मोहन भागवत के संदेश का मंतव्य

मोहन भागवत के संदेश का मंतव्य

अजय दिवाकर

मोहन भागवत के संदेश का मंतव्य मोहन भागवत के संदेश का मंतव्य
गुलामी का सबसे बड़ा दोष यही है कि वह अपने उत्तराधिकार में अविश्वास, अनिर्णय और द्वेषभावना जैसे विघातक घटकों को पल्लवित-पोषित करती है और परस्पर सद्भाव, सहकार और स्वीकार जैसे निर्माणकारी तत्वों को धीरे-धीरे मार देती है। विश्व के विभिन्न समाजों के तुलनात्मक ऐतिहासिक अध्ययन का निष्कर्ष भी यही कहता है। सहमति-असहमति किसी भी लोकतांत्रिक और उन्नतिशील समाज का आभूषण ही कहे जाएंगे। लेकिन केवल विरोध के लिए विरोध अथवा सहज समझ आने वाले शब्दों के अलग अर्थ निकालने की चतुरता निश्चित ही शरारतपूर्ण, बौद्धिक पंगुपन व मानसिक गुलामी की निशानी होती है।
इसी सन्दर्भ में हाल ही में नागपुर में संघ शिक्षा वर्ग के समापन समारोह के अवसर पर संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत द्वारा दिया गया भाषण काफी चर्चित भी हुआ और देश के विभिन्न तबकों में उसकी सराहना भी हुई है। देश-दुनिया की विभिन्न समस्याओं और चुनौतियों की जैसी सरल और सटीक व्याख्या उनके भाषण में हुई, वास्तव में भारत के बौद्धिक क्षितिज पर इस प्रकार का चिंतन आजकल दुर्लभ हो गया है। संघ प्रमुख की ओर से कुछ स्वीकारोक्तियाँ भी इस अवसर पर आईं। यथा उनका यह कथन कि राममंदिर आंदोलन में संघ अपनी प्रकृति के विरुद्ध जाकर सम्मिलित हुआ, मायने रखता है तथा पूर्वाग्रहों से रहित एक सहानुभूतिपूर्ण चर्चा की मांग करता है।
यह विडंबना है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर उसके जन्मकाल से ही आरोपों और आक्षेपों की बौछार खूब हुई। जो निरन्तर आज भी जारी है। लेकिन इसके उलट संघ और उसकी प्रकृति को जानने-समझने के ईमानदार प्रयास उतने ही कम हुए। अकादमिक और व्यावहारिक, दोनों स्तरों पर। इस अभाव की दृष्टि से देश के बौद्धिकों को बार-बार आग्रह भी इन्हीं संघ प्रमुख द्वारा किये गए। ‘संघ को समझना हो तो संघ की शाखा पर आएं’, कथन कोई चालाकी नहीं, बल्कि नासमझी में संघ विरोध को ही अपना धर्म मान चुके अपने स्वदेश बांधवों को प्रेमपूर्वक अपना सच्चा, खरा और उनसे अनन्य प्रीति रखने वाला हृदय खोलकर दिखा देने का आग्रह उस निमन्त्रण में निहित है। जो कोई कभी भी संघ में गया, निष्कपट हृदय से उसे जानने-देखने का प्रयास किया, वह जानता है कि प्रेम, प्रामाणिकता और पारस्परिकता संघ के सम्पूर्ण कार्य का आधार है।
संघ की प्रकृति क्या है, इसे समझने के लिए हमें सितम्बर, 2018 में संघ की ओर से दिल्ली के विज्ञान भवन में ‘भविष्य का भारत’ विषय पर आयोजित तीन दिवसीय व्याख्यानमाला में एक प्रश्न के उत्तर में वर्तमान संघ प्रमुख के उस कथन को गहराई से समझना होगा जिसमें वे कहते हैं; ‘इतिहास में कभी किसी को यदि यह लग गया कि देश में यह परिवर्तन संघ के कारण आया तो यह संघ की सबसे बड़ी विफलता