राम सिंह चार्ली : सर्कस के कलाकारों के यथार्थ को बयान करती बेहतरीन फिल्म
डॉ. अरुण सिंह
- फिल्म : राम सिंह चार्ली
- कलाकार : कुमुद मिश्रा, दिव्या दत्ता, आकर्ष खुराना
- निर्देशक : नितिन कक्कड़
कला तो कला होती है, बस वह रचनाधर्मिता और सौंदर्य की परिपाटी पर खरी उतरे। परन्तु पूंजीवादी युग में कला महंगी और सस्ती में वर्गीकृत हो गयी है। वह तभी चलती है, जब कमाऊ होती है। बढ़ती तकनीक और सुविधाओं के दौर में सर्कस जैसी कलाएँ लुप्तप्रायः होती जा रही हैं। डिजिटल क्रांति के प्रहार का प्रभाव सर्कस पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। वैसे तो आधुनिक सर्कस का प्रादुर्भाव 18 वीं शताब्दी में यूरोप में हुआ, पर 19 वीं शताब्दी के अंत में यह भारत में भी आरम्भ हो चुका था और भारतीयों ने इसे भली-भाँति अपनाया भी। कालान्तर में केरल राज्य में इस कला का विकास हुआ।
हाल ही में आई फ़िल्म राम सिंह चार्ली सर्कस के कलाकारों की समकालीन परिस्थितियों के यथार्थ को बहुत ही ढंग प्रदर्शित करती है।
राम सिंह नबील की तरह सर्कस का व्यापारी नहीं है, सच्चा कलाकार है। उसे लाभ-हानि की चिंता नहीं है। अपनी कला के प्रति उसके मन में जो सम्मान है, वह सर्कस के प्रति उसके समर्पण और मेहनत को दर्शाता है। सर्कस के कलाकार घुमंतू होते हैं। उनका कोई स्थायी घर नहीं होता। वे अपनी कला को जीते हैं। उनका कनात ही उनका घर होता है। भारत में प्राचीन काल से ही घुमंतू कलाकारों की परम्परा रही है, चाहे जादूगर हों या बहरूपिये। समाज में उनकी कला को सम्मान और दर्शक दोनों मिलते थे। सर्कस से राम सिंह चार्ली की जीविका भले ही न चले, पर उसकी आत्मा इसी में बसती है।
शाहजहां अपने स्वार्थ की सिद्धि राम सिंह के माध्यम से करता है। उसे शराब की बुरी लत में धकेल देता है। शाहजहां अच्छा मित्र नहीं है। निर्देशक ने यहाँ हिम्मत दिखाई है कि फिल्मों में एक मुस्लिम चरित्र भी बुरा हो सकता है। मास्टरजी के लिए सर्कस का बन्द हो जाना, उनके जीवन का ही रुक जाना सिद्ध होता है। शॉर्ट और कट के साथ दुर्व्यवहार इस सत्य को उघाड़ देता है कि सर्कस रंगीन होता है, परन्तु कलाकारों का वास्तविक जीवन नहीं। एक मेहनती कलाकार जो पूरा जीवन सर्कस को समर्पित कर देता है, समाज में हास्यस्पद (जोकर) बनकर रह जाता है। राम सिंह चार्ली के किरदार में कुमुद मिश्रा का अभिनय इस यथार्थ को अभिव्यक्त करने में सफल हुआ है। सभी कलाकार साधुवाद के पात्र हैं।