रॉकेटरी : द नाम्बी इफैक्ट (फिल्म समीक्षा)

रॉकेटरी : द नाम्बी इफैक्ट (फिल्म समीक्षा)

रॉकेटरी : द नाम्बी इफैक्ट (फिल्म समीक्षा)रॉकेटरी : द नाम्बी इफैक्ट (फिल्म समीक्षा)

एक ऐसी फिल्म जिसका आखिरी आधा घंटा ही नहीं बल्कि पूरी फिल्म ही दर्शकों को अंदर तक तोड़ कर रख देती है कि कैसे कैसे षड्यंत्र हमारे देश में देश के असली नायकों के साथ हुए हैं। यह फ़िल्म हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हमने अपने नायकों का सही चुनाव नहीं किया। हमारे लिए फिल्मी अभिनेता हमारे नायक होते हैं, देश की मीडिया और उनकी मार्केटिंग और पीआर टीम हमें उनके बारे में पल पल की खबर देती है। लेकिन जो हमारे देश के सही मायने में नायक हैं, इसरो वैज्ञानिक डॉ. एस नम्बी नारायणन जैसे लोग, उनके बारे में देश में आम लोगों को पता ही नहीं।

डॉ. नम्बी नारायणन का पूरा जीवन और विशेष रूप से उनके 24 वर्षों के कानूनी संघर्ष को ढाई घंटे की फ़िल्म में दिखा पाना असंभव काम है। फ़िल्म में डॉ. नम्बी नारायणन का त्याग, बलिदान और देश सेवा का जुनून हमें अंदर से झकझोर देता है, भावुक कर देता है और हमें भी देश के लिए कुछ कर दिखाने की प्रेरणा देता है। इस फ़िल्म की पटकथा तो कसी हुई है ही, पर अभिनेता आर माधवन जिन्होंने डॉ. नम्बी नारायणन की भूमिका निभाई है, ने भी अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है।

यूं तो फ़िल्म उनके शुरुआती दौर के जीवन से शुरू होती है, जब वे इसरो में वैज्ञानिक थे और महान वैज्ञानिक डॉ. विक्रम साराभाई के सहयोगी थे। फ़िल्म धीरे धीरे उनके जीवन की अहम घटनाओं और साथ ही देश और दुनिया की महत्वपूर्ण घटनाओं के साथ आगे बढ़ती है। लेकिन दर्शकों के लिए फ़िल्म का वो हिस्सा देख पाना अत्यंत ही कठिन होगा, जो किसी सरकारी षड्यंत्र के अंतर्गत डॉ. नम्बी नारायणन के साथ हुए अन्याय को दिखाता है। हालांकि षड्यंत्र क्या था?? उस समय इस षड्यंत्र के पीछे की राजनीति क्या थी?? हमारे महान वैज्ञानिक डॉ. होमी जहांगीर भाभा, डॉ. विक्रम साराभाई, और भी न जाने कितने वैज्ञानिकों की असमय संदिग्ध हालात में मौत क्यों हुई?? इन सब प्रश्नों के उत्तर देने में फ़िल्म निर्माताओं ने समय बर्बाद नहीं किया। लेकिन फिर भी, जितना भी फ़िल्म के माध्यम से डॉ. नम्बी नारायणन के जीवन के संघर्ष को बड़े पर्दे पर लाकर उनकी कहानी को दुनिया को बताने के सफल प्रयास के लिए इस फ़िल्म के निर्माता, निर्देशक और अभिनेता आर माधवन बधाई के पात्र हैं। यह एक बहुत ही साहसी प्रयास है और निश्चित तौर पर इस फ़िल्म को प्रत्येक भारतीय को देखना चाहिए। इसके मुख्यतः दो कारण हैं – पहला है आर्थिक कारण – कोई भी फ़िल्म बिना लागत के नहीं बनती। जब कोई निर्माता फ़िल्म बनाता है, उस पर पैसे लगाता है तो उसको उसका लाभ चाहिए होता है, पर जब फ़िल्म डॉ. नम्बी नारायणन पर हो तो फ़िल्म निर्माता के मन में अवश्य ही मुनाफा कमाना तो नहीं रहा होगा। उन्होंने जो नेक काम किया है, उसका पारितोषिक तो उन्हें मिलना ही चाहिए ताकि भविष्य में भी वे इसी तरह की और फिल्में बना सकें।

इसका दूसरा कारण है कि, हमारे सच्चे नायकों को देश की भावी पीढ़ी को जानना चाहिए। जहां एक ओर टुकड़े टुकड़े गैंग के लोग वामपंथी मीडिया की सहायता से लोकप्रियता हासिल कर रहे हैं, उनका देश विरोधी नारे लगाना, देश तोड़ने की बात करना, उनका जेल जाना, उनका चुनाव में खड़ा होना, ये सब उनकी लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ा रहा है। तो देश की भावी पीढ़ी कहीं अपने नायक चुनने में भूल न कर दे। इसीलिए उनका इस फ़िल्म को देखना आवश्यक है। देश के बच्चों को अपने सही नायकों की पहचान होनी आवश्यक है।

