राजा मानसिंह के धोखे के शिकार हुए थे तात्या टोपे
प्रमोद भार्गव
राजा मानसिंह के धोखे के शिकार हुए थे तात्या टोपे
नक्शे पर शिवपुरी जैसी छोटी जगह 1959 में उस समय अचानक चर्चित हो उठी थी, जब स्वतंत्रता संग्राम के महान सेनानी और शौर्य के प्रतीक तात्या टोपे को फांसी दी गई थी। हालांकि कतिपय विद्वानों ने यह भी भ्रम फैलाने के प्रयास किए कि जिस व्यक्ति को शिवपुरी में फांसी दी गयी, वह तात्या नहीं थे। अपने कथन को सत्यापित करने के लिए उन्होंने जनश्रुतियों का सहारा लिया। किंतु सच है कि अलिखित आधार पर किसी हुतात्मा के बलिदान को झुठलाया नहीं जा सकता। कारण कि वे स्थान, जिनसे तात्या का किसी न किसी रूप में नाता था, आज भी शिवपुरी की धरती पर मौजूद हैं। तात्या द्वारा अदालत में दिया बयान और फिरंगी हुक्मरानों के वे कागजात जो तात्या की फांसी पर प्रमाण की मोहर लगाते हैं, इतिहास के सत्यापित अभिलेख के रूप में संग्रहित हैं।
तात्या टोपे का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के यवला ग्राम में 1814 में हुआ था। उनके पिता का नाम पांडुरंग भट्ट और माता का नाम रुक्मणी था। तात्या ने नानासाहब पेशवा के साथ रहकर राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ा। 20 जून 1858 को ग्वालियर में महारानी लक्ष्मीबाई के बलिदान होने के उपरांत तात्या ‘गुरिल्ला युद्धों’ की शुरुआत करके स्वाधीनता यज्ञ में क्रांति की समिधाएं डालते रहे। इस दौरान तात्या की उम्र लगभग 45 वर्ष थी।
तात्या के अभिन्न साथियों झांसी की रानी, कुंवरसिंह, माधोसिंह, नवाब खान, बहादुर खान के प्राणोत्सर्ग के पश्चात नाना साहब भी भूमिगत हो गए। तात्या ही क्रांति के अकेले प्रणेता रह गए। अकेले तात्या सैन्य और शस्त्रों से सम्पन्न फिरंगियों से मुकाबला नहीं कर सकते थे, इसलिए वे दक्षिण भारत के राजाओं से सहायता की आशा में नर्मदा नदी पार कर दक्षिण पहुंच गए। किंतु यहां से बिना किसी सहायता के निराश होकर तात्या को उलटे पैर लौटना पड़ा। तात्या राजस्थान पहुंचे। किंतु वहां भी तात्या निराशा और अनिश्चय के ओर घोर अंधेरे में भटक कर रह गए। तात्या पर टिप्पणी करते हुए ‘राजस्थान रोल इन द स्ट्रगल ऑफ 1857’ नामक पुस्तक में लिखा है, ‘राजस्थान में तात्या टोपे को किसी प्रकार की सहायता न मिलने से वह हताश हो गए और उन्होंने किसी मराठा राज्य में जाने का विचार बनाया।’
थानेश्वर के वन प्रांतरों में तात्या टोपे और रावसाहब पेशवा में मतभेद हो जाने के कारण संबंध विच्छेद हो गए। यहां से रावसाहब पेशवा, फिरोजशाह, इमाम अली, और अंबापानी सिंरोज (विदिशा) के जंगलों में चले गए और तात्या पाड़ौन (गुना) के जंगलों में अपने मित्र मानसिंह के पास सहायता की आशा से पहुंचे। यहां तात्या के अंतर्मन में विद्रोह की जो चिंगारियां फूट रही थीं, उन पर पानी फिर गया। ‘संघर्षकालीन नेताओं की जीवनियां’ पुस्तक में इस प्रसंग का उल्लेख करते हुए लिखा है, ‘21 जनवरी 1859 को हुए सीकर युद्ध के बाद तात्या के भाग्य का सूर्यास्त हो गया। रावसाहब पेशवा और फिरोजशाह उनका साथ छोड़ गए और तात्या 3-4 साथियों को साथ लेकर नरवर राज्य में स्थित पाड़ौन के जंगल में अपने मित्र मानसिंह के पास शरण में आ गए।’
अंततः जब फिरंगी सेनानायक तात्या टोपे को मारने अथवा गिरफ्तार करने में सफल न हो सके तो उन्होंने छल-कपट का रास्ता अपनाया। मानसिंह को अंग्रेजों ने उसका राज्य लौटाने का प्रलोभन देकर अपने पक्ष में ले लिया। ‘1857 के गदर का इतिहास’ में इस घटना के बारे में शिवनारायण द्विवेदी ने लिखा है, ‘मानसिंह ने मित्रता से काम नहीं लिया। तात्या को पकड़वाने के लिये वह अंग्रेज सेनापति मीड़ से सलाह करने लगा। सेनापति मीड़ ने मानसिंह की जान बचाने और उसका जब्त राज्य वापिस दिलाने का वादा किया।’ इसी पुस्तक में आगे लिखा है, ‘जिस समय मानसिंह मीड़ के साथ मिलकर षड्यंत्र रच रहे थे तब तात्या निश्चिंत होकर पाड़ौन के जंगलों में आराम कर रहे थे। तात्या ने मानसिंह से सलाह लेनी चाही। मानसिंह दूसरी जगह पर थे। उसने तात्या को कहलाया,‘मैं तीन दिन बाद मिलूंगा।’
पालसन ने इस घटना का उल्लेख यूं किया है, ‘तात्या के पाड़ौन के जंगल में पहुंचने के तत्काल बाद ही राजा मानसिंह ने अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। तात्या के पुराने साथी उससे संपर्क साधे हुए थे। तात्या ने अपने पुराने साथियों को कहलवाया कि मानसिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया है और वह पाड़ौन के जंगल में है। वहां से उत्तर आया कि सिंरोज के जंगल में आठ-नौ हजार लोगों के साथ रावसाहब पेशवा हैं। साथ में ‘फिरोजशाह अम्बापानी और इमाम अली भी हैं। इमाम अली ने तात्या को लिखा कि वह आकर मिले, किंतु तात्या मानसिंह से सलाह करना चाहता था।’
दरअसल तात्या यहीं धोखा खा गये, मित्र मानसिंह के विश्वासघात ने इस शूरवीर को तीन दिन बाद 7 अप्रैल 1859 की रात पकड़वा दिया। 8 अप्रैल की सुबह सेनापति मीड़ के कैंप में तात्या टोपे को शिवपुरी लाया गया। तात्या टोपे पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। शिवपुरी में एक फिरंगी अधिकारी के बंगले में फौजी अदालत लगायी गई। जहां सुबह से शाम तक तात्या की पेशी हुई। अदालत के समक्ष तात्या ने 10 अप्रैल 1859 को जो बयान दिया, गवाहों से जो बहस की, वह बहुत ही तर्कसंगत और विद्वतापूर्ण है। तात्या ने अपने बयान में कहा, ‘मुझ पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया है, किंतु मैं अंग्रेजों की प्रजा कभी नहीं रहा, मैंने राजद्रोह किया ही नहीं? पेशवा यहां के राजा थे और मैं उनका नौकर था, मैंने जो कुछ किया है, उनकी आज्ञा से ही किया है, अतः मैं राजद्रोही नहीं राजभक्त हूं…..। रणभूमि में मैने अंग्रेजों से युद्ध किया है। उस समय मेरी तलवार के सामने जो अंग्रेज आए, उनको मैंने मारा है। व्यक्तिगत रूप से मैंने किसी अंग्रेज पुरुष, स्त्री, बालक को न तो मारा है और न ही फांसी पर लटकाया है…..। मेरे इस कार्य का मेरे रिश्तेदारों से कोई संबंध नहीं है। यह मेरा व्यक्तिगत कार्य है। अतः मेरे माता-पिता, भाई-बहन तथा नाते-रिश्तेदारों को कष्ट न दिया जाए।’ यह बयान हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी भाषा की 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पर लिखी गयी अनेक पुस्तकों में उपलब्ध है।
