बलिदान तो देना पड़ेगा, इस मंदिर के लिए बलिदान देने की लंबी परंपरा रही है: महेन्द्रनाथ अरोड़ा

बलिदान तो देना पड़ेगा, इस मंदिर के लिए बलिदान देने की लंबी परंपरा रही है: महेन्द्रनाथ अरोड़ा

बलिदान तो देना पड़ेगा, इस मंदिर के लिए बलिदान देने की लंबी परंपरा रही है: महेन्द्रनाथ अरोड़ा

सैकड़ों वर्षों तक संघर्ष व अनेक बलिदानों के बाद आखिरकार वह समय आ ही गया है, जिसकी समस्त भारतवर्ष के लोगों को चिरप्रतीक्षा थी। रामभक्तों का वह सपना पूरा होने का अध्याय 5 अगस्त को शुरू होगा, जब अयोध्या नगरी में जन्मभूमि पर रामलला के भव्य मंदिर का निर्माण कार्य का शुभारम्भ हो जाएगा। जिसके साक्षी भारत ही नहीं विदेशों में बैठे रामभक्त भी बनेंगे।

राम जन्मभूमि की रक्षा के लिए मुगलों से लेकर 90 के दशक तक हुए आंदोलनों में लाखों की संख्या में रामभक्तों ने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया। मंदिर आंदोलन में राजस्थान के भी कई रामभक्त अपना अविस्मरणीय बलिदान देकर वीरगति को प्राप्त हुए थे। उन सभी हुतात्माओं को नमन है, जिन्होंने श्रीराम मंदिर आन्दोलन में न सिर्फ आगे बढ़कर भाग लिया बल्कि अपने प्राणों तक की आहुति दी थी। मंदिर निर्माण के बाद अब सही मायने में कारसेवकों के बलिदान को सच्ची श्रद्धांजलि मिलेगी।

अविस्मरणीय रहेगा कारसेवकों का बलिदान

हो सकता है कि कुछ लोग बलिदानी रामभक्तों का नाम न जानते हों लेकिन जिसके अंदर हिंदुत्व की लौ ज्वाला बनकर दौड़ती है वह मरुधरा के इन बलिदानियों को अवश्य जानता होगा। श्रीराम मंदिर आन्दोलन में रामभक्त कारसेवक मूलतः बीकानेर के निवासी कोठारी बंधु रामकुमार व शरद कोठारी। इनके साथ ही जयपुर के रामावतार सिंहल, जोधपुर के प्रोफेसर महेन्द्रनाथ अरोड़ा व जोधपुर के ही मथानिया निवासी सेठाराम परमार ने अपना बलिदान दिया। इनके साथ ही उदयपुर जिले के सीयाणा निवासी रामसिंह चूडावत, अलवर के मातादीन शर्मा व जोधपुर के शांतिलाल समेत राजस्थान के सैकड़ों कारसेवकों ने आंदोलन में भागीदारी निभाकर बहादुरी की मिसाल कायम की। आज उन सभी रामभक्तों का बलिदान सार्थक हुआ है।

मरुधरा के कारसेवकों का नेतृत्व किया —

जोधपुर निवासी प्रोफेसर महेन्द्रनाथ अरोड़ा ने राजस्थान से गए कारसेवकों के एक दल का नेतृत्व किया था। जोधपुर से रवाना होकर पहुंचे कारसेवक ‘‘रामलला हम आए हैं, मंदिर यहीं बनाएंगे’’ के नारों के साथ सरयू के तट तक पहुंचे। 2 नवम्बर को प्रो. अरोड़ा के नेतृत्व में राजस्थान के कारसेवक जन्मभूमि की ओर बढ़ रहे थे कि पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी। अचानक भगदड़ मच गई, इस दौरान अरोड़ा के पेट में गोली लगी तथा कई घंटे तक घायल अवस्था में छटपटाते रहे। जहां कई घंटे बाद उपचार मिलने के कारण उन्होंने दम तोड़ दिया।

