रानी गिडिन्ल्यू : वह किशोरवय वीरांगना जिससे अंग्रेज भी डरते थे
13 की उम्र, माथे पर चमक और दुश्मन के लिए आंखों में क्रोध की ज्वाला। एक ऐसी किशोरवय वीरांगना जिसने नागा समाज को एक सूत्र में पिरोया और अंग्रेजी शासन व ईसाई मिशनरियों के विरुद्ध लोहा लिया। देश पराधीन था। अंग्रेजों के अत्याचार चरम पर थे। तब भी अनेक ऐसे परिवार थे जिनके किशोर उम्र बच्चे भी निडर होकर भारत माता की सेवा के लिए तत्पर रहते थे। उन्हीं में एक थीं गिडिन्ल्यू (Gaidinliu)।
गिडिन्ल्यू (Gaidinliu) का जन्म 26 जनवरी 1915 को मणिपुर के तमेंगलोंग जिले के तौसेम उप-खंड के नुन्ग्काओ (लोंग्काओ) नामक गांव में हुआ था। उस समय उनके गॉंव व आस पास के क्षेत्र में ईसाई मिशनरियां अपने पॉंव पसार रही थीं और भोले भाले जनजाति समाज को मतांतरित करने का कुचक्र चला रही थीं। यह देखकर 13 साल की गिडिन्ल्यू का मन बहुत दुखी था। उसे अपने देश में अपने ही लोगों पर बाहर से आए अंग्रेजों द्वारा चलाया जा रहा दमन चक्र तो उद्वेलित कर ही रहा था उसका हृदय मतांतरण के दुष्चक्र से भी व्यथित था। अपने समाज को संगठित कर अंग्रेजों से दो दो हाथ करने की भावना लिए इस किशोरवय बालिका ने अपने चचेरे भाई हाईपू जदोनांग के साथ ‘हेराका आंदोलन’ से जुड़ने का निर्णय लिया।
यह आंदोलन जीलियांगरोंग नागा समुदाय में सुधार के लिए छेड़ा गया था। लेकिन बाद में यह राजनीतिक आंदोलन में बदल गया। इसका मुख्य कारण नागाओं पर अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अत्याचार थे। अब इसका एकमात्र उद्देश्य मणिपुर और नागा जनसंख्या वाले क्षेत्र से ब्रिटिश उपनिवेशवाद को उखाड़ फेंकना बन गया। इस आंदोलन को क्रांतिकारी गतिविधियों के चलते अंग्रेजों ने अपने लिए चुनौती के तौर पर देखा और 29 अगस्त, 1931 को उन्होंने जदोनांग को गिरफ्तार करके फांसी पर चढ़ा दिया। इससे लोग आक्रोशित हो गए। गिडिन्ल्यू ने उस आक्रोश का प्रयोग अंग्रेजों के विरुद्ध किया।
उन्होंने नागाओं के कबीलों में एकता स्थापित की, उन्हें छापामार युद्ध कौशल सिखाया, लोगों को आंदोलन से जोड़ने के लिए अंग्रेजी शासन को टैक्स नहीं देने को कहा और मतांतरण का जमकर विरोध किया। उनकी निडरता को देखते हुए जनजाति समाज उन्हें देवी मानने लगा। गिडिन्ल्यू ने जनजाति समाज में इतना जोश और आत्म विश्वास भर दिया कि आन्दोलन को दबाने के लिए अंग्रेज़ों ने जब वहां के कई गांव जलाकर राख कर दिए तब भी उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आई। गिडिन्ल्यू ने अंग्रेजों पर गोरिल्ला हमले शुरू कर दिए। इससे अंग्रेज इतने भयभीत हो गये कि उन्हें सूझ ही नहीं रहा था कि क्या करें? अंग्रेजों ने कई बार उनकी गिरफ्तारी के लिए सैन्य टुकड़ियां भेजीं, लेकिन निराशा ही हाथ लगी। हारकर उन्होंने गिडिन्ल्यू को गिरफ्तार करने वाले को पुरस्कार देने की घोषणा की। शुरू में पुरस्कार की राशि 200 रुपए रखी गयी, लेकिन जब कोई सुराग न मिला, तो ईनाम की राशि बढ़ाकर 500 रुपए कर दी गयी, साथ ही 10 वर्षों तक कोई टैक्स नहीं वसूलने का वादा भी किया गया। लेकिन अंग्रेजों की यह योजना भी कारगर सिद्ध नहीं हुई। गिडिन्ल्यू उस समय मात्र 16 साल की थीं।
छापामार युद्ध में महारत प्राप्त होने के कारण अंग्रेजों के सारे दांव फेल हो रहे थे, ऐसे में अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ने के लिए असम राइफल्स के जवानों को लगा दिया। 16 फरवरी 1932 को हैंग्रम की उत्तरी कचार हिल्स में दोनों के बीच भीषण लड़ाई हुई, लेकिन गिडिन्ल्यू को पकड़ने में असम राइफल्स के जवान असफल ही रहे। इस लड़ाई को ‘हैंग्रम की लड़ाई’ के नाम से जाना जाता है। इस लड़ाई के कुछ दिन बाद गिडिन्ल्यू लड़ाकों ने असम राइफल्स के आउटपोस्ट पर हमला कर दिया। इसमें नागा लड़ाकों को ज्यादा नुकसान झेलना पड़ा। अब गिडिन्ल्यू अपने दल के साथ पोलोमी गांव पहुंच गयीं। जहॉं उन्होंने एक ऐसे मजबूत ठिकाने का निर्माण शुरू करवाया जिसमें उनके चार हजार साथी रह सकें। इस पर काम चल ही रहा था कि 17 अप्रैल, 1932 को अंग्रेजों की सेना ने अचानक आक्रमण कर दिया। गिडिन्ल्यू गिरफ़्तार कर ली गईं, उन पर मुकदमा चला और आजीवन कारावास की सजा हुई।
भारत के स्वतंत्र होने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। 17 फरवरी 1993 को निधन से पहले तक वे सामाजिक कार्यों में लगी रहीं।
1937 में जब नेहरू असम के प्रवास पर आये थे, तब उन्होंने गिडिन्ल्यू को नागाओं की रानी कहकर सम्बोधित किया था। तब से यही उनकी उपाधि बन गयी।