मार्गरेट नोबल से भगिनी निवेदिता तक
स्वामी विवेकानंद शिकागो के अपने कालजयी भाषण के बाद भारत वापस लौट रहे थे। भारत पहुंचने से पहले वे लंदन में रुके, वहॉं पिकैडली कि प्रिंसेस हॉल में उनका एक व्याख्यान था। उस व्याख्यान को आयरलैंड की मार्गरेट नोबल भी सुन रही थीं। व्याख्यान सुनकर मार्गरेट नोबल ने स्वामी विवेकानंद से अनेक प्रश्न पूछे। व्याख्यान और प्रश्नों के उत्तरों से अभिभूत मार्गरेट नोबल स्वामी विवेकानंद की शिष्या बन गईं। 28 अक्टूबर 1867 को जन्मी मार्गरेट नोबल उस समय मात्र 27 वर्ष की थीं। स्वामी विवेकानंद ने उन्हें नाम दिया भगिनी निवेदिता।
वे स्वामी विवेकानंद से इतनी प्रभावित थीं कि कहती थीं – “इस व्यक्ति के ईश्वरीय अंशों व असामान्य नेतृत्व गुण को मैंने पहचान लिया है। मेरी यह इच्छा है कि मैं उनके समाज–विषयक प्रेम का दासत्व स्वीकार कर लूं। मैं चाहती हूं कि जिस समाज से वे इतना प्रेम करते हैं, उस समाज की सेवा के लिए मैं अपने आपको समर्पित कर दूं। यही वह व्यक्तित्व है, जिसे मैं बारंबार प्रणाम करती हूं। यही तो वह चरित्र है, जिसने मुझे विनम्र बनाया है। एक धार्मिक उपदेशक के रूप में मैंने देखा कि उनके पास विश्व को देने के लिए धर्मविचारों की सुव्यवस्थित श्रृंखला है, जिसका मनन करने के पश्चात् कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि सत्य कहीं और है। जब वे अपने धर्म के तत्वों के बारे में बताते हैं और जिस क्षण उन्हें लगता कि कोई विचारधारा सत्य से विसंगत है तो वे उसे दूर कर देते हैं और उनकी इसी महानता के कारण ही मैं उनकी शिष्या बनी हूं।”
स्वामी विवेकानंद ने उन्हें महिला शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के लिए प्रेरित किया। स्वामी जी की भावनाओं के अनुरूप उन्होंने कलकत्ता के बाग बाजार क्षेत्र में एक बालिका विद्यालय खोला। वे घर घर जाकर लड़कियों को स्कूल आने के लिए प्रेरित करती थीं। उन्होंने प्रार्थना के रूप में अपने स्कूल में ‘ वंदे मातरम ‘ का गायन शुरू किया।
वह स्वामी रामकृष्ण की पत्नी शारदा देवी की अत्यंत समीपस्थ थी और रामकृष्ण मिशन की स्थापना और कार्यों के पीछे उनका प्रमुख प्रभाव और भूमिका थी।
भगिनी निवेदिता एक समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता
उन्होंने कलकत्ता में प्लेग महामारी के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, रोगियों की सेवा और गरीब रोगियों का विशेष ध्यान रखा और सड़कों से कचरा साफ करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। उन्होंने युवाओं को स्वैच्छिक सेवाएं प्रदान करने के लिए प्रेरित किया ।
वह एक सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षक और लेखिका थीं। वह कहती थीं कि मानव जाति की सेवा ही भगवान की सच्ची सेवा है ।
वे भारतीय वैज्ञानिक सर जगदीश चंद्र बोस और उनके काम के प्रति उनके अटूट समर्थन के लिए जानी जाती हैं। उन्होंने उन्हें अपने शोध को आवश्यक निष्कर्ष तक पहुंचाने और उसके लिए आवश्यक वित्तीय सहायता प्रदान की ।
रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा: “अपनी सफलता के दिनों में, जगदीश ने भगिनी निवेदिता में एक अमूल्य ऊर्जाकारक और सहायक प्राप्त किया।” निवेदिता ने जगदीश चंद्र बोस की वैज्ञानिक गतिविधियों में सक्रिय रुचि ली।
भगिनी निवेदिता भारत की समर्पित स्वतंत्रता सेनानी
वह अरबिंदो घोष द्वारा नियुक्त राजनीतिक समिति के पांच सदस्यों में से एक थीं जिन्हें क्रांतिकारियों के बिखरे हुए समूहों को एकजुट करने का दायित्व सौंपा गया था। वह अपने घर में वैज्ञानिकों, कलाकारों, पत्रकारों और क्रांतिकारियों के रविवार मिलन समारोह का आयोजन करती थीं और उनमें से प्रमुख अरबिंदो के छोटे भाई बरिंद्र घोष थे।
निवेदिता ने 1902 में भारत की राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का गला घोंटने के लिए गठित ‘विश्वविद्यालय आयोग‘ की स्थापना की निंदा की।
उन्होंने अपनी जनसभाओं में 1905 में बंगाल को विभाजित करने के ब्रिटिश सरकार के निर्णय के विरुद्ध प्रसिद्ध क्रांतिकारी आनंद मोहन बोस द्वारा प्रस्तुत किए गए प्रस्ताव के समर्थन में जोरदार वकालत की।
वह एक विपुल लेखिका थीं और प्रबुद्ध भारत, संध्या, डॉन और न्यू इंडिया के लिए लेखों का योगदान करती थीं।
ऑरबिंदो घोष , उनके भाई बरिंद्र घोष और स्वामी विवेकानंद के छोटे भाई भूपेंद्र नाथ दत्ता द्वारा संचालित क्रांतिकारी अखबार “युगांतर” की योजना 12 मार्च 1906 को निवेदिता के घर पर ही बनाई गई थी।
वह तिरुमालाचारी द्वारा रचित ‘बाल भारत’ और बिपिन चंद्र पाल और द्वारा ‘बंदे मातरम‘ के पीछे भी प्रेरणा स्रोत थीं।
उन्होंने युगांतर का निर्बाध प्रकाशन सुनिश्चित किया और जब भूपेंद्र नाथ दत्ता को कैद किया गया और उन पर 10 रुपये का जुर्माना लगाया गया तो उसे देने के लिए धन संग्रह में भी उन्होंने सहायता प्रदान की।
वह देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी क्रांतिकारियों की मदद करती थीं। वह 1907 में इंग्लैंड गईं और ब्रिटिश सांसदों के साथ बैठकों और साक्षात्कारों की खबरें प्रकाशित करना शुरू कर दिया।
उन्होंने निर्वासन में भूपेंद्र नाथ दत्ता, तारक दत्ता जैसे क्रांतिकारियों की सहायता की और विदेशों से क्रांतिकारी पत्रिकाओं के निर्बाध प्रकाशन और उनके वितरण के लिए धन एकत्रित किया।
भगिनी निवेदिता एक बहुआयामी अद्वितीय प्रतिभा की धनी महिला थीं। स्वामी जी के परिवर्तन प्रक्रिया के कठोर प्रयास ने उन्हें एक देशभक्त में बदल दिया। उसने अपनी पहचान को भारतीयता की भावना से मिला दिया।
44 वर्ष की अल्पायु में 13 अक्टूबर 1911 को दार्जिलिंग में उनका निधन हो गया।
उनके स्मारक पर भारत के प्रति उनके योगदान को इन शब्दों में अभिलेखित किया गया है, “यहां भगिनी निवेदिता विश्राम करती हैं जिन्होंने भारत के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर दिया था”।
बहुत ही प्रेरणादायक लेख