तात्या ने अपना यह बयान हिन्दी में दिया और इस पर मराठी में (तात्या टोपे कामदार नाना साहब बहादुर) दस्तखत किए। तात्या के इस बयान का अंग्रेजी अनुवाद गंगाप्रसाद नाम के व्यक्ति ने किया। 10 अप्रैल 1859 को ही तात्या का कोर्टमार्शल हुआ। कैप्टन बाघ कोर्टमार्शल के अध्यक्ष थे तथा इस समिति के चार अन्य सदस्य भी थे। पूर्ण जांच करने के पश्चात 18 अप्रैल 1859 को तात्याटोपे को शिवपुरी में नीम के पेड़ पर लटकाकर शाम पांच बजे फांसी दे दी गई। दूसरे दिन तक शव पेड़ पर लटका रहा ताकि लोगों में आतंक कायम रहे और फिर कोई देशभक्त ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध विद्रोह छेड़ने के प्रयास न करे।
इसी बीच अनेक यूरोपियन सिपाहियों ने तात्या टोपे के सिर से एक या दो बाल काटे और उन्हें तात्या की अद्वितीय वीरता की स्मृति में धरोहर के रूप में संभाल कर रखा। तात्या टोपे की चोटी और पोशाक फिरंगियों ने लंदन भिजवा दिए। ये वस्तुएं आज भी लंदन म्यूजियम में उपलब्ध हैं। बडे़ फिरंगी अफसरों को 19 अप्रैल 1859 की शाम को चार बज कर आठ मिनट पर तात्या को फांसी दिये जाने की सूचना देने के लिए एक तार किया गया। 168 नंबर का यह तार केव्हिटन हलवर्ट इंदौर ने बीड़न (सेक्रेटरी टू गवर्नमेंट ऑफ कलकत्ता) को किया था।
इस तरह 18 अप्रैल 1859 को शुरू हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की धधकती आग की अंतिम मशाल तात्या टोपे के बलिदान के साथ ही शांत हो गई। अपना सब कुछ न्यौछावर कर दासता से जूझने वाले इस अप्रतिम योद्धा की कृतज्ञ शिवपुरीवासियों ने नीम के पेड़ के नीचे पत्थरों की एक समाधि बनाई। इसमें एक शिलालेख भी लगाया गया है। जिस पर लिखा है, ‘यहां पर तानतीया टोपी ने पान सी पाया सन् 1859 में ’। 1965 में जिला-प्रशासन ने इस समाधि स्थल पर नया स्मारक बनवाया गया। जिसका शिलान्यास 18 अप्रैल 1968 को विजयाराजे सिंधिया ने किया। बाद में तात्या की आदमकद प्रतिमा का अनावरण 28 जनवरी 1970 को मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल ने किया। तब से यहां प्रतिवर्ष 18 अप्रैल को तात्या का बलिदान दिवस मनाये जाने की परम्परा स्थापित हुई। दो दिन के इस आयोजन में कवि सम्मेलन और मुशायरे के कार्यक्रम होते हैं। राष्ट्रीय अभिलेखागार भोपाल के सौजन्य से शिवपुरी में एक प्रदर्शनी लगायी जाती है, जिसमें प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों और पत्रों की प्रतिलिपियां दिखायी जाती हैं।
(18 अप्रैल पुण्यतिथि विशेष)