, कश्मीर का कड़वा सच, पोप का कसता शिकंजा, ज्योति जला निज प्राण की, मध्य भारत की संघ गाथा आदि चर्चित पुस्तकें हैं।
मामाजी एक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक और वैचारिक पत्रकारिता के अग्रज रहे। जब जब देश के मान बिंदुओं पर प्रहार होता उनकी लेखनी खौल उठती और एक सतत विचार प्रवाह होने लगता। देश में घटित घटनाक्रम पर बेबाक टिप्पणी करते थे। उनकी कलम से कभी कोई दोषी और जिम्मेदार व्यक्ति बच नहीं पाया। एक साधारण सा व्यक्तित्व इतने मुखर और संपादकीय लिख सकता है यह कल्पना करना असंभव था। लेकिन प्रखर विचार पुंज कभी बाहरी आवारण का मोहताज नहीं रहा। समाज को वे हमेशा अराजक तत्वों के षड्यन्त्र से अवगत कराते रहे। मामाजी द्वारा लिखित पुस्तकें, तात्कालिक विषयों पर लिखे गए सम्पादकीय और आलेख की उपयोगिता आज भी उतनी ही है, जितनी उस समय थी।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और मामाजी बाल सखा और एक-दूसरे के संघर्षमय जीवन के साक्षी थे। वाजपेयी ने कहा था “छोटे से गांव बटेश्वर में जन्म लेने वाला वह बालक मनई आज जगत मामा कैसे हो गया, उसकी कथा मर्मस्पर्शी है। इसमें संघर्ष है, राष्ट्रप्रेम है, समाजसेवा का भाव और लोकसंग्रह की कुशलता भी है। मामा जी का जीवन खुला काव्य है जो त्याग, तपस्या व साधना से भरा है। मामाजी ने अपने को समष्टि के साथ जोड़ा, व्यष्टि की चिंता छोड़ दी। मामाजी ने अपने आचरण से दिखाया है कि विचाराधारा से जुड़ा समाचार पत्र सही मार्गदर्शन भी कर सकता है और स्तर भी बनाए रख सकता है।
माणिकचन्द्र वाजपेयी कैंसर से पीड़ित थे, लेकिन अंतिम समय तक उन्होंने इस रोग को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। समाज के कई क्षेत्रों में काम करने वाले मामाजी 27 दिसम्बर 2005 को ब्रह्मलीन हो गए और समृद्ध पत्रकारिता की बहुत बड़ी विरासत छोड़ गए ताकि पत्रकारिता और समाज जीवन में काम करने वाले लोग निरंतर प्रेरणा लेते रहें। ऐसे पत्रकारिता के महर्षि मामाजी को जन्मशताब्दी वर्ष पर कोटिशः नमन!
(लेखक ने मामाजी की पत्रकारिता पर शोध किया है)