शहीद प्रो. अरोड़ा के कारसेवा में जाने से पूर्व के संस्मरण बताते हुए तत्कालीन पुलिस अधिकारी चैनसिंह राजपुरोहित अपनी पुस्तक परित्राणाय साधूनां के अरोड़ा जी की अयोध्या यात्रा अध्याय में लिखते हैं कि पुराना परिचय होने के नाते मंदिर आंदोलन के संबंध में विस्तार से चर्चा हुई तो मैंने उनसे पूछा कि आप लोग इतना बड़ा आंदोलन तो चला रहे हैं मगर क्या उस विवादित ढांचे की जगह वास्तव में राम मंदिर बन जाएगा। इस पर वे बड़े आत्मविश्वास से बोले क्यों नहीं बनेगा… अवश्य बनेगा… बनकर ही रहेगा और उसी स्थान पर बनेगा। फिर उन्होंने आत्मविश्वास भरी गहरी सांस लेते हुए कहा कि चैनजी मंदिर तो बनेगा, मगर बलिदान बिना नहीं बनेगा। बलिदान तो देना पड़ेगा इस मंदिर के लिए बलिदान देने की लंबी परंपरा रही है, एक बार फिर बलिदान की आवश्यकता है। चैनसिंह लिखते हैं कि उनके उक्त शब्दों को मैंने उस समय तो एक भावुक रामभक्त की भावनाओं का उद्वेग ही माना था। मगर तीन-चार दिन बाद अयोध्या में जो गोलीकांड हुआ तो उसमें श्री अरोड़ा के सीने पर गोली लगने की बात सुनी तो मुझे उस त्यागी पुरुष के कहे एक-एक शब्द का अर्थ समझ आ गया। वे स्वयं सोच समझ कर अपना बलिदान देने के लिए ही अयोध्या गए थे।

भगतसिंह जैसे लोग घर से पूछकर नहीं आते —

जोधपुर जिले के मथानिया निवासी 22 साल के नवयुवक सेठाराम परिहार ने कारसेवा में जाने के लिए अपना नाम लिखवा दिया था। वह अन्य साथियों के साथ जोधपुर पहुंचा तो उनकी मासूमियत देखकर अधिकारियों ने पूछा कि घर से पूछकर आये हो क्या। सेठाराम ने जवाब दिया कि भगतसिंह जैसे लोग घर से पूछकर नहीं आते। आज के तथाकथित बुद्धिजीवी अपने बौद्धिक अजीर्ण पर गर्व करते होंगे, लेकिन सेठाराम के उत्तर की दृष्टि से वे सदा विपन्न ही रहेंगे। सेठाराम हिन्दुत्व की उर्जा व राम की भक्ति से ओतप्रोत थे। जन्मभूमि की ओर कूच करने के दौरान वह पुलिस द्वारा दागे जा रहे ऑंसू गैस के गोलों को उठाकर नाली में फेंककर नाकाम करने लगा था। इससे तिलमिलाए पुलिस के दो जवानों ने सेठाराम को पकडकर उसके मुंह में बंदूक की नाल ठूंसकर ट्रिगर दबा दिया। ऐसे बहादुर सेठाराम ने अयोध्या की पुण्यभूमि पर प्रभु श्रीराम के चरणों में खिले हुए पुष्प की भांति अपने को समर्पित कर दिया।

गुंबद पर सबसे पहले फहराया भगवा —

मूलतः बीकानेर व हाल निवासी पश्विम बंगाल निवासी राम कोठारी तथा शरद कोठारी हिंदुत्व की वो महानतम विभूति हैं जिन्होंने अयोध्या में 30 अक्टूबर 1990 को विवादित ढांचे पर भगवा फहराया था। तत्कालीन सरकार ने कारसेवकों पर गोलियां चलवा दी थीं। इसी गोलीबारी में राम कोठारी तथा शरद कोठारी दोनों भाई बलिदान हो गये थे। 4 नवंबर 1990 को शरद और रामकुमार कोठारी का सरयू के घाट पर अंतिम संस्कार किया गया।

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