स्वाधीनता के संघर्ष में जनजातीय बलिदान का प्रतीक मानगढ़ धाम

स्वाधीनता के संघर्ष में जनजातीय बलिदान का प्रतीक मानगढ़ धाम

 डॉ. कैलाश सोडाणी

स्वाधीनता के संघर्ष में जनजातीय बलिदान का प्रतीक मानगढ़ धामस्वाधीनता के संघर्ष में जनजातीय बलिदान का प्रतीक मानगढ़ धाम

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की महायात्रा में राजस्थान कीमाही, सोम, जाखम की सदानीरा गंगा सदृश नदियों के वरदान से सिंचित वनवासियों के योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। यह भी सत्य है कि इतिहास लेखन की यह त्रासदी रही है कि स्वतंत्रता संग्राम में जनजातीय समाज के बलिदान को इतिहास में वह स्थान नाम नहीं मिला, जिसका वह हकदार था

गोविंद गुरु का आविर्भाव

अंग्रेजी दासता में बंधी देशी रियासतों के शासन में गरीबों एवं पिछड़ों की सेवा करना भी चुनौती पूर्ण था। ऐसे युग में अपने रचनात्मक कार्यों द्वारा स्वाधीनता की लौ वागड़ क्षेत्र में जीवंत करना एवं रखना एक अदम्य प्रेरक पुंज महात्मा द्वारा ही संभव है, वह अमर नाम हैगोविन्द गुरु। ढोलमंजीरों की ताल और भजन की स्वर लहरियों से आम जनमानस को स्वाधीनता के लिए उद्वेलित करने के लिए गोविन्द गुरु ने 1890 में संप सभा नामक संगठन बनाया। संप अर्थात् मेलमिलाप एकता, व्यसनों व कुप्रथाओं का परित्याग तथा अंग्रेजों के अत्याचारों का मुकाबला करने जैसी महत्वपूर्ण गतिविधियों का संचालन। बांसवाड़ा जिले के मानगढ़ धाम को इसका केन्द्र बनाया गया।

भगत आंदोलन से भयभीत अंग्रेज राजा

गोविन्द गुरु ने समस्त जनजाति क्षेत्र के लोगों को अपने भगत आन्दोलन से जोड़ने के लिए गांवगांव में धूणी की स्थापना की तथा 24-25 धूणियों पर एक धाम की रचना की। इस प्रकार 1800 धूणियों एवं 72 धामों के माध्यम से जनजागृति का काम किया जा रहा था। स्वाधीनता की अलख जगाई जा रही थी। गोविन्द गुरु के भगत आन्दोलन से अंग्रेज एवं स्थानीय रियासतें भयभीत होने लगीं। उन्होंने षड़्यंत्रपूर्वक इस आन्दोलन को कुचलने का प्रयास किया। भीलों को बिना अपराध जेलों में डाला जाने लगा। शराब में मूत्र मिलाकर जबरदस्ती पिलाया गया। माँबहनों का अपहरण बलात्कार होने लगा। आन्दोलन के केन्द्र धूणियों को पेशाब शराब डालकर भ्रष्ट किया जाने लगा। गोविन्द गुरु ने अपने अनुयायियों से कहा शान्तिपूर्वक इन अत्याचारों का प्रतिकार करो, अन्याय सहना भी पाप है। चाहे राजा हो या अंग्रेज, इनसे डरने की जरूरत नहीं है। जनता में जोश गया। थानों का घेराव होने लगा। अनेक पुलिस स्टेशनों में आग लगाई गई। गडरा थानेदार गुल मोहम्मद की हत्या कर दी गई। इन घटनाओं से भील समुदाय का मनोबल बढ़ गया। भगत आन्दोलन में तेजी आ गई।

आई थी भारी भीड़

प्रतिवर्ष की भाँति मार्ग शीर्ष पूर्णिमा, 17 नवम्बर, 1913 को महासम्मेलन के अवसर पर हजारों की संख्या में भगतों की भारीभीड़ एकत्रित हुई। गोविन्द गुरु ने हुंकार भरी कि हमारा मार्ग धर्म का है, इसलिए विजय सुनिश्चित है, परन्तु सावधान रहना है। अंग्रेज इस विशाल संख्या को देखकर चुप नहीं बैठेंगे, हमला करेंगे। अन्तत: अंग्रेजों को देश छोड़कर भागना पड़ेगा।

