मॉं भारती के दो सपूत, लोकमान्य तिलक और चंद्रशेखर आजाद

मॉं भारती के दो सपूत, लोकमान्य तिलक और चंद्रशेखर आजाद

23 जुलाई : जन्म जयंती लोकमान्य तिलक और चन्द्रशेखर आजाद

रमेश शर्मा

मॉं भारती के दो सपूत, लोकमान्य तिलक और चंद्रशेखर आजादमॉं भारती के दो सपूत, लोकमान्य तिलक और चंद्रशेखर आजाद

प्रतिदिन प्रात: कालीन सूर्य को उदित होने में करोड़ों पलों का बलिदान होता है। प्रत्येक पल का योगदान अतुलनीय है। यदि कोई पल रुका तो सूर्यदेव की गति थम जायेगी। फिर भी इन पलों में कुछ पल ऐसे होते हैं, जो प्रहर की भूमिका का निर्वाह करते हैं। वे अंधकार में प्रत्येक पल की यात्रा की दिशा निर्धारित करते हैं। भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में भी हम पलों के संघर्ष और प्रहर पलों के मार्गदर्शन को समझ सकते हैं। भारत को स्वतंत्रता साधारण संघर्ष से नहीं मिली है। इसके लिये लाखों करोड़ों बलिदान हुए, जिनकी गणना तक नहीं है। यदि हम पुराने संघर्ष का आंकलन न करें, केवल 1857 और उसके बाद के संघर्ष को देखें तो इसमें ही बलिदानियों की संख्या कोई पचास लाख से ऊपर होगी। इसकी विवेचना फिर कभी।

आज हम केवल उन दो महाविभूतियों की चर्चा करेंगे, जिनकी भूमिका प्रहर पलों के रूप में रही। उन्होंने संघर्ष को एक निश्चित दिशा दी। इन महाविभूतियों की स्मृति जुलाई माह के साथ सहज ही आ जाती है। ये हैं लोकमान्य तिलक और चन्द्रशेखर आजाद। इनके संघर्ष की शैली अलग थी, काल-खंड भी अलग अलग, पर ध्येय एक था। वह ध्येय था राष्ट्र की स्वतंत्रता और स्वभिमान को प्रतिष्ठित रखना। इनमें यदि लोकमान्य तिलक और चंद्रशेखर आजाद स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले ही बलिदान हुए तो डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने स्वतंत्रता के पश्चात भारत राष्ट्र की अखंडता के लिये अपने प्राण दिये।

लोकमान्य तिलक

लोकमान्य तिलक का नाम केशव गंगाधर था। लेकिन वे लोकमान्य तिलक के नाम से जाने गये। उनके लोकमान्य कहलाने का कारण यह था कि उनकी बातें सटीक और सर्वमान्य हुआ करती थीं। उन्होंने नारा दिया था कि स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। उनका जन्म 23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र प्रांत के रत्नागिरी जिले के गाँव चिखली में हुआ। उन्होंने पहले बीए परीक्षा उत्तीर्ण की फिर वकालत पास की।

यह वह कालखंड था, जब देश में स्वतंत्रता के लिये एक बड़ी तैयारी हो रही थी। तब देश में प्रथम सशस्त्र और संगठित क्रांति की असफलता के बाद अंग्रेजों के दमन का दौर चल रहा था। अंग्रेज क्रांति के प्रत्येक सूत्र का क्रूरता से दमन कर रहे थे। क्रांतिकारियों और सशस्त्र संघर्ष के सेनानियों को ढूंढ ढूंढ कर सामूहिक फाँसियां दी जा रही थीं, उनकी खोज में गाँव के गाँव जलाये जा रहे थे। सामूहिक दमन के इस दृश्य के बीच बाल गंगाधर तिलक ने होश संभाला। यह स्वाभाविक ही था कि दमन के इन दृश्यों से उनके मानस में स्वत्व का बोध और दासत्व की विवशता का चित्रण सशक्त हुआ था। इसीलिये बाल्यकाल से ही उनके मन में संगठन, संघर्ष और स्वत्वाधिकार की भावना प्रबल होती चली गई। उनके परिवार की पृष्ठभूमि सांस्कृतिक जुड़ाव की रही है। इसीलिये भारतीय गरिमा की कहानियाँ उन्हे कंठस्थ थीं। उन्होंने उस समय की प्रचलित आधुनिक शिक्षा की सभी बड़ी डिग्रियां हासिल कीं। लेकिन उन्होंने कहा था कि अंग्रेजी शिक्षा बड़ों का अनादर सिखाती है, परिवार तोड़ना सिखाती है। 1857 की क्रांति की असफलता के बाद देश का एक बड़ा वर्ग अंग्रेजों की शैली को अपनाने की होड़ में आगे बढ़ने लगा था। तिलक इस समूह को सतर्क करना चाहते थे। उन्होंने एक शिक्षा समिति गठित की, जिसका नाम था दक्षिण शिक्षा सोसायटी। उसमें शिक्षा तो आधुनिक शैली में थी, परंतु भारतीय चिंतन एक प्रमुख पक्ष था। इसके साथ उन्होंने दो समाचार पत्रों का प्रकाशन आरंभ किया। एक मराठी में और एक अंग्रेजी में। मराठी समाचार पत्र का नाम केसरी और अंग्रेजी समाचार पत्र का नाम मराठा दर्पण रखा। इन दोनों ही समाचार पत्रों में भारतीय संस्कृति की महत्ता और विदेशी शासन द्वारा दमन किये जाने का विवरण होता था। वे समय के साथ स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े और कांग्रेस के सदस्य बन गये। लेकिन तिलक के जल्दी ही कांग्रेस नेतृत्व से मतभेद हो गये। इसका कारण यह था कि तब कांग्रेस के एजेण्डे में भारतीयों को सम्मान जनक अधिकार देना तो था पर अंग्रेजी सत्ता का विरोध न था। जबकि तिलक अंग्रेजों और अंग्रेजी सत्ता के एकदम विरुद्ध थे। इसका सीधा टकराव 1991 में देखने को मिला। तब अंग्रेज ऐज ऑफ कंसेंट विधेयक लाये जिसमें हिन्दुओं की बेटियों की शादी की आयु निर्धारित की गयी थी। तिलक यद्धपि बाल विवाह के पक्षधर नहीं थे, पर हिन्दुओं के निजी मामले में सरकार के हस्तक्षेप के विरुद्ध थे, और फिर उनका तर्क था कि कानून केवल हिन्दुओं पर ही क्यों लागू हो रहा, अन्य पर क्यों नहीं? तिलक जी ने इस विधेयक का पूरी शक्ति से विरोध किया। कांग्रेस अधिवेशन में प्रस्ताव भी रखा, सार्वजनिक सभाएं भी आयोजित कीं और अपने दोनों अखबारों में लेख भी लिखे। कांग्रेस के भीतर एक बड़ा समूह ऐसा था जो समाज में कुरीतियों के सुधार के लिये इस कानून को आवश्यक मानता था। इसलिये यह कानून बन गया। लेकिन तिलक जी ने अपना विरोध जारी रखा। इसी विधेयक के बाद कांग्रेस में सीधे सीधे दो गुट बन गये। इनकी टकराहट का विवरण काँग्रेस के इतिहास में दर्ज है। एक समूह गरम दल और दूसरा समूह नरम दल।

अपनी असहमति और अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों पर तिलक जी ने स्वयं को केवल वक्तव्य या सभाओं तक ही सीमित न रखा, उन्होंने आलेख लिखने की भी शृंखला चलाई। इन लेखों के कारण उनपर अनेक मुकदमे चले। कई बार सजाएं और जुर्माने हुए। 27 जुलाई 1897 में उनपर देशद्रोह का मुकदमा चला और 6 साल की कैद हुई। अपनी इसी जेल यात्रा में तिलक ने गीता रहस्य लिखा।

जेल से छूटने के बाद उन्होंने दो उत्सव आरंभ किये। एक शिवाजी महाराज उत्सव और दूसरा गणेशोत्सव। तिलक जी की लेखनी से बौद्धिक वर्ग में तो क्रांति आ ही रही थी कि इन उत्सवों के आयोजन से अन्य वर्गों में भी चेतना का संचार हुआ। तिलक जी ने इन दोनों उत्सवों का आरंभ मनौवैज्ञानिक तरीके से किया। समाज का जो वर्ग धार्मिक भावना वाला था वह गणेशोत्सव से जुड़ा और जो सांस्कृतिक और सामाजिक रुझान वाला वर्ग था वह शिवाजी महाराज उत्सव से जुड़ा। तिलक जी के इन प्रयत्नों से समाज का प्रत्येक वर्ग जाग्रत हुआ और स्वाधीनता संघर्ष का वातावरण बनने लगा। यह उस समय के वातावरण का ही प्रभाव था कि 1905 में जब तिलक जी ने देवनागरी को सभी भारतीय भाषाओं की संपर्क भाषा बनाने का आह्वान किया तो पूरे देश का समर्थन मिला और जगह जगह संस्थाएं बनने लगीं, भाषाई आयोजन होने लगे।

तिलक जी ने काँग्रेस के समर्थन और अनुशासन की चिंता किये बिना 1907 में पूर्ण स्वराज का नारा दिया और 1908 में सशस्त्र क्राँतिकारियों खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाको जैसे आंदोलनकारियों का खुलकर समर्थन किया। यही कारण था बंगाल और पंजाब के क्राँतिकारी समूह तिलक जी से जुड़ गये। तिलक जी 1916 में ऐनी बेसेन्ट द्वारा गठित होमरूल सोसायटी से जुड़े। उनका निधन 1 अगस्त 1920 को मुम्बई में हुआ। तिलक जी का व्यक्तित्व कितना विशाल था इसका उदाहरण उनके निधन पर गाँधी जी और नेहरू जी की प्रतिक्रिया से समझा जा सकता है।

तिलक जी के निधन पर गाँधी जी ने कहा था कि “वे आधुनिक भारत के निर्माता थे।” तो नेहरू जी ने उन्हें भारतीय क्रांति का जनक कहा था। इन दोनों विभूतियों ने तिलक जी के लिये अनेक बार विशिष्ट शब्दों से ही अपनी श्रद्धांजलि दी।

चन्द्रशेखर आजाद

23 जुलाई, एक और महान क्राँतिकारी चन्द्रशेखर आजाद की भी जन्मतिथि है। वे इसी दिन 1906 में मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के अंतर्गत ग्राम भावरा में जन्मे थे। उनके पूर्वज उत्तर प्रदेश के बदरका ग्राम के रहने वाले थे। लेकिन प्राकृतिक और राजनैतिक विषम परिस्थितियों के चलते उन्होंने अपना पैतृक ग्राम छोड़ दिया और अनेक स्थानों से होते हुए 1905 के आसपास उनके पिता सीताराम तिवारी झाबुआ आ गये। यहीं बालक चन्द्रशेखर का जन्म हुआ। पिता सीताराम तिवारी और माता जगरानी देवी के परिवार ने 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों का दमन झेला था। वह सामूहिक दमन था, गाँव के गाँव फाँसी पर चढ़ाये गये थे। अंग्रेजों के इस दमन की परिवार में अक्सर चर्चा होती थी। बालक चन्द्रशेखर ने वे कहानियाँ बचपन से सुनी थीं। इस कारण उनके मन में अंग्रेजी शासन के प्रति एक विशेष प्रकार की वितृष्णा का भाव जागा था, उन्हें गुस्सा आता था अंग्रेजों पर। भावरा गाँव वनवासी बाहुल्य प्रक्षेत्र था। अन्य परिवार गिने चुने ही थे। ये परिवार वही थे जो आजीविका या नौकरी के लिये वहां आकर बसे थे। इस कारण बालक चन्द्रशेखर की टीम में सभी वनवासी बालक ही जुटे। इसका लाभ यह हुआ कि बालक चन्द्रशेखर ने धनुष बाण चलाना, निशाना लगाना और कुश्ती लड़ना बचपन में ही सीख लिया था। उन दिनों वनवासी गांवों के आसपास के वन्यक्षेत्र में वन्यजीवों का बाहुल्य हुआ करता था। वन्यजीवों की अनेक प्रजातियाँ हिंसक भी होती थीं इसलिये वनवासी गाँव के निवासियों को आत्मरक्षा की कला बचपन से आ जाती थी। बालक चन्द्रशेखर भी इन्हीं विशेषताओं को सीखते हुये बड़े हुये। परिवार का वातावरण राष्ट्रभाव, स्वायत्ता और स्वाभिमान के बोध भाव से भरा था। इस पर गाँव का प्राकृतिक और सामाजिक वातावरण, इन दोनों कारणों से बालक चन्द्रशेखर के मानसिक और शारीरिक विकास में तीक्ष्णता समृद्ध हुई। उनमें सक्षमता और स्वायत्तता का बोध भी जागा। 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के विरोध में देश भर में विरोध प्रदर्शन हुए। किशोरवय चन्द्रशेखर ने इसमें भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। लेकिन उनकी दृढ़ता और संकल्पशीलता का परिचय तब मिला, जब वे मात्र चौदह साल के थे। यह 1920 की घटना है। वे आठवीं कक्षा में पढ़ते थे। आयु बमुश्किल चौदह वर्ष की रही होगी। जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद पूरे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण बनने लगा था। यह क्रम लगभग साल भर तक चला था। चूंकि तब संचार माध्यम इतने प्रबल नहीं थे। जहां जैसा समाचार पहुँचता लोग अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते। गाँव गाँव में बच्चों की प्रभात फेरी निकालने का क्रम चल रहा था। अनेक स्थानों पर प्रशासन ने प्रभात फेरियों पर पाबंदी लगा दी थी। झाबुआ जिले में भी पाबंदी लगा दी गयी थी। पर भावरा गाँव में यह प्रभात फेरी बालक चन्द्रशेखर ने निकाली। उन्होंने किशोर आयु में ही किसी प्रतिबंध की परवाह नहीं की और अपने मित्रों को एकत्र कर कक्षा का बहिष्कार किया। बच्चों को एकत्र किया और खुलकर प्रभात फेरी निकाली। प्रभात फेरी में रामधुन के साथ स्वाधीनता के नारे भी लगाये। बालक चन्द्रशेखर और कुछ किशोरों को पकड़ लिया गया। बच्चों को चांटे लगाये गये, माता-पिता को बुलवाया गया, कान पकड़ कर माफी मांगने को कहा गया। लोग डर गये बाकी बच्चों को माफी मांगने पर छोड़ दिया गया। लेकिन चन्द्रशेखर ने माफी न माँगी और न स्वयं को गलत माना। उल्टे भारत माता की जय का नारा लगा दिया। इससे नाराज पुलिस ने उन्हें जिला मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया और पन्द्रह बेंत मारने की सजा सुना दी गयी। उनका नाम पूछा तो उन्होंने अपना नाम “आजाद” बताया। पिता का नाम “स्वतंत्रता” और घर का पता “जेल” बताया। यहीं से उनका नाम चंद्रशेखर तिवारी के बजाय चन्द्रशेखर आजाद हो गया।

बेंत की सजा देने के लिये उनको निर्वस्त्र किया गया। खंबे से बांधा गया और बेंत बरसाये गये। हर बेंत उनके शरीर की खाल उधेड़ता रहा और वे भारत माता की जय बोलते रहे। बारहवें बेंत पर अचेत हो गये फिर भी बेंत मारने वाला न रुका। उसने अचेत देह पर भी बेंत बरसाये। लहूलुहान किशोरवय चन्द्रशेखर को उठा घर लाया गया। ऐसा कोई अंग न था जहाँ से रक्त का रिसाव न हो। उन्हें स्वस्थ होने में, और घाव भरने में एक माह से अधिक का समय लगा। इस घटना से चन्द्रशेखर आजाद की दृढ़ता और बढ़ी। इसका उल्लेख पूरे भारत में हुआ। सभाओं में उदाहरण दिया जाने लगा।

अपनी शालेय शिक्षा पूरी कर चन्द्रशेखर पढ़ने के लिये बनारस आये। उन दिनों बनारस क्राँतिकारियों का एक प्रमुख केन्द्र था। यहां उनका परिचय सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी मन्मन्थ नाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी से हुआ और वे सीधे क्राँतिकारी गतिविधियों से जुड़ गये। आंरभ में उन्हें क्राँतिकारियों के लिये धन एकत्र करने का काम मिला। यौवन की देहरी पर कदम रख रहे चन्द्रशेखर आजाद ने युवकों की एक टोली बनाई। वे उन जमींदारों या व्यापारियों को निशाना बनाते जो अंग्रेजपरस्त थे। इसके साथ यदि सामान्य जनों पर अंग्रेज सिपाही अत्याचार करते तो बचाव के लिये आगे आते। उन्होंने बनारस में कर्मकांड और संस्कृत की शिक्षा ली थी। उन्हें संस्कृत संभाषण का अभ्यास भी खूब था। अतएव अपनी सक्रियता बनाये रखने के लिये उन्होंने अपना नाम हरिशंकर ब्रह्मचारी रख लिया था और झाँसी के पास ओरछा में अपना आश्रम भी बना लिया था। बनारस से लखनऊ कानपुर और झाँसी के बीच के पूरे क्षेत्र में उनकी धाक जम गयी थी। वे अपने लक्षित कार्य को पूरा करते और आश्रम लौट आते। क्रांतिकारियों में उनका नाम चन्द्रशेखर आजाद था तो समाज में हरिशंकर ब्रह्मचारी। उनकी रणनीति के अंतर्गत ही सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी भगतसिंह अपना अज्ञातवास बिताने कानपुर आये थे। 1922 के असहयोग आन्दोलन में जहाँ उन्होंने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया वहीं 1927 के काकोरी कांड, 1928 के सेन्डर्स वध, 1929 के दिल्ली विधान सभा बम कांड, और 1929 में दिल्ली वायसराय बम कांड में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। यह चन्द्रशेखर आजाद का ही प्रयास था कि उन दिनों भारत में जितने भी क्राँतिकारी संगठन सक्रिय थे, सबका एकीकरण करके 1928 में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन हो गया था। इन तमाम गतिविधियों की सूचना तब अंग्रेज सरकार को लग रही थी। उन्हें पकड़ने के लिये लाहौर से झाँसी तक लगभाग सात सौ खबरी लगाये गये थे। इसकी जानकारी चन्द्रशेखर आज़ाद को भी लग गयी थी। अतएव कुछ दिन अप्रत्यक्ष रूप से काम करने की रणनीति बनी। वे हरिशंकर ब्रह्मचारी के रूप में ओरछा आ गये। उस समय के कुछ क्राँतिकारी भी साधु वेष में उनके आश्रम में रहने लगे थे। लेकिन क्राँतिकारी आंदोलन के लिये धन संग्रह का दायित्व अभी भी चन्द्रशेखर आजाद पास ही था। वे हरिशंकर ब्रह्मचारी वेष में ही यात्राएं करते और धन का संग्रह करते।

धनसंग्रह में उन्हें पं. मोतीलाल नेहरू का भी सहयोग मिला। वे जब भी आर्थिक सहयोग के लिये प्रयाग जाते या पं मोतीलाल नेहरू से मिलने की योजना बनती वे हमेशा इलाहाबाद के बिलफ्रेड पार्क में ही ठहरते थे। वे संत के वेश में होते थे। बाद में यही पार्क उनके बलिदान का स्थान बना। वह 27 फरवरी 1931 का दिन था। पूरा खुफिया तंत्र उनके पीछे लगा था। वे 18 फरवरी को इस पार्क में पहुंचे थे। यद्यपि उनके पार्क में पहुंचने की तिथि पर मतभेद हैं, लेकिन वे 19 फरवरी को पं.  मोतीलाल नेहरू की तेरहवीं में शामिल हुये थे। तेरहवीं के बाद उनकी कमला नेहरू से भेंट भी हुई। कमला जी यह जानती थीं कि पं मोतीलाल नेहरू क्राँतिकारियों को सहयोग करते थे। उनके कहने पर चन्द्रशेखर आजाद 25 फरवरी को आनंद भवन में पं जवाहरलाल नेहरू से मिलने पहुंचे । इस बातचीत का विवरण कहीं नहीं है। मुलाकात हुई। अनुमान है कि पं नेहरू ने भी सहयोग का आश्वासन दिया था पर इसके प्रमाण कहीं नहीं मिलते। हालांकि बाद में पं नेहरू ने अपनी आत्मकथा में क्राँतिकारियों की गतिविधियों पर नकारात्मक टिप्पणी की है और चन्द्रशेखर आजाद को फ़ासीवादी लिखा है। जो हो। चन्द्रशेखर आजाद पार्क में ही रहे और 27 फरवरी को पुलिस से बुरी तरह घिर गये। पुलिस द्वारा उन्हें घेरने से पहले सीआईडी ने पूरा जाल बिछा दिया था। मूंगफली बेचने, दातून बेचने आदि के बहाने पुलिस पूरे पार्क में तैनात हो गयी थी और 27 फरवरी को सबेरे सबेरे पुलिस की गाड़ियां तीनों रास्तों से पहुँचीं। एनकाउन्टर आरंभ हुआ, पर ज्यादा देर न चल सका। यह तब तक ही चला जब तक उनकी पिस्तौल में गोलियाँ रहीं। वे घायल हो गये थे और अंतिम गोली बची तो उन्होंने अपनी कनपटी पर मार ली। वे आजाद ही जिये और आजाद ही विदा हुए।

उनके बलिदान के बाद अंग्रेजों ने शव का अपमान किया और दहशत पैदा करने के लिये पेड़ पर लटका दिया। यह खबर कमला नेहरू को मिली। उस समय पुरुषोत्तमदास टंडन आनंद भवन आये थे। कमला जी टंडन जी को लेकर पार्क पहुँचीं। अंग्रेजी अफसरों से बात की। शव उतरवाया और सम्मान पूर्वक अंतिम संस्कार का प्रबंध किया।

बिलफ्रेड पार्क में उनके होने की सूचना अंग्रेजों को कैसे मिली इस पर अलग-अलग इतिहासकारों ने अलग-अलग संदेह व्यक्त किया है।

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