मुल्तान के मंदिर और दिवाली

मुल्तान के मंदिर और दिवाली

विजय मनोहर तिवारी

मुल्तान के मंदिर और दिवालीमुल्तान के मंदिर और दिवाली

 

इंटरनेट की एक गली में कुछ महीनों पहले डॉक्टर साजिद टकरा गए। मैं लाहौर से आगे कुछ खोजते हुए मुल्तान पहुंचा था और वे पुराने मुल्तान के गली-मोहल्लों में निकल रहे थे। मुल्तान का नाम मूल स्थान से पड़ा है, जहां किसी समय कोणार्क जैसा एक विशाल सूर्य मंदिर था। क्रिकेटर इमरान खान ने एक पुस्तक लिखी थी, जो मैंने बीस साल पहले पढ़ी थी-‘इंडस जर्नी।’ मुल्तान के सूर्य मंदिर का उल्लेख उसमें था।

इधर लखनऊ से जितना दूर दिल्ली है, उधर मुल्तान दिल्ली से उतना ही दूर है। पाँच सौ किलोमीटर के आसपास। गांधार से इंद्रप्रस्थ के पारिवारिक संबंधों के समय मुल्तान बीच रास्ते का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा होगा। अखंड भारत के बीच रास्ते में जगमग मूल स्थान। लेकिन अब वह भारत में नहीं है। अब वह भारत नहीं है।

साजिद दो सौ साल पुराने मुल्तान के जैन मंदिरों की तरफ ले जाते हैं, जिनमें आखिरी दिवाली पर लड्डू चढ़ाने समृद्ध जैन समाज के लोग 1946 में ही आए होंगे। उसके बाद इतिहास ने भयानक करवट ले ली थी।

712 में मोहम्मद बिन कासिम के हाथों पतन के पहले 80 सालों तक सिंध के लोगों ने अरबों को जोरदार टक्कर दी थी। मुझे एक भेंट में केआर मलकानी ने बताया था कि कासिम की जीत का उल्लेख इतिहास में बहुत हुआ, लेकिन वे 80 साल किसी को याद नहीं जब हमने अरबों को लगातार धूल चटाई थी।

1193 में मोहम्मद गोरी के नाम से कुख्यात मोइजुद्दीन मोहम्मद साम के दिल्ली विजय तक 481 साल और गुजरे। तब से 1947 तक 754 साल और।

मुल्तान में हिंदू, जैन और सिखों की जनसंख्या गुलामों, खिलजियों, तुगलकों, लोदियों और मुगलों के प्राणलेवा थपेड़ों के बावजूद दो सौ साल पहले अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनी हुई थी। वे शानदार मंदिर, गुरुद्वारे और हवेलियां बनवा रहे थे। स्पष्ट है कि जैन आचार्यों और मुनि संघों के प्रवास और चातुर्मास भी मुल्तान के आसपास होते रहे होंगे। परंपराएं पूरी तरह नष्ट नहीं हुई थीं। आखिरी मजहबी धक्का मोहम्मद नाम के अली जिन्ना के हाथों लगना था, जो दो पीढ़ी पहले काठियावाड़ के पुंजाभाई वालजी ठक्कर का पोता था। पुंजाभाई श्रीनाथजी के भक्त थे। जिन्ना की मां मिट्ठू बाई और बुआ मानबाई। वो कोई आठ सौ साल राज करने की खोखली ठसक से भरा तुर्क या मुगल नहीं था! वो विशुद्ध हिंदू था!

भावरा मोहल्ला पुराने मुल्तान में है, जहां की एक गली में 160 साल पुराने जैन मंदिर की छतों और दीवारों पर चटख हरे, लाल, नीले रंगों की कारीगरी अब तक विद्यमान है। यह एक श्वेतांबर जैन मंदिर था, जहां अब तक हिरण, मोर और सिंह की आकृतियाँ दिखाई देती हैं। एक गाइड खालिद महमूद कुरैशी बताते हैं कि मंदिर का नया परिचय मौलाना हमीली खान के मदरसे का है। मदरसा ताजमुल कुरान!