अंग्रेजों ने भेजीं बटालियनें

दूसरी ओर डूंगरपुर, बांसवाड़ा कुशलगढ़ की रियासतें तथा अंग्रेज मिलकर यह योजना बना रहे थे कि सैनिक बटालियनें मानगढ़ भेजकर एकत्रित जन समूह को कुचल दिया जाए। 12 नवम्बर, 1913 को मेजर बैली के नेतृत्व में बड़ौदा से और मेजर स्टोइकले के नेतृत्व में खैरवाड़ा से सैनिक बटालियन मानगढ़ के दोनों छोरों पर पहुँच गई। इसके अलावा देशी रियासतों के सैनिक दल भी आनन्दपुरी पहुंच गए। 16 नवम्बर को एक धमकी भरा पत्र अंग्रेजों ने गोविन्द गुरु को भेजा, जिसमें लिखा आप भारी संख्या में एकत्रित हुए हैं, यह हमें स्वीकार नहीं है। हमने चारों ओर से आपको घेर लिया है आप सभी कल प्रात: सूरज निकलने से पूर्व पहाड़ी से नीचे उतर जाएं, अन्यथा हम मशीनगनों से सभी को भून देंगे। गुरुजी ने कहा – हम अंग्रेजों की चुनौती को स्वीकार करते हैं और अब मैं संघर्ष करते हुए स्वाधीनता प्राप्त कर के ही चैन लूँगा।

हमला, संघर्ष और नरसंहार

कहीं कोई भय एवं निराशा नहीं। सर्वत्र उत्साह का वातावरण बन गया था। जन समूह अंग्रेजों के हमले का प्रतिकार करने के लिए कटिबद्ध था। 17 नवम्बर, 1913 को प्रात: 6.00 बजे अंग्रेज बटालियनों ने रायफलों मशीनगनों से हमला बोल दिया। भील समुदाय टोपीदार बंदूकें तीर कमान से कब तक मुकाबला करते? जनजाति समाज के लगभग 1500 लोग बलिदान हो गए, हजारों घायल हो गए तथा गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर लिया गया। गोविन्द गुरु 900 लोगों को संतरामपुर जेल में बन्दी बनाया गया। देशभर में इस भारी नरसंहार की सर्वत्र निन्दा हुई। अंग्रेजों के विरुद्ध उग्र वातावरण का निर्माण हुआ।

अंग्रेजों के आतंक एवं क्रूरता के नंगे नाच से मानगढ़ बलिदान का अमर स्मारक बन गया। यह जलियांवाला बाग हत्याकांड से पहले की घटना है। गोविन्द गुरु के बलिदान को अक्षुण्ण बनाए रखने हेतु राजस्थान एवं गुजरात में गोविन्द गुरु के नाम से विश्वविद्यालयों की स्थापना प्रशंसनीय कार्य है।

वागड़ की पुण्य धरा की कोख से जन्मे अनेक स्वतंत्रता सेनानी माही की पुण्य भूमि को युगोंयुगों तक गौरवान्वित करने हेतु मरमिट गए। नाना भाई खाट, काली बाई, भीखा भाई, भोगीलाल पण्ड्या, गौरीशंकर उपाध्याय, चन्दूलाल गुप्ता, हरिदेव जोशी, अमृतलाल परमार, देवराम शर्मा, किशनलाल गर्ग, शिवलाल कोटडिया, कुरीचन्द जैन, धूलजी वर्मा, भैरवलाल वर्मा, तुलसीराम उपाध्याय, लाल शंकर जोशी, प्रताप वर्मा जैसे सैकड़ों सेनानियों को शतशत नमन।

दक्षिणी राजस्थान के जनजातीय समाज द्वारा स्वाधीनता के लिए किए गए संघर्ष के कारण वहां की धरा में आज भी उस पवित्र खून की पावन गंध है। आवश्यकता इस बात की है कि इतिहास में हम उसे यथेष्ठ स्थान सम्मान दिलाएं। यही स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के अवसर पर अमर बलिदानियों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

(लेखक महर्षि दयानन्द सरस्वती विश्वविद्यालय, अजमेर एवं गोविन्द गुरु जनजातीय विश्वविद्यालय, बांसवाड़ा के पूर्व कुलपति हैं)

Print Friendly, PDF & Email
Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *