बदलते भारत में ‘नकारात्मक-राजनीति’ की प्रासंगिकता

बदलते भारत में 'नकारात्मक-राजनीति' की प्रासंगिकता

बलबीर पुंज

बदलते भारत में 'नकारात्मक-राजनीति' की प्रासंगिकताबदलते भारत में ‘नकारात्मक-राजनीति’ की प्रासंगिकता

अगला लोकसभा चुनाव होने में पौने दो वर्ष का समय बचा है। कई विरोधी नेता स्वयं को अभी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प प्रस्तुत करने में व्यस्त हो गए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें से अधिकांश महत्वाकांक्षी गैर-कांग्रेसी नेता, भाजपा से पहले कांग्रेस को ही निपटाना चाहते हैं। यह तृणमूल कांग्रेस के हालिया वक्तव्य से स्पष्ट है, जिसमें उसने प्रधानमंत्री मोदी के सामने कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी को विफल बता दिया। स्पष्ट है कि विरोधी दलों (अधिकांश क्षत्रप), जिनकी राजनीति केवल एक विशेष क्षेत्र-जाति-मजहब पर केंद्रित है और उनकी राष्ट्रीय हिस्सेदारी भी संकुचित है- उनका कांग्रेस से न तो कोई सकारात्मक सहयोग दिखता है और ना ही शायद आगे दिखेगा।

कांग्रेस के प्रति इस उदासीनता का स्वाभाविक कारण भी है। यह ठीक है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी- कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता या मोर्चाबंदी अधूरी है, किंतु वर्तमान कांग्रेस का राजनीतिक क्षरण भी एक सच है। गत 21 अगस्त को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री आनंद शर्मा ने पार्टी में अपनों द्वारा ‘बहिष्कार’ और ‘अपमान’ की बात कहते हुए हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की संचालन समिति के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। इससे पांच दिन पहले पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने भी कांग्रेस की कश्मीर प्रचार समिति के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है। बीते वर्षों में उसके कई नेता पार्टी तक छोड़ चुके हैं।

वास्तव में, वर्तमान कांग्रेस की समस्या बहुआयामी है। पहला- पार्टी नेतृत्व संकट से दो-चार है, जो दशकों से गांधी परिवार के बौद्धिक क्षमता-दक्षता तक सीमित है। परिवारवाद के विष-आलिंगन में फंसी कांग्रेस की कार्य प्रणाली केवल गांधी-नेहरू परिवार की पसंद-नापसंद से प्रभावित है। दूसरा- पार्टी का बौद्धिक रूप से शून्य होना है। आज हम जिस कांग्रेस को देख रहे हैं, वह अपने व्यवहार-आचरण से भारत-हिंदू विरोधी जहरीले वामपंथी चिंतन की घटिया कार्बन-कॉपी है, जिसे तत्कालीन कांग्रेस ने वर्ष 1969-71 में ‘आउटसोर्स’ किया था। इसी कारण ही वह विचारधारा के नाम पर कालबाह्य घिसे-पीटे वामपंथी नारों-जुमलों से चिपकी हुई है। अपने मूल सनातन-राष्ट्रवादी चिंतन के आभाव में कांग्रेस की स्थिति ऐसी हो गई कि कई मुद्दों (राष्ट्रहित सहित) पर उसकी प्रतिक्रिया विमूढ़ है। तीसरा- फर्जीवाड़े के बल पर सोनिया गांधी और उनके पुत्र राहुल गांधी पर हजारों करोड़ रुपये की संपत्ति हड़पने का आरोप है, जिसे लेकर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) दोनों से घंटों पूछताछ कर चुकी है।

ऐसा नहीं है कि वित्तीय-कदाचार से केवल कांग्रेस अभिशप्त है। क्या यह सत्य नहीं कि हाल के वर्षों में विरोधी दलों के नेताओं की अवैध संपत्ति और घरों में नोटों का अंबार मिल रहा है? प.बंगाल के शिक्षक भर्ती घोटाले में वरिष्ठ तृणमूल नेता और पूर्व मंत्री पार्थ चटर्जी, महाराष्ट्र में 100 करोड़ रुपये की मासिक अवैध उगाही के मामले में पूर्व मंत्री अनिल देशमुख और 300 करोड़ की संपत्ति मामले पूर्व मंत्री नवाब मलिक की गिरफ्तारी- इसके उदाहरण हैं।