होगी’। अर्थ बहुत सीधा-सा है कि भारत को ‘परम वैभव’ की सीढ़ियां चढ़ने के लिए संघ और उसका स्वयंसेवक अनाम रहकर अपने सक्षम और समर्थ कंधे उसे प्रस्तुत करेंगे और इसी में अपना सबसे बड़ा सुख मानेंगे। दुनियादारी के उलट यह कोई सौदा नहीं होगा बल्कि अपने देश और देशबान्धवों के प्रति विशुद्ध व सात्विक प्रेम के लिए संघ का स्वयंसेवक हिन्दू समाज के पवित्र कार्य को सम्पन्न करेगा। अतः यहां ‘संघ की प्रकृति’ आंदोलन आदि की बिल्कुल नहीं रहकर अपने स्वीकृत ध्येय और कार्य की दिशा में उद्वेग व अति उत्साह से मुक्त रहकर धीरे-धीरे लेकिन निरन्तर बढ़ते रहना ही उसकी प्रकृति सिद्ध होती है।
हिन्दू जीवन शैली सम्पूर्ण विश्व को अपना परिवार मानती है और सच्ची श्रद्धा से विभिन्न मत-पन्थ-मजहबों को उस एक परम सत्य तक पहुंचने के पवित्र मार्ग के रूप में देखती है। अतः इस्लाम आदि के साथ हिंदुत्व कोई प्रतिस्पर्धा कभी नहीं करता और उन्हें उनके सच्चे आध्यात्मिक स्वरूप में आत्मसात कर लेने की क्षमता उसमें है। इसीलिए संघ के जन्मकाल से ही जो नीति व दृष्टि संघ की रही, ज्ञानवापी के संदर्भ से उसे ही पुनः दोहराते हुए सरसंघचालक कह पाए; ‘भारत में रहने वाले सभी एक ही भारत माता के पुत्र हैं। अपनी विविधताएं अलगाव नहीं हैं.. ऐसा कुछ है (ज्ञानवापी पर विवाद) तो आपस में मिल-बैठकर सहमति से कोई रास्ता निकालिये। लेकिन हर बार रास्ता नहीं निकल सकता। इसमें कोर्ट में जाते हैं। कोर्ट जो निर्णय देगा उसे मानना चाहिए। ‘अपनी संविधान सम्मत न्याय व्यवस्था को पवित्र-सर्वश्रेष्ठ मानकर उसके निर्णयों का हमें पालन करना चाहिए’। आवश्यकता है कि संघप्रमुख के इस वक्तव्य को बजाय सतही टिप्पणियों के देश के सभी प्रबुद्धजन गम्भीरता से समझने का प्रयास करें।
भारत के उद्देश्य और जिम्मेदारियां वैश्विक हैं। वह उनसे मुंह नहीं मोड़ सकता। यहां रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इस जिम्मेदारी को समझना होगा और उसे क्रियान्वित करना होगा। यह कैसे हो और कितना जल्दी हो, संघ का कुल उद्देश्य और सामर्थ्य केवल इसीलिए है और यही संघ की वास्तविक प्रकृति है, उसके अस्तित्व का हेतु है।
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2 thoughts on “मोहन भागवत के संदेश का मंतव्य

  1. भागवतजी के भाषण पर अत्यंत संतुलित टिप्पणी । संघ को हर विषय पर कटघरे में खड़ा करने की वामपंथी साजिशों का अनचाहे में कुछ ऐसे लोग भी शिकार हो जाते हैं जो इनके पीछे की धूर्त चालों को नहीं समझ पाते ।

  2. शानदार रूप से परिभाषित किया हैं । एक अनाम स्वयंसेवक जो राष्ट्र के प्रति सच्ची निष्ठा और कर्तव्य का पालन कर रहा हो। आपने संघ की वास्तविक प्रकृति और कार्यो से अवगत करवाया आपकी भाषा मैं। आपके शानदार अनुभव से अभिभूत हैं हम निरन्तर ऐसे ही हमे बताते ओर सिखाते रहे । जय हिंद जय भारत

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