उत्तरप्रदेश में मूर्तियों की राजनीति आखिर क्या गुल खिलाएगी

उत्तरप्रदेश में मूर्तियों की राजनीति आखिर क्या गुल खिलाएगी

अनुराग शुक्ला

उत्तरप्रदेश में मूर्तियों की राजनीति आखिर क्या गुल खिलाएगी

मूर्तियां बोलती नहीं पर यूपी में वे बाकयदा राजनीति करती हैं। यूपी की राजनीति में मूर्तियां एक बार फिर से जिंदा हो चुकी हैं। इस बार मूर्तियों को राजनीतिक खाद पानी निषाद और ब्राह्मण राजनीति के तथाकथित ठेकेदारों ने दिया है। मूर्ति राजनीति ने पहले दस्युओं को सांसद और अब पूजनीय बना दिया है। अब यूपी में मतों के लिए ऐसे महापुरुष गढ़े जा रहे हैं जो माफिया, क्रिमिनल और हिस्ट्रीशीटर्स रहे हैं। उनकी मूर्तियां लगाने की तैयारी की जा रही है।

उत्तरप्रदेश में मूर्तियों की राजनीति आखिर क्या गुल खिलाएगी

उत्तर प्रदेश में निषाद, केवट और मल्लाहों के वोट में कुछ सीटों की राजनीति तलाशने वाले फूलन देवी की मूर्ति लगाने पर आमादा हैं। इसी तरह विधानसभा के चुनावी साल में ब्राह्मणों की राजनीति में आए उबाल ने माफिया श्रीप्रकाश शुक्ला और हिस्ट्रीशीटर की मूर्ति लगाने का ऐलान करने का साहस भी दे दिया।

उत्तर प्रदेश में अपनी सियासी जमीन तलाशने के लिए बिहार से वीआईपी यानी विकासशील इंसान पार्टी के प्रमुख मुकेश साहनी ने निषाद वोटों को अपना टारगेट बनाया है। बिहार विधानसभा में 4 सीटें जीतने के बाद अब यूपी चुनाव में केवट मल्लाहों के सहारे अपनी सियासी नैय्या पार लगाना चाहते हैं। ऐसे में सबसे आसान उन्हें मूर्ति राजनीति का रास्ता लगा। विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) ने डकैत से नेता बनीं फूलन देवी की पुण्यतिथि पर उनकी 18 फुट की 18 प्रतिमाओं को स्थापित करने और यूपी के 18 जिलों में समारोह आयोजित करने की योजना बनाई थी। बहरहाल पार्टी प्रमुख मुकेश साहनी को यूपी पुलिस ने वाराणसी हवाई अड्डे पर रोक दिया और प्रतिमाएं जब्त कर लीं। वीआईपी ने भाजपा पर अपनी “जातिवादी मानसिकता” का आरोप लगा गया। ये बात और है कि बिहार में एनडीए गठबंधन में ही इस पार्टी ने चार सीटें जीती हैं पर राजनीति में जमीन बदलते ही सियासत की तासीर भी बदल जाती है।

भौतिक विज्ञान में न्यूटन के गति का तीसरा नियम पढ़ाया जाता है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। न्यूटन का राजनीति से कोई मतलब नहीं था पर यूपी की राजनीति में ये नियम शत-प्रतिशत सही साबित होता है। लिहाजा अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजेंद्र नाथ त्रिपाठी ने कानपुर के चौबेपुर में आयोजित ब्राह्मण महासम्मेलन में ऐलान किया फूलन देवी की तरह वो विकास दुबे और श्रीप्रकाश शुक्ला की मूर्ति लगवाएंगे। उन्होने तो दोनों को महापुरुष बताकर कहा- मैं दोनों को महापुरुष मानता हूं।  इन दोनों महापुरुषों की मूर्तियां लगावाने का काम करूंगा।

अब सवाल ये है कि विकास दुबे कौन हैं। विकास दुबे, जिसे विकास पंडित के नाम से भी जाना जाता था, उसके खिलाफ पहला आपराधिक मामला 1990 के दशक की शुरुआत में दर्ज किया गया था, और 2020 तक उनके नाम पर 60 से अधिक आपराधिक मामले दर्ज थे। विकास दुबे पर पुलिस ने 5 लाख का इनाम भी रखा था। जुलाई 2020 को, दुबे और उसके गुर्गों को गिरफ्तार करने के प्रयास के दौरान, एक पुलिस अधीक्षक (DSP) सहित आठ पुलिसकर्मी मारे गए थे। पोस्टमार्टम से पता चला है कि डीएसपी की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी।

