मोहब्बत बनाम नफरत का अक्स

मोहब्बत बनाम नफरत का अक्स

बलबीर पुंज

मोहब्बत बनाम नफरत का अक्समोहब्बत बनाम नफरत का अक्स

कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी की ‘मोहब्बत की दुकान’ से बेची जाने वाली वस्तुओं के नमूने उपलब्ध होना आरंभ हो गए हैं। चेन्नई में 2 सितंबर को एक कार्यक्रम में बोलते हुए उदयनिधि स्टालिन ने कहा, “कुछ चीजें हैं, जिनका हमें उन्मूलन करना है और हम केवल उनका विरोध नहीं कर सकते। मच्छर, डेंगू, मलेरिया, कोरोना, ये सभी चीजें हैं, जिनका हम विरोध नहीं कर सकते, हमें इन्हें मिटाना है। सनातन धर्म भी ऐसा ही है, इसे समाप्त करना… हमारा पहला काम होना चाहिए।” बकौल उदयनिधि, “…सनातन समानता और सामाजिक न्याय के विरुद्ध है।” उदयनिधि कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। वे तमिलनाडु की द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) गठबंधन सरकार में मंत्री, मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के पुत्र और उस आई.एन.डी.आई.ए गठबंधन (कांग्रेस सहित) का हिस्सा हैं, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को किसी भी कीमत पर सत्ता से हटाना चाहते हैं।

जैसे ही उदयनिधि ने उपरोक्त विचार प्रस्तुत किए, तब तमिलनाडु सरकार में सहयोगी कांग्रेस के दो नेताओं— सांसद कार्ति चिदंबरम और प्रदेश पार्टी ईकाई की महासचिव लक्ष्मी रामचंद्रन ने इसका समर्थन कर दिया। सोशल मीडिया ‘एक्स’ पर पोस्ट साझा करते हुए कार्ति ने जहां लिखा, “…सनातन धर्म का अर्थ पदानुक्रमित जातिगत समाज है”, तो लक्ष्मी ने कहा, “सनातन घृणा फैलाने वाले, जातिवादी हिन्दुत्व का दूसरा नाम है, जिसकी उत्पत्ति उत्तर में हुई है।”

यक्ष प्रश्न है कि क्या ऐसी भाषा का उपयोग, इस्लाम और ईसायत की मजहबी मान्यताओं-अवधारणाओं का आकलन करते समय किया जा सकता है? गत वर्ष का नूपुर शर्मा प्रकरण स्मरण कीजिए। तब नूपुर ने उन्हीं बातों को दोहराया था, जिसका उल्लेख अक्सर मुल्ला-मौलवी और जाकिर नाइक जैसे विवादित इस्लामी विद्वान अपनी तकरीरों में करते है। फिर भी नूपुर को सांप्रदायिक घोषित कर दिया गया और उसका समर्थन करने वाले कन्हैया-उमेश को मौत के घाट तक उतार दिया गया। स्वयं नूपुर अपनी जान बचाने हेतु कड़ी सुरक्षा में भूमिगत है।

सच तो यह है कि उदयनिधि-कार्ति-लक्ष्मी के रूप में भारतीय समाज का एक वर्ग जिस विषैली मानसिकता से अभिशप्त है, वह औपनिवेशिक ब्रितानी की देन है। जब अंग्रेज भारत आए, तब उन्होंने अपने राज को शाश्वत बनाने हेतु भारतीयों को भौतिक और बौद्धिक रूप से गुलाम बनाने की योजना पर काम प्रारंभ किया। अंग्रेजों ने भारतीय समाज की कमजोर कड़ियों को ढूंढकर ऐसे दूषित नैरेटिव स्थापित किए, जिससे स्वतंत्र भारत के कई स्वघोषित सेकुलरवादी आज भी जकड़े हुए है।

‘द्रविड़ आंदोलन’ ऐसा ही एक अंग्रेज निर्मित नैरेटिव है। इसकी उत्पति में ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर में जोड़े गए विवादित अनुच्छेद (वर्ष 1813) की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिससे ब्रितानी पादरियों और ईसाई मिशनरियों को अंग्रेजों के सहयोग से स्थानीय भारतीयों का मतांतरण करने का रास्ता साफ हुआ था। इस मजहबी संयोजन से ब्राह्मणों के विरुद्ध वह मजहबी उपक्रम तैयार किया गया, जिसे स्थापित करने में 16वीं सदी में भारत आए फ्रांसिस जेवियर का बड़ा योगदान था। तब फ्रांसिस ने देश में रोमन कैथोलिक चर्च के मतांतरण अभियान में ब्राह्मणों को सबसे बड़ा रोड़ा बताया था। इसी प्रपंच के अंतर्गत, चर्च के समर्थन से अंग्रेजों ने वर्ष 1917 में ब्राह्मण-विरोधी ‘साउथ इंडियन लिबरल फेडरेशन’, जिसे ‘जस्टिस पार्टी’ (द्रविड़ कड़गम— डी.के.) नाम से भी जाना गया— उसका गठन किया।