लगभग ढाई सौ साल पुराना एक दिगंबर जैन मंदिर भी है, जहां नक्काशीदार लकड़ी के भारीभरकम दरवाजे वैसे ही हैं, जैसे जैनियों के जत्थे आखिरी बार बंद करके निकले होंगे। यह अंदरूनी मुल्तान की सबसे मजबूत इमारतों में शामिल है। अब तीर्थंकरों की प्रतिमाएं नहीं हैं। इस प्रांगण में मुसलमानों की बस्ती है। उनकी दुकानें चलती हैं।

साजिद संकरी गलियों में से गुजरते हुए बताना नहीं भूलते कि मुल्तान का यह हिस्सा ऊंची सुरक्षा दीवारों से घिरा था, जहां आए दिन के हमलों से बचने के लिए लोगों ने जीने की अपनी शैली विकसित कर ली थी। हमलावर जत्थों से बचने के लिए चक्करदार गलियां इतनी संकरी कर दी गईं थी कि हाथी और घोड़े तो दूर चार लोग एक साथ भी न निकल सकें। ‘जैनी जानवरों से प्यार करते हैं। उनके घरों और मंदिरों में जानवरों की तस्वीरें स्वाभाविक हैं।’ साजिद कहते हैं।

दिल्ली भारत में रह गई। दिल्ली गेट मुल्तान में है, जिससे सटी है चौड़ी सराय। यहां वार्ड नंबर-3 में दो सौ साल पुराना एक भव्य मकान किसी अश्विनी जैन का है, यह तीन पीढ़ी से कब्जेदार मुसलमानों को याद है। उन्हें यह भी मालूम है कि अश्विनी जैन का परिवार दिल्ली में हीरे-जवाहरात का कारोबारी है।

एक समय यह हिंदुओं, जैनियों और सिखों से भरा हुआ मोहल्ला था, जहां की बुलंद इमारतों में रह रहे लोग अब लाउड स्पीकरों पर पाँच समय की अजानें सुनकर अल्लाह की इबादत करते हैं। हिंदू, जैन और सिखों के सुनसान घरों में अधिकार जमाने वाले पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की रीढ़ नहीं हैं। लेकिन अपने घर, दुकान, खेती और उद्योग से हमेशा के लिए उखाड़े गए वही पुरुषार्थी और पराक्रमी लोग भारत में राख में से न सिर्फ फिर खड़े हो गए बल्कि देश की मजबूत नींव में उनके हिस्से के पत्थर भी पड़े हैं।

गलियों से गुजरते हुए एक ध्वस्त हिंदू मंदिर पर दृष्टि पड़ती है, जहां कभी मूर्ति हुआ करती थी। लेकिन अधिक ध्यान खींचती है रौनकदार यादगार मस्जिद, जिसके बारे में लोग आपको बताएंगे कि मोहम्मद बिन कासिम ने यहां नमाज पढ़ी थी और अल्लाह कितना रहम करने वाला है!

यहां से आगे बढ़ेंगे तो एक ऐसे मंदिर में पहुंचेंगे, जहां एक और मदरसे में दीनी तालीम चल रही है। बच्चे कुरान रट रहे हैं। और मदरसों की महान शिक्षा प्रणाली के क्या कहने? अब तो मोमिन, काफिर, कुफ्र, शिर्क, सवाब, माले-गनीमत के ‘प्रेरक पाठ्यक्रमों’ के बारे में इस अभागी धरती का अंतिम बुद्धिहीन भी जान गया है। भले ही वह भारत के बदबूदार सेक्युलर हिजाब में अज्ञानी बनकर बैठा हो!

चार फुट की एक संकरी गली के पतले कोने में एक मजार नजर आ जाएगी, जहां हर साल उर्स भरता है। अरबी लिपि में किसी ने कुछ लिख दिया है। कोई रहमतुल्लाअलैह, जिनकी अनगिनत मजारों की बहार भारत के गांव, कस्बों और शहरों में भी तेजी से आई हुई है।

फूल बाजार है, यानि रंगबिरंगे फूलों का कारोबार रहा होगा। फूलों का मस्जिद और मदरसों में क्या काम और सच्चे मोमिन तो दिवाली भी नहीं मनाते। फूल बाजार मुल्तान की यादों में रह गया अब सिर्फ एक नाम है, जहां फूल हट्टा मस्जिद ने अपनी नींव जमा ली है। जुमे का दिन है। बाजार बंद है। बिजली के तारों के मकड़जाल में उलझी संकरी गलियों से गुजरते हुए एक विशाल मंदिर की इमारत में 15 फुट ऊपर गणेशजी की मूर्ति को साजिद अपने कैमरे में जूम करते हैं। किसी हिंदू, जैन या सिख की चार मंजिला इमारत किसी इकबाल झरियावाले का पता बता रही है।