इसी तरह श्रीप्रकाश शुक्ला 1980 और 90 के दशक में यूपी में दहशत का दूसरा नाम था। गोरखपुर के रहने वाले श्रीप्रकाश शुक्ला ने राजधानी लखनऊ में खुले आम गोली चलाकर जरायम की दुनिया के बहुत से पायदानों को एक झटके में पार कर लिया था। विकास दुबे हों या फिर श्री प्रकाश शुक्ला जुर्म की दुनिया के ऊंचे खिलाड़ी और दहशत के बड़े नाम हो सकतें हैं पर ये योग्यता उन्हें महापुरुष नहीं बना सकती है।

महापुरुष की अहर्ता में तो फूलन देवी भी नहीं आती हैं। ये सच्चाई है कि उनके साथ ज्यादती की पराकाष्ठा की अंतिम सीमा भी लांघी गयी थी। फूलन हो या कोई भी महिला उसके साथ ज्यादती निकृष्ट है, निंदनीय है अक्षम्य है। फूलन का बंदूक उठाना, जो उन्होंने किया उस पर विवाद हो सकता है पर फिर भी वो महापुरुष के श्रेणी में नहीं आती हैं। बावजूद इसके कि बुद्धिजीवियों का एक वर्ग उन्हें नारी सशक्तिकरण का पर्याय साबित करने में पिछले दो दशक से जुटा है। बावजूद इसके कि वो लोकसभा की सांसद बनीं, बावजूद इसके कि मुलायम सिंह यादव ने उनको दस्यु से माननीय बना दिया।

दरअसल मूर्ति लगाकर वोट बटोरने का ये फार्मूला बिना मेहनत के फल का रास्ता है। जातियों में बंटी यूपी की राजनीति हो या फिर तमिलनाडु की वर्ग राजनीति दोनों ही जगहों पर मूर्ति की भरमार देखने को मिलेगी। मायावती के स्मारकों को लेकर बहुत राजनीति हुई।  मायावती की सरकार और फिर अखिलेश के आने-जाने में भी इन स्मारकों की बड़ी भूमिका रही। दरअसल ये स्मारक जातीय राजनीति के उफान के प्रतीक के साथ सत्ता मिलने पर  बसपा सुप्रीमो की चक्रवर्ती सम्राट बनने की चाहत का पर्याय हैं। अगर गौर से देखें तो हर स्मारक सम्राट अशोक के स्थापत्य काल की याद दिलाता है। चार सिंह की जगह चार हाथी वाले पिलर, बौद्ध स्तूपों की तरह मंडप और उसी तरह के पत्थर। और तो और मायावती ने अपने जीवन काल में दलित राजनीति का हवाला देकर अपनी मूर्ति भी लगवा ली।

वैसे अपने जीवन काल में मूर्ति लगाने वाली मायावती अकेली और अनोखी नहीं है। कांग्रेस के प्रमुख और तमिलनाडू के लोकप्रिय नेता रहे कामराज ने भी अपने जीवित रहते हुए ही अपनी प्रतिमा मद्रास के सिटी कॉर्पोरेशन में स्थापित करवाई। और प्रधानमंत्री रहते जवाहर लाल नेहरू ने इसका अनावरण भी किया। नेहरू ने संसद में महात्मा गांधी की प्रतिमा लगाने का विरोध किया था। उनकी मृत्यु के बाद देश भर में उनके स्मारक बनाए जाने के लिए कांग्रेस ने नेहरू मैमोरियल ट्रस्ट बना दिया।

उत्तर प्रदेश में जिनकी मूर्तियां लगाने की बात चल रही है उनके पीछे कोरे कुतर्क, जातीयता की आड़ में राजनीतिक महत्वाकांक्षा ही दिखाई दे रही है। परशुराम, चाणक्य, संदीपन, कश्‍यप, नारद, वशिष्‍ठ, पराशर, शांडिल्‍य, गौतम , मंगल पांडे, तांत्‍या टोपे, वीरांगना लक्ष्‍मी बाई, महान क्रांतिकारी पं. रामप्रसाद बिस्मिल, चन्‍द्रशेखर आजाद, स्‍वातत्र्य वीर सावरकर, कल्‍पना दत्त, सुहासिनी गांगुली, अन्‍तरिक्ष यात्री राकेश शर्मा तथा महापंडित राहुल सांकृत्‍यायन की जगह ऐसे लोगों की मूर्ति कुतर्क नहीं तो और क्या है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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