तब इस षड्यंत्र में इरोड रामासामी नायकर ‘पेरियार’ सबसे बड़े नेता बनकर उभरे, जिन्होंने न केवल 1947 में अंग्रेजों से मिली स्वतंत्रता पर शोक जताया, साथ ही अपने विकृत ब्राह्मण विरोधी अभियानों में खुलेआम सड़कों पर उतरकर हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों का अपमान भी किया। द्रमुक उसी हिंदू-विरोधी ‘द्रविड़ कड़गम’ का अनुषांगिक-उत्पाद है। यह दिलचस्प है कि 100 वर्ष पहले डी.के. जिन जुमलों का प्रयोग तत्कालीन कांग्रेस और गांधीजी के लिए करते थे, अब वही शब्दावली कांग्रेस के समर्थन से भाजपा-आरएसएस के लिए आरक्षित हो गई है।

क्या, बकौल आरोप, सनातन संस्कृति में जातिप्रथा या जातिगत भेदभाव को बढ़ावा मिलता है? भारत और सनातन धर्म एक-दूसरे के पूरक हैं। इस भूखंड पर सनातन परंपरा अपने ‘चिर पुरातन, नित्य नूतन’ रूपी चिरंजीवी दर्शन के कारण अनादिकाल से विद्यमान है और इसके सबसे जीवंत प्रतिनिधि— श्रीराम और श्रीकृष्ण हैं। उनका जीवन करोड़ों भारतीयों के लिए प्रेरणास्रोत है।

जब माता शबरी, जोकि आज की परिभाषा में ‘दलित’ हैं और गैर-अभिजात्य वर्ग से हैं— पहली बार श्रीराम से मिलती हैं, तो वह अपनी स्थिति पर संकुचित अनुभव करती हैं। इस पर श्रीरघुनाथ कहते हैं— जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धनबल परिजन गुन चतुराई।। भगति हीन नर सोइह कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।। अर्थात्— मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूं। जाति, पांति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता— इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल।

स्पष्ट है कि श्रीराम के लिए किसी व्यक्ति का जन्म, कुल, वैभव और सामाजिक स्तर नहीं, अपितु आचरण का महत्व है। इसलिए श्रीराम मांसाहारी गिद्धराज जटायु, जोकि वर्तमान में एक निकृष्ट पक्षी है— उनका पितातुल्य बोध के साथ अंतिम-संस्कार करते हैं, तो पुलस्त्य कुल में जनित महाज्ञानी ब्राह्मण— रावण का उसके अहंकार, काम, लोभ और भ्रष्ट आचरण के कारण वध करते हैं।

अक्सर, जातियों को वर्ण की अभिव्यक्ति से जोड़कर देखा जाता है, जोकि मूर्खता है। श्रीभगवद्गीता में श्रीकृष्ण, अर्जुन को संदेश देते हुए वर्ण को इस प्रकार परिभाषित करते हैं, “चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।—4:13” अर्थात मेरे द्वारा गुण और कार्य के आधार पर चार वर्णों की रचना की गई है। स्पष्ट है कि सदियों से हिन्दू समाज में व्याप्त ‘अस्पृश्यता’, सनातन वांग्मय से प्रेरित नहीं है।

गांधीजी घोषित रूप से सनातनी हिन्दू थे। सनातन संस्कृति पर उनके विचारों थे, “सनातन हिन्दू धर्म संकीर्ण नहीं, उदार है। यह कुएं के किसी मेंढक की तरह घिरा हुआ नहीं है। यह मानवता का धर्म है।” (हरिजनबंधु, 10-8-1947) अब राजनीतिक विरोधाभास की पराकाष्ठा देखिए कि उनकी विरासत पर अपना एकाधिकार जमाने का दावा करने वाला परिवार, जो अक्सर कुर्ते के ऊपर जनेऊ डालकर स्वयं को दत्तात्रेय गोत्र का वशंज बताने का प्रयास करता है— वह अपनी ‘मोहब्बत की दुकान’ से सनातन धर्म के विरुद्ध घृणा का सामान बेच रहा है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)

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