कुप बाजार से अन्नू के छज्जे की तरफ बढ़ेंगे तो मुल्तान का प्रसिद्ध हनुमान मंदिर आपका ध्यान खींचेगा। एक मोहल्ले से स्टेडियम दिखाई देने लगता है। यह कभी धानी मोहल्ला था, अब ताज मोहम्मद के नाम से है। मालिक बनने का सबसे आसान तरीका है नाम बदल दीजिए। शहर का, मोहल्ले का, इंसान का। बस नई पहचान सामने नजर आएगी। गलियों से बच्चों की आवाजें आ रही हैं। मदरसों से लौटते बच्चों को क्या पता, उनकी असल पहचान क्या है!

पुराने नामों की खनक आज भी है- खन्ना मेंशन…कूचा टहलराम…छन-छन मंगल वाली गली…साजिद इनके नाम सुनकर कहते हैं- ‘जबर्दस्त नाम हैं, मुझे ही पता नहीं थे।’

अब वे दुनिया की सबसे तंग गली तक हमें ले आए हैं, जिसमें से आखिर में एक ही आदमी निकल सकता है। एक और शानदार घर सामने है। नुक्कड़ पर गोलाकार फ्रंट एलिवेशन में बना यह भुवनेश खन्ना का घर है। सन् 1947 में खन्ना का परिवार जब ताले लगाकर निकला होगा तो उन्होंने गलियों और मोहल्लों में जिहादी नारे सुने होंगे। आग और धुएं की लकीरें मुल्तान के आसमान में देखी होंगी। दंगाइयों के ये लक्षण आज भी दर्शनीय हैं। शायद उन्हें आशा रही होगी कि सब कुछ सामान्य हो जाएगा और वे वापस आ जाएंगे। वे कभी नहीं आए। कोई बताता है- ‘माशाअल्ला, भुवनेश खन्ना दिल्ली में एक मीडिया संस्थान के मालिक हैं। उनके मां-बाप यहां पैदा हुए थे।’

मुल्तान की गलियों में अखंड भारत के अवशेष हैं। इनसे निकलकर जब आप मुख्य सड़क पर आते हैं तो इलेक्ट्रॉनिक मार्केट में आज के पाकिस्तानियों की भीड़भाड़ में खो जाते हैं। हर दिन पांच बार चारों तरफ अजान की आवाजें आपको यह भूलने नहीं देती कि आप ईमान की रोशनी से तर इलाके में हैं। बंटवारे के पहले का पुराना किरोन सिनेमा टूटकर तबाह हो चुका है। उसके मालिक भी अगर बचकर निकल पाए होंगे तो भारत के किसी शहर में खप गए होंगे।

1946 की दिवाली पर मुल्तान की इन गलियों के मूल निवासियों ने कभी सपनों में नहीं सोचा होगा कि एक वर्ष नहीं अब अंतिम चंद महीने ही उनके पास हैं! अल्लाह का फैसला मोमिन के हक में हो चुका है! मुल्तान में अब उनका कोई हक नहीं!

पाकिस्तान और बांग्लादेश क्या हैं? 75 साल पहले काल के गाल में समा गए हमारे ही हिस्से। भारत क्या है? हमारी धरती का बचा हुआ वह हिस्सा, जिसने अभी-अभी स्वाधीनता का अमृतकाल मनाया। भारत की भाग्य रेखाओं में काल और अमृतकाल एक साथ गति कर रहे हैं।

डॉक्टर साजिद अपने अगले वीडियो के लिए फिर मुल्तान के किसी और गली-मोहल्ले का रुख करेंगे। उनके साथ इंटरनेट का भी धन्यवाद। अपने ही भारत के एक बड़े काल कवलित भूभाग की मुल्तानी सूखी टहनी दिखाने के लिए!

मुल्तान के किसी कोने में यदि भारत बचा हो तो उसे दिवाली की शुभकामनाएं!!

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