राष्ट्र सेविका समिति की संस्थापिका एवं आद्य प्रमुख संचालिका वंदनीय मौसीजी

लक्ष्मीबाई केलकर

तुलसीराम

लक्ष्मीबाई केलकर

पराधीन राष्ट्र की हज़ारों महिलाओं में राष्ट्रीयता की जोत जगाकर, अलौलिक व्यक्तित्व की धनी, श्रीमती लक्ष्मीबाई केलकर जी ने वर्धा (महाराष्ट्र) में 1936 की विजयदशमी पर विश्वव्यापी नारी संगठन राष्ट्र सेविका समिति की स्थापना की। समिति की संस्थापिका, मातृवत मार्गदर्शन और उच्च ध्येय के कारण वे मौसी जी के रूप में संबोधित की जाने लगीं। उनका जन्म आषाढ़ शुक्ल दशमी (5 जुलाई) 1905 में नागपुर के दाते परिवार में हुआ था। दाते परिवार आर्थिक रूप से बहुत समृद्ध नहीं था, किंतु वैचारिक एवम् बौद्धिकता में परिपूर्ण था। बचपन में मौसी जी का नाम ‘कमल’था।

छोटी कमल ने अपनी ताई जी से सेवा सुश्रुषा , पिता जी से तन मन धन से सामाजिक कार्य व माता जी से निर्भयता एवं राष्ट्र प्रेम के गुण विरासत में लिये थे। उन दिनों लोकमान्य तिलक जी के समाचार पत्र केसरी सरकारी मुलाजिमों के लिये प्रतिबंधित होता था। इसलिये कमल की माता जी अपने नाम से केसरी समाचार पत्र ख़रीदती थीं और पास पड़ोस की महिलाओं को एकत्र कर के इस समाचार का वाचन करती थीं। कमल यह सब आत्मसात कर रही थीं।

उन दिनों की प्रथा के अनुसार कमल के चौथी कक्षा तक पहुँचते ही विवाह के प्रयास शुरू हो गये थे। विवाह के पश्चात वह कमल से लक्ष्मी बाई केलकर बनीं। लक्ष्मी बाई केलकर के पति, पुरुषोत्तम राव केलकर वर्धा के प्रख्यात वक़ील थे।विवाह के पश्चात लगभग 14 वर्ष की आयु में लक्ष्मी दो बच्चों की माँ बन गई थीं। उन्हें वैवाहिक जीवन का सुख केवल 10-12 वर्ष का ही मिला। अल्पायु में ही पुरुषोत्तम राव जी का स्वर्गवास हो गया और 8 संतानों की गृहस्थी की ज़िम्मेदारी लक्ष्मी जी ने अकेले ही उठाई।

लक्ष्मी बाई केलकर पति के जीवन काल में ही अपनी गृहस्थी की ज़िम्मेदारी निभाते हुए, स्वतंत्रता आन्दोलन संबंधी कार्यक्रमों, प्रभात फेरियों इत्यादि में सक्रिय थीं। पति के निधन के पश्चात भी लक्ष्मी जी  केलकर के कई कार्यक्रम चलते रहे। वे सीता जी के चरित्र से प्रेरित थीं। उन्होंने सीता में स्त्री की वास्तविक भूमिका खोजने के लिये रामायण का अध्ययन शुरु किया। स्त्री को निर्भयता के साथ डटकर खड़ा होना आवश्यक है। इसकी आवश्यकता लक्ष्मी बाई केलकर स्वयं भी अनुभव कर रही थीं।

महिलाओं को आत्मरक्षा में सक्षम कैसे बनाया जाये, इस बात को लेकर मौसी जी के मन में दिन रात मंथन चलता रहता था। वे डॉ. हेडगेवार से मिलीं। और महिलाओं के लिए भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसनसे संगठन की आवश्यकता पर बल दिया। डा. हेडगेवार जी ने भी मौसी जी के विचारों और दृढ़ निश्चय को देखकर उन्हें इस कार्य के लिये प्रोत्साहित किया।

स्वयं को निरंतर संगठन के ढाँचे में ढालने का मौसी जी का  प्रयास निरंतर जारी था। प्रारंभ में उन्हें भाषण देने का अभ्यास नहीं था। वक्तृत्वशैली भी नहीं थी। समाज जागरण के हेतु से समाज को मार्गदर्शन करने की आंतरिक, अत्यंतिक इच्छा थी, जिससे आगे का मार्ग सुगम हुआ। मौसी जी को समिति की शाखा-शाखाओं में जनसंपर्क हेतु जाना पड़ता था, इसलिए मौसीजी ने साइकिल चलाना सीख लिया।

वर्धा में विद्यालय शुरु करने के लिए अपनी देवरानी को प्रोत्साहित किया और वहाँ पढ़ाने के लिए आयी कालिंदीताई, वेणुताई जैसी शिक्षिकाओं के रहने का प्रबंध मौसी जी ने स्वयं के घर में किया। इन शिक्षिकाओं ने आगे चलकर उन्हें समिति के कार्य में भी सहयोग दिया।वं. मौसीजी ने संगठन की चौखट स्वयं तैयार की थी। जिसमें उन्होंने स्वयं के विचारों से ध्येय धारण के रंग भरे थे।

1953 में  मौसी जी ने  स्त्री जीवन विकास परिषद का आयोजन करके डॉक्टरों को एकत्रित किया और महिलाओं के सौष्ठव के बारे में परिचर्चा आयोजित की। योगासन का महत्व जानकर मौसी जी ने स्वयं योगासनों की शिक्षा ली। योगमूर्ति जनार्दन स्वामीजी को अनेक स्थानों पर आमंत्रित करके सेविकाओं को योगासनों का शास्त्रशुद्ध प्रशिक्षण दिया। मौसी जी की प्रेरणा से समिति के शिक्षा वर्गों में भी योगासन का समावेश किया गया।

सेविका कैसी हो उनके सामने इसकी स्पष्ट रूपरेखा थी। उन्होंने देवी अष्टभुजा की प्रतिमा आराध्य देवता के रूप में सेविकाओं के सामने रखी। मौसीजी राम की असीम भक्त थीं। उन्होंने रामायण पर उपलब्ध अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया और लगभग 108 प्रवचन किये। और लोगों को समझाया राम को केवल भगवान समझकर उनकी पूजा मत करो, वह एक राष्ट्रपुरुष हैं, उनका अनुकरण करो। आज उनके वक्तृत्व की अमोल निधि ‘पथदर्शिर्नी श्रीराम कथा’ के रूप में हमारे पास है।

वं. मौसीजी की स्मरण शक्ति अद्भुत तेज थी। एक बार परिचय होने के बाद वह उस व्यक्ति को नाम सहित हमेशा याद रखती थीं। जीवन के अंतिम चरण में जब वह चिकित्सालय में भर्ती थीं, तो सेविकाओं से भजन गीत गाने को कहती थीं और बीच में अगर गाने वाली भूल गयी तो तुरंत आगे के शब्द बताती थीं। मौसीजी का रहन सहन अत्यंत साधारण था। वह हमेशा स्वच्छ और सफेद सूती साड़ी ही पहनती थीं।

वर्ष प्रतिपदा के दिन गुढी के बजाय अपने घरों पर हमारी संस्कृति का प्रतीक भगवा ध्वज फहराया जाये यह मौसी जी की कल्पना थी। पूजा के लिए छोटे-छोटे ध्वज उन्होंने ही बनवाए। वंदे मातरम् माँ की प्रार्थना है अतः वह गाते समय हाथ जोड़ने की प्रथा उन्होंने शुरु की।

पूना में श्रीमती सरस्वतीबाई आपटे द्वारा महिलाओं के संगठन के कार्य की शुरुआत की जानकारी मिलने पर मौसीजी स्वयं पूना जाकर सरस्वतीबाई जी से मिलीं। मौसीजी के कुशल, आत्मीय और सौहार्द व्यवहार से, प्रसन्न व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सरस्वती बाई जी ने अपने संगठन को राष्ट्र सेविका समिति में सम्मिलित कर दिया।

अगस्त 1947 का समय था। प्रिय मातृभूमि का विभाजन होने वाला था। मौसीजी को सिंध प्रांत की सेविका जेठी देवानी का पत्र आया कि सेविकाएँ सिंध प्रांत छोड़ने से पहले मौसीजी के दर्शन और मार्गदर्शन चाहती हैं। उनके आने से सेविकाओं का  दुःख हल्का हो जायेगा। वे यह भी चाहते हैं कि मौसी जी हमें श्रद्धापूर्वक कर्तव्यपालन करने की प्रतिज्ञा दें।

देश में भयावह वातावरण होते हुए भी मौसीजी ने सिंध जाने का साहसी निर्णय लिया और 13 अगस्त 1947 को साथी कार्यकर्ता वेणुताई को साथ लेकर हवाई जहाज से बम्बई से करांची गयीं। हवाई जहाज मे दूसरी कोई महिला नहीं थी। श्री जयप्रकाश नारायणजी और पूना के श्री. देव थे, वे अहमदाबाद उतर गये। अब हवाई जहाज में थीं ये दो महिलाएँ और बाकी सारे मुस्लिम, जो घोषणाएँ कर रहे थे – लड़ के लिया है पाकिस्तान, हँस के लेंगे हिन्दुस्थान। पर ये किन्चित भी डरी नहीं।

14 अगस्त को कराची में एक उत्सव संपन्न हुआ। एक घर के छत पर 1200 सेविकाएँ एकत्रित हुईं। गंभीर वातावरण में वं. मौसीजी ने प्रतिज्ञा का उच्चारण किया, सेविकाओं ने दृढ़ता पूर्वक उसका अनुकरण किया।

मन की संकल्प शक्ति का आह्वान करने वाली प्रतिज्ञा से दुःखी सेविकाओं को समाधान मिला। अन्त में मौसीजी ने कहा, ‘धैर्यशाली बनो, अपने शील का रक्षण करो, संगठन पर विश्वास रखो और अपनी मातृभूमि की सेवा का व्रत जारी रखो यह अपनी कसौटी का क्षण है।’ वं. मौसीजी से पूछा गया – हमारी इज्जत खतरे में है। हम क्या करें? कहाँ जाएँ? वं. मौसीजीने आश्वासन दिया – ‘आपके भारत आने पर आपकी सभी समस्याओं का समाधान किया जायेगा।’

अनेक परिवार भारत आये। उनके रहने का प्रबंध मुंबई के परिवारों में पूरी गोपनीयता रखते हुए किया गया। इस तरह असंख्य युवतियों और महिलाओं को आश्रय और सुरक्षा देकर वं. मौसीजी ने अपने साहसी नेतृत्व का परिचय दिया।

मौसी जी का शांत, पवित्र तेजस्वी जीवन 27 नवम्बर 1978, कार्तिक (मार्गशीर्ष) कृष्ण द्वादशी, युगाब्द 5080 को पंचत्व में विलीन हो गया। देह नष्ट हुई, कीर्ति, प्रेरणा अमर है, आगे भी रहेगी।

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