आज सबसे शर्मनाक बात यह है कि फ़िल्म निर्माता के इतने साहसिक प्रयास के बावजूद सिनेमा घर खाली पड़े हैं। इस पर लोगों का कहना है कि फ़िल्म का प्रमोशन उतना नहीं हुआ, जितना कि होना चाहिए था। तो यहाँ पर प्रश्न यह है कि हॉलीवुड की फिल्मों का भी तो प्रोमोशन न के बराबर ही होता है फिर भी लोगों को आने वाली हर फ़िल्म की तारीख तक पता होती है।

व्यवसायिक सैटेलाइट की लॉन्च, उसको सम्भव बनाने वाले के संघर्ष, एक असाधारण और अपना प्रभाव छोड़ने वाली कहानी पर बनी है फिल्म रॉकेटरी। फिल्म के माध्यम से हमें पहली बार पता चला कि डॉ. नम्बी नारायणन कौन हैं। ये वही हैं जिनका नाम हम डॉ. होमी जहांगीर भाभा, डॉ. विक्रम साराभाई, डॉ. सतीश धवन और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के साथ लिया जाता है। अगर आज भारत चन्द्रयान 1, मिशन मंगल, पीएसएलवी, जीएसएलवी जैसे अभूतपूर्व मिशन और रॉकेट बनाये हैं तो उसके पीछे डॉ. नम्बी नारायणन का हाथ है। उनके बिना शायद यह सब सम्भव नहीं होता। उन्होंने ही देश को उसका सबसे पहला 600 किलोग्राम का थ्रस्ट लिक्विड प्रोपेलेंट मोटर बनाया। देश के अंदर लिक्विड फ़्यूल्ड रॉकेट टेक्नोलॉजी की शुरुआत हो पाई तो उसका श्रेय डॉ. नम्बी नारायणन को जाता है। उनका बनाया हुआ विकास इंजन इसरो के कई प्रोजेक्ट में बहुत उपयोगी साबित होता है। इसी की सहायता से चन्द्रयान 1 और मंगल तक पहले ही प्रयास में पहुंचने का सपना साकार हुआ है। इसरो को दुनिया की बेहतरीन स्पेस रिसर्च आर्गेनाइजेशन बनाने में उनका योगदान अविस्मरणीय है।

लेकिन इस देश के लिए यह शर्म की बात है कि उन्हें इतनी आसानी से भुला दिया गया। इसरो के क्रायोजेनिक इंजन डिवीज़न के इंचार्ज डॉ नम्बी नारायणन पर 1994 में जासूसी के झूठे आरोप लगे, जिसके बाद उन्हें 24 वर्षों तक संघर्ष करना पड़ा। गिरफ्तारी के बाद 50 दिनों तक उन्हें शारिरिक और मानसिक प्रताड़ना दी गई ताकि उनके ऊपर लगाये गये आरोप वो स्वीकार कर लें। 30- 30 घण्टे तक उन्हें बैठने नहीं दिया गया। सवालों का जवाब देने तक के लिए उन्हें बैठने नहीं दिया गया। 1998 में अदालत ने उन्हें निर्दोष घोषित किया। 2018 में अदालत ने स्वयं कहा कि उनकी गिरफ्तारी की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। 24 साल के संघर्ष के बाद साल 2019 में उनके योगदान के लिए उन्हें भारत का तीसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्म भूषण दिया गया। लेकिन उस सम्मान तक आते आते उन्होंने अपना बहुत कुछ खोया। यह फ़िल्म उसी कहानी को आपके सामने रखती है।

फ़िल्म, वैदिक मंत्रोच्चार के साथ शुरू होती है, जो उनके संस्कारों से हमारा परिचय करवाती है। फ़िल्म के शुरुआती पाँच मिनट में ही, डॉ. नम्बी नारायणन के साथ जो त्रासदी हुई थी उससे हमारा परिचय करवा देती है। कहानी को दिखाने का तरीका मनोरंजक है। यह फ़िल्म डॉ. नम्बी नारायणन के जीवन के हर पहलू को छूकर निकलती है। आर माधवन का अभिनय सशक्त है।

फ़िल्म देखने के बाद हर दर्शक शायद यही विचार लेकर सिनेमाघर से बाहर निकलेगा कि “कोई भी देश तब तक महान नहीं बन सकता जब तक उसको महान बनाने वालों की कद्र न हो। “

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