नवंबर 2012 में जिस आम आदमी पार्टी (आप) का जन्म भ्रष्टाचार विरोधी जनज्वार में हुआ था, आज उसके शीर्ष नेताओं पर वित्तीय-धांधली और शराब माफियाओं को अनुचित लाभ पहुंचाने का आरोप है। यह विडंबना है कि जिस भारत-विरोधी ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ समाचार पत्र में छपे आलेख को आधार बनाकर ‘आप’ दिल्ली में अपने उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को ‘दुनिया का सर्वश्रेष्ठ शिक्षा मंत्री’ बता रही है, वे स्वयं अपनी उस ‘नई शराब नीति’ को आदर्श बता रहे हैं, जिसमें दिल्ली के मुख्य सचिव ने घोटाले की आशंका व्यक्त की है। पंजाब में पहली बार ‘आप’ सरकार बनने के कुछ दिन बाद ही मुख्यमंत्री भगवंत मान को अपने ही स्वास्थ्य मंत्री विजय सिंगला को भ्रष्टाचार के आरोप में हटाना पड़ा था।

सच तो यह है कि विचारधारा-विहीन ‘आप’ के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ऐसे समय स्वयं को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प मान रहे हैं, जब उनकी पार्टी का लोकसभा में एक भी सांसद नहीं है। ‘आप’ की राजनीति का मुख्य आधार बिजली-पानी जैसे मूल्यवान संसाधनों का मुफ्त वितरण है, जिस पर शीर्ष अदालत गंभीर चिंता व्यक्त कर चुका है। यह दिलचस्प है कि जो पंजाब भारी-भरकम कर्ज में फंसा हुआ है, वहां ‘आप’ सरकार केंद्र से एक लाख करोड़ रुपये का विशेष आर्थिक पैकेज मांगकर संभवत: अपने चुनावी वादे, हर घर को 300 यूनिट बिजली मुफ्त सहित अन्य लोक लुभावन छूट देना चाहती है।

बीते दिनों बिहार में जातिवादी-मजहबी राजनीति से प्रेरित होकर भाजपा से नाता तोड़कर फिर से पाला बदलने और ‘जंगलराज के पर्याय’ राजद के साथ मिलकर सरकार बनाने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की प्रधानमंत्री बनने की लालसा सर्विदित है। इस दौड़ में पश्चिम बंगाल में लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनीं तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) अध्यक्षा ममता बनर्जी, तेलंगाना में लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने टीआरएस के के.चंद्रशेखर राव और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार भी पीछे नहीं हैं। अधिकांश विपक्षी दल, ‘लोकतंत्र-विरोधी’ परिवारवाद के चंगुल से जकड़े हुए हैं। जिस प्रकार का प्रयास विपक्षी नेता कर रहे हैं और उसमें यदि वे सफल भी होते हैं, तो उसकी स्थिति क्या होगी?- यह वर्ष 1989-2014 के बीच बनी 10 ‘खिचड़ी सरकारों’ से स्पष्ट है, जिसमें प्रत्येक क्षण अपने अस्तित्व को लेकर ‘असुरक्षा’ और कुछ अपवादों को छोड़कर राष्ट्रहित में सख्त निर्णय लेने की ‘अक्षमता’ का भाव था।

वर्तमान विपक्ष की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वे बार-बार दोहराते तो हैं कि उनका लक्ष्य प्रधानमंत्री मोदी को हटाना है, परंतु यह कोई नहीं बताता कि वे ऐसा कौन-सा सकारात्मक कार्यक्रम लागू करेंगे, जो मोदी सरकार नहीं कर रही। यह स्थापित सत्य है कि विगत सवा आठ वर्षों में प्रचंड बहुमत के साथ जमीन पर जनहितैषी-आधारभूत योजनाओं का बिना किसी जातीय-मजहबी भेदभाव के प्रभावी क्रियान्वयन, शीर्ष स्तर का भ्रष्टाचार से मुक्त होना, सुदृढ़ आर्थिकी, देशहित में कठोर निर्णय लेने की इच्छाशक्ति, राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति मुखर प्रतिबद्धता के साथ भारत को उसकी मूल सनातन संस्कृति से जोड़ने आदि का प्रयास- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मजबूत बनाता है। इस पृष्ठभूमि में क्या विरोधियों की नकारात्मक राजनीति सफल